हे मानवश्रेष्ठों,
विभाजन और एकता के आधार
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
विभाजन और एकता के आधार
विभाजन तो होना ही है। जब भौतिक परिस्थितियाँ अलग हैं, भाषाएँ अलग हैं और जब अन्य अलगाव हैं तो वर्ग बनेंगे ही। कम से कम वर्तमान में तो विभाजन का अस्वीकार आदर्शवादी-भाववादी है। विभाजन यथार्थ है। हाँ, हम इनमें कुछ ऐक्य तलाश सकते हैं। हालांकि इसकी सम्भावना कम है। एक सुखद स्वप्न है कि ये सब विभाजन खत्म हो जाएँ और सब एक जैसे हो जाएँ। लेकिन हम जानते हैं भारत के राष्ट्रीय झंडे पर कोई विभाजन नहीं दिखता, उसपर कोई भारी या हल्का बहस, शोर नहीं दिखता। जब तक वर्गीकरण है, वर्ग तो तय है, क्योंकि वही आधार है।
सही सा ही कह रहे हैं, परिस्थितियों का वस्तुगत विश्लेषण करना आप सीख रहे हैं। पर
समग्रता में और लक्ष्यों के सापेक्ष रखकर देखना अभी सीखना बाकी है।
वास्तविकताओं
का, वस्तुगतताओं का विश्लेषण इसलिए किया जाता है कि इन्हें समझ कर, आगे की
राह इन्हीं में से निकालना हम सीख सकें, तदअनुसार अपनी कार्यवाहियां और
फौरी लक्ष्य तय कर सकें; ना कि इसलिए कि हम वास्तविकताओं को समझकर उसी के
अनुसार अपने आपको और अपनी कार्यवाहियों को ढ़ाल लें, उन्हीं के अनुसार अपनी
सैद्धांतिकियां गढ़ लें।
जैसा कि आप सही समझ रहे हैं, समाज में
समग्रता में एक्यताएं हैं, और विभाजन भी। विभाजनों के कई अलग-अलग आधार
हैं, क्षेत्र, धर्म, भाषा, जाति, आदि-आदि, और कई नये भी पैदा किए जा सकते
हैं। एक समझ यह भी कह सकती है कि विभाजन है, यह यथार्थ है, इसलिए अभी के
लिए यही उचित है कि इसी विभाजन की राजनीति की जाए, इसी के ज़रिए अपने को
ऊंचा उठाया जाए, अपने समूह को इस स्थिति में लाया जाए कि वह व्यवस्था से
सौदेबाजी की ताकतों में हो। अभी इसी तरह की ही राजनीति अधिकतर चल रही है।
जाहिर है, विभाजन और पुख्ता होते हैं, अलगाव तथा नफ़रत और पुख़्ता होती है,
परिणामतः यथास्थिति बनी ही नहीं रहती और पुख़्ता होती है।
मुक्ति की
राह समग्रता में है। अलग-अलग मुक्त नहीं हुआ जा सकता। इसलिए जो समग्र
मुक्ति के स्वप्न देखते हैं, वे अपनी कार्यवाहियों के लिए इस समग्रता को
विभाजित करने वाले तथ्यों को आपना आधार नहीं बनाया करते। वे इस तरह के
आधार चुना करते हैं जो अधिक सार्वभौम हैं, जरूरी हैं, सामान्य हैं, आम
हैं, प्राथमिक हैं। जो उनकी इस समग्रता और एकता का सूत्रपात करते हैं और
विभाजनों के आधारों को कमज़ोर करते हैं।
हम और हमारा दृष्टिकोण,
हमारी तात्कालिकताएं हमें वही दिखा रही होती है, जो वाक़ई में हम देखना
चाहते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि आखिर यह भी यथार्थ का ही एक हिस्सा होती
हैं, इसलिए यथार्थवादी वास्तविकता का भ्रम रचना आसान हो जाता है। हमें
विभाजन के आधार मुख्य लग रहे हो सकते हैं, और इस तरह की चीज़ें भी जो अधिक
जरूरी और आम हो सकती हैं, वे गौण समझी जा सकती हैं।
हमारी भूख एक
सी है, हमारे अभाव एक से हैं, हमारे जीवन संबंधी दुख और हमारी चिंताएं एक
सी हैं, हमारी शिक्षा की कोई आसान सुविधा नहीं है, रोजगार हम सभी को नहीं
मिला करता, हम एक ही तरह से चिकित्सा के अभाव में मरा करते हैं, हमारे
नलों में एक सा ही गंदा पानी आता हैं, हमारी झौंपड़ियों में बल्ब कभी-कभी
ही जला करता है, मंहगाई हम सभी को एकसा ही मारा करती है, हम विरोध नहीं कर
सकते, पुलिस का डंडा हम पर एक सा ही बरसा करता है, एक सा ही ख़ून बहा करता
है, हमारी पसीने की थोड़ी-बहुत कमाई पर भी एक सा ही डाका डाला जाता है,
शोषण का दमन-चक्र हम पर एक सा ही चला करता है, हम एक सी ही असमानता झेला
करते हैं, हम मॉलों की बिजलियों की चकाचौंध में एक से ही सहमा करते हैं,
आदि-आदि। हम सभी की जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं एक सी ही तरह पूरी नहीं हुआ
करती, हमारी अभिशप्तताएं एक सी हैं। इतना कुछ हममें एकसा है, इसका
अस्वीकार, इनका तिरस्कार, इनकी उपेक्षा, इनकी अवहेलना करके, हम सबमें
विभाजन, अलगाव, नफ़रत बढ़ाकर हमारी लड़ाइयों, हमारे संघर्षों को कमजोर करना
पता नहीं कौनसा यथार्थवाद होगा।
जो लोग सुखद स्वप्नों को साकार
होते देखना चाहते हैं, वे एक्यता के आधारों को मजबूत करते हैं, इन्हीं के
आधारों पर आमजन की लामबंदी करना सुनिश्चित करके संघर्षों को अमली जामा
पहनाते हैं, प्राथमिकताओं को पहचानने की चेतना जागृत करते हैं और विभाजन
के आधारों को कमजोर करते हैं, उन्हें द्वितीयक प्राथमिकता पर रखना सीखते
और सिखाते हैं।
समाज के विकास की रौशनाई में, वर्ग का दार्शनिक
संवर्ग ( category ), और इसकी अवधारणा, जिस तरह का आप प्रयोग कर रहे हैं,
वह उससे अधिक व्यापक है। वर्ग और वर्ग-संघर्ष के बारे में अभी आप अध्ययन
करेंगे ही।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
2 टिप्पणियां:
आपको पढना गजब की अनुभूति प्रदान करता है । दो बार पढ चुका हूं और जाने कितने ही निहितार्थों पर पहुंचा हूं
इतनी गहरी और महत्वपूर्ण बातें हमें समझाने के लिये धन्यवाद… ये पोस्ट विशेष रूप से दिल को छू गयी… बार बार पढ़कर समझूँगी..
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