शनिवार, 29 जून 2013

अभिशप्तता और नियति की अवधारणा

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



अभिशप्तता और नियति की अवधारणा

यानी हम सब साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध करेगे। इतनी जल्दी समतामूलक समाज तो बन नहीं रहा, तब तक हम और बाध्य-गुलाम बनते जायें। यानी हम कुछ दशकों तक तो निश्चय ही इन सबको झेलने अभिशप्त रहें?

हां, हम और आप अभिशप्त हैं और रहेंगे। क्योंकि आपको यह अब दिखने लग गया है। जिनकों अभी भी यह नहीं दिखता है, नहीं समझ में आता है उनको ऐसी कोई अभिशप्तता नहीं नज़र आती। उनके अनुसार तो सब कुछ ठीक है, मज़े में है। दुनिया बेहतर है, तो फिर इसे बदले जाने की क्या आवश्यकता है।

आप यह समझेंगे कि जो हम कई बार कह चुके हैं, कि किसी के सोचने से दुनिया नहीं बदल जाती। उत्पादन प्रणलियों का विकास और उसका अवरुद्ध होना ही भविष्य की राह तय किया करता है। आज के संचार और असमान विकास के इस युग में आप किसी स्थान और काल के सापेक्ष, वैचारिक रूप से इस अवस्था में पहुंच सकते हैं कि आप इसे समझ सकें और व्यवस्था के कोख में पल रही परिवर्तन की बयार को जारी रखने और तेज़ करने में अपना योगदान कर सकें, पर वास्तविक निर्णायक परिवर्तन तो परिस्थितियों और क्रांतिकारी तत्वों की वॄहत स्तर की कार्यवाहियां ही करेंगी।

तब तक जैसे समाज के कुछ हिस्से शोषण को अभिशप्त हैं, हम भी देखने को अभिशप्त हैं, हां यह अभिशप्तता, समझ और ग्लानि हमें मुक्ति की दशा-दिशा की राह पर चलने को प्रेरित करती है, शोषण के मूल की पहचान और उससे संघर्ष के लिए, सर्वहारा वर्ग के संघर्षों में शामिल होने के लिए, उनकी अटूट पक्षधरता अपनाने के लिए, उनकी चेतना से जुडने और और उसे सही दिशा में लाने के प्रयासों से जुड़ने को मजबूर करती है। और इसकी वास्तविक परिणतियां भी परिस्थितियां ही तय कर रही होती हैं, कोई कितना भी चाह ले, हाथ-पैर मार ले। यदि कोई इस प्रक्रिया को नहीं समझता है और इसी तरह हवा में हाथ-पैर मारने के वैचारिक रूमान में होता है, तो जाहिरा-तौर पर वह कुछ समय बाद थक-हार कर वह पस्त हो जाता है, निराशा में आ जाता है, विचारधारा पर संशय करने लगता है, कुछ नहीं होने वाला ऐसा ही चलने वाला है के विचार से भर उठता है, और अपनी यथास्थिति में ‘वापस’ आ जाता है।

लोग शोषण को अभिशप्त रहे, पर लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद अंग्रेज दो सौ साल तक बने रहे, हज़ारों वैयक्तिक और छुटपुट सामूहिक क्रांतिकारी गतिविधियां और बलिदान होने को अभिशप्त हुए, पर लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद क्रांति नहीं सत्ता का पूंजीवादी हस्तांतरण हुआ। आज़ादी के साठ से ऊपर साल हुए, शोषण-दमन जारी रहा, आबादी का बड़ा हिस्सा बर्बादी को अभिशप्त रहा है, पर लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद यह जारी ही है। और जब तक क्रांति यानि समाज और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के संघर्षों, उनकी हारों और असफलताओं की श्रृंखलाओं के बाद की निर्णायक और स्थिर जीत हासिल नहीं हो जाती, ऐसा ही चलता ही रहेगा, यही अभिशप्तता जारी रहेगी, हमारी लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद।

अब कोई इन परिस्थितियों से निराश हो सकता है, जल्दबाजी में आत्मघाती कार्यवाहियों में लिप्त हो सकता है, या सही समझ विकसित करके, मानवजाति की अवश्यंभावी नियति की आशाओं से लबरैज़ होकर इस धीमी ही सही पर संघर्षों की प्रक्रिया का भागीदार बन सकता है, अपने लिए कुछ व्यावहारिक और तात्कालिक कार्यभार निश्चित कर उन्हें पूरा करने और इस श्रृंखला का अंग बनने की आत्मसंतुष्टि तलाश सकता है। कुछ किये जाने की, वास्तव में कुछ करने की आवश्यकताओं को यथार्थ में परिणत कर सकता है। या ऐसे ही किसी यथास्थितिवादी सुधारवादी छुटपुट गतिविधियों में अपनी उर्जा खपा सकता है। या फिर एक साथ भी, जरूरत के हिसाब से इन सभी में अपना कुछ ना कुछ योगदान दे सकता है। सब यथार्थ की उसकी परिस्थितियों और समझ पर अवलंबित है, कि कहां तात्कालिक राहत हासिल की जा सकती है, और कहां एक दूरगामी लक्ष्य की चेतना से उन्हें जोड़ा जा सकता है।

पहले हम कहते हैं कि अगर हम बेहतर परिवेश चाहते हैं तो हमारी जिम्मेदारी बनती है और यह भी कह रहे हैं कि जो होगा वह, समय, स्थिति-समाज-परिस्थिति करेंगे। …हालांकि इस बात को हम समझने की बात स्वीकार कर सकते हैं। लेकिन भाग्य भरोसे जैसी बातें पसन्द नहीं आतीं। ऐसे घोर नियतिवादी-भाग्यवादी और ज्योतिषीय विश्वास से भरे शब्द तो पारम्परिक-निष्क्रिय लोग हर जगह कहते हैं। माने उद्यम या संघर्ष का कोई अर्थ नहीं रह जाता इन शब्दों को स्वीकारने पर। ऐसी बातें भगवान-भरोसे छाप वाली हैं। पसन्द नहीं आईं।

आपने पूरी बातचीत के इस मुख्य बिंदु को तो अपनी प्रतिक्रिया की प्रक्रिया से बिल्कुल ही गायब कर दिया। "और जब तक क्रांति यानि समाज और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के संघर्षों, उनकी हारों और असफलताओं की श्रृंखलाओं के बाद की निर्णायक और स्थिर जीत हासिल नहीं हो जाती, ऐसा ही चलता ही रहेगा, यही अभिशप्तता जारी रहेगी, हमारी लाख इच्छाओं और अनिच्छाओं के बावज़ूद।" यह इसलिए भी पुनः बताया कि आप आगे यह भी. "माने उद्यम या संघर्ष का कोई अर्थ नहीं रह जाता इन शब्दों को स्वीकारने पर" लिख गये।

चलिए इस बहाने इस नियति पर भी कुछ बात करलें। जैसे कि हर काल्पनिकता, अवधारणा के वास्तविक भौतिक आधार हुआ करते हैं वैसे ही यह नियति की अवधारणा भी शून्य से नहीं उपजी है। वास्तविक जीवन में मनुष्य इस तरह की कई परिघटनाओं से बाबस्ता होता है जहां कार्य-कारण संगतता के चलते उसे इस चीज़ का बोध होने लगता है कि कुछ निश्चित कारण, कुछ निश्चित घटनाओं, संवृत्तियों को जन्म देते है। यानि कि कुछ निश्चित परिस्थितियों और संयोगों में, किन्हीं निश्चित परिणामों का पूर्वानुमान किया जा सकता है। ऐसा हुआ है, तो यह तो होगा ही। ऐसा तो होता ही है। हर रात की सुबह होगी, पूर्ण चांद तब निकलेगा, गर्मियों के बाद बारिश होगी, उसके बाद सर्दियां आएंगी, पानी डालने से आग बुझ जाती है, हर बच्चा एक समय बूढ़ा होगा, मृत्यु निश्चित है, आदि-आदि।

इन्हीं वास्तविक नियमसंगतियों के अनुभव के चलते, मनुष्य ने कई और भी जगहों पर, खासकर रहस्यमयी, अपरिचित, या ऐसे कार्यों के संबंध में जो उसके जीवन से संबद्ध थे और उसके अस्तित्व के लिए महत्त्वपूर्ण थे, इन्हीं नियमसंगतियों जैसा ही कुछ आरोपित करना चाहा। उस लगता था कि जिस तरह कई परिघटनाओं की नियति को यदि वह समझता है तो कारण और परिस्थितियों में बदलाव लाकर, परिणामों को बदल सकता है, उसी तरह और भी कई आवश्यक या उसके अस्तित्व के लिए खतरनाक परिघटनाओं को वह बदल सके। इसलिए उनके कारण जानने के प्रयत्न शुरू हुए, ताकि निश्चित कार्य-परिणाम प्राप्त किए जा सकें। जहां ये उसके क्रियाकलापों और सफलताओं के दायरे में आए वे नियम, ज्ञान बनते चले गए। जहां वास्तविक परिणतियां संभव नहीं हो पाईं, वहां रहस्यमयी कारणों की कल्पना करते हुए मनुष्य अंततः ईश्वर के परम कारण तक जा पहुंचा। कई कार्य-परिणामों के लिए वह प्रारब्ध, नियति और भाग्य के कारण तक जा पहुंचा। यानि कि यह सोचना, कि ऐसा क्यूं हुआ, क्योंकि यही नियति थी, यही प्रारब्ध था, यही भाग्य में लिखा था, आदि-आदि।

आज हम जानते हैं कि वास्तविक नियमसंगतियों की परिघटनाओं के पीछे कई तरह की प्राकृतिक नियमबद्धताएं काम करती हैं। प्राकृतिक परिघटनाओं में भी और सामाजिक परिघटनाओं में भी। इन्हीं को समझते हुए ही मानवजाति आज के विज्ञान और विकास तक पहुंची है। इसलिए हमें प्राकृतिक और सामाजिक परिघटनाओं को समझते समय नियमसंगतियों की व्याख्याओं की इस द्वेधता को ध्यान में रखना चाहिए। यानि कि ऐसा ना हो कि हम वास्तविक नियमसंगतियों को भी इसी काल्पनिक नियति या प्रारब्ध के हवाले कर उनकी सच्चाई से किनारा करलें, या किन्हीं परिघटनाओं में नियति और भाग्य के ( या उस जैसे ही किसी अन्य ) काल्पनिक कारणवाद को स्वीकार कर चीज़ों की भाववादी व्याख्याओं में उलझकर रह जाएं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

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