शनिवार, 25 जनवरी 2014

द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ४

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास पर आगे चर्चा की थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



द्वंद्ववाद की संकल्पना का संक्षिप्त इतिहास - ४
( a brief history on the concept of dialectics - 4 )
अधिभूतवाद

अधिभूतवाद’ ( Metaphysics ) का शाब्दिक अर्थ ‘भौतिकी के बाद’ है और यह शब्द कृत्रिम रूप से व्युत्पन्न है। सिकंदरिया के एक पुस्तकालयाध्यक्ष अंद्रोनिकस  ने, जिन्होंने अरस्तू की पांडुलिपियों का अध्ययन किया था, उन्हें एक क्रम में रखते समय तथाकथित ‘प्रथम दर्शन’ या ‘दार्शनिक प्रज्ञान’ से संबंधित ग्रंथों को प्रकृति संबंधी अरस्तू की रचना ‘भौतिकी’ के बाद रखा। उस काल से सारी दार्शनिक कृतियां अधिभूतवादी कहलाने लगीं। यह शायद इसलिए भी लोकप्रिय हो उठा कि इस शब्द से ऐसा भ्रम पैदा होता है कि यह दर्शन, भौतिकी की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बाद का है, यानि कि यह प्रतीत होता है कि अधिक वैज्ञानिक और तार्किक सा है। कालांतर में इस शब्द का अर्थ बदल गया। मसलन, हेगेल  ने अधिभूतवाद को गति के बारे में ऐसा दृष्टिकोण बताया, जो द्वंद्ववाद के विपरीत है।

अधिभूतवाद चीज़ों और परिघटनाओं ( phenomena ) को उनकी एकता और अंतर्संबंधों के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखता बल्कि उस समग्र, सामान्य संबंध के बाहर प्रत्येक घटना को दूसरे से अलग-थलग ढंग से, असम्बद्ध ( incoherent, relationless ) करके देखता है, और उनका अध्ययन पारस्परिक संबंधों व अंतर्क्रियाओं ( interactions ) से अलग करके करता है। परिणामस्वरूप उन्हें गतिमान नहीं बल्कि स्थिर, जड़ीभूत, और अपरिवर्तनीय मानता है। अधिभूतवादी दृष्टिकोण, परिवर्तन तथा गति का अध्ययन करते समय, परिघटनाओं के वास्तविक अंतर्संबंधों तथा विकास को दिखा पाने में असमर्थ होता है, और इसीलिए प्रकृति, समाज तथा मनुष्य के चिंतन में मूलतः नई घटनाओं तथा प्रक्रियों के उद्‍भव की संभावनाओं को स्वीकार नहीं करता।

अधिभूतवादी विचार-पद्धति में गति, उसके स्रोत ( source ) तथा उसमें अंतर्निहित अंतर्विरोधों ( inherent contradictions ) को वस्तुओं में अनिवार्य नहीं माना जाता, बल्कि उन्हें अंतिम परिणाम समझा जाता है। चूंकि अधिभूतवादी के लिए वस्तुएं, उनके मानसिक परावर्तन, विचार अलग-अलग होते हैं और उन पर एक-एक करके पृथक विचार करना होता है, अतः उसके लिए वे ऐसे विषय होते हैं, जो हमेशा एक से रहते हैं और जिनका रूप सदा के लिए निर्धारित तथा निश्चित हो गया है। इस दृष्टि से विश्व में परिवर्तन नहीं सिर्फ़ पुनरावर्तन होता है, सब कुछ देर-सवेर पुनरावर्तित होता है, हर चीज़ ऐसे गतिमान होती है, मानो एक वृत्त में घूम रही हो और गति तथा परिवर्तन के स्रोत वस्तुओं और घटनाओं के अंदर नहीं, बल्कि किसी बाहरी प्रणोदन ( external propulsion ) में, उन शक्तियों में निहित होते हैं जो विचाराधीन घटना के संदर्भ में बाहरी होती है। यह बाह्य जगत में आमूल गुणात्मक रूपांतरणों ( radical qualitative conversions ) और क्रांतिकारी परिवर्तनों ( revolutionary changes ) को मान्यता नहीं देता और विकास को ऐसे पेश करता है मानो वह सुचारू क्रमविकास ( smooth evolution ) और महत्त्वहीन परिमाणात्मक परिवर्तन ( insignificant quantitative changes ) हो।

इस तरह द्वंद्ववाद और अधिभूतवाद विकास के परस्पर दो विरोधी दृष्टिकोण ( approach ) हैं, विश्व के ज्ञान की व्याख्या करने की दो भिन्न-भिन्न विधियां ( methods ) हैं। चिंतन की विकास प्रक्रिया में हम देखते हैं कि जहां द्वंद्ववाद गति को मान्यता देता है, वहीं अतीत काल में अधिभूतवाद ने भौतिक घटनाओं और उनके अंतर्संबंधों के एक आवश्यक अनुगुण के रूप में गति से स्वयं को पृथक कर लिया था, हालांकि आधुनिक अधिभूतवाद गति से इन्कार तो नहीं करता है, पर उसे सरलीकृत तरीक़े से लेता है। द्वंद्ववाद विकास की व्याख्या विरोधियों की अंतर्क्रिया, उनकी एकता और संघर्ष के रूप में करता है, वास्तव में यह भीतरी विकास के, यानि स्वविकास के समकक्ष है। इसके विपरीत, अधिभूतवाद विकास को सरल स्थानांतरणों, बढ़ती या घटतियों, या चक्रिक गतियों में परिणत कर देता है और स्वविकास को ठुकरा देता है।

विश्व तथा उसके संज्ञान ( cognition ) के अधिभूतवादी दृष्टिकोण ने उस अवस्था में एक उचित भूमिका निभाई, जब वह विज्ञान की तरक़्क़ी और ज्ञान की प्रगति से जुड़ा हुआ था। इस पद्धति ने अलग-अलग वस्तुओं तथा घटनाओं के बारे में तथ्यों के संचय तथा संग्रह में और तुलना, प्रेक्षण, आदि के द्वारा उनके अनुगुणों की खोज में मदद की। इससे कई विज्ञानों : गणित, भौतिकी, जैविकी, रसायन, आदि में खोजों को प्रेरणा मिली, आवश्यक तथ्य मिले।

फ्रांसीसी जैविकीविद तथा चिंतक जे० लामार्क ने तथ्यात्मक सामग्री के विशाल संग्रह के आधार पर प्राणियों के क्रम-विकास के बारे में एक सिद्धांत की रचना की। इसमें क्रमविकास को सरल से जटिल की ओर गति के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उसे आंतरिक तथा बाह्य कारकों के प्रभावांतर्गत अंगी के सुधार का परिणाम माना गया है। परंतु चिंतन के अधिभूतवादी दृष्टिकोण के प्रभावी होने के कारण ऐसी स्थिति ही बन सकती थी, जिसमें वस्तुओं तथा घटनाओं के साथ उनके रिश्ते के साथ नहीं, बल्कि उनके अकेलेपन में देखा गया था ; वैज्ञानिकों का ध्यान उनके परिवर्तन और विकास से विकर्षित ( detract ) हो गया। यह दृष्टिकोण १९वीं सदी तह प्रभावी रहा और कई वैज्ञानिक विश्व की अपरिवर्तनीयता तथा उसके बुनियादी नियमों पर विश्वास करते थे, जिन्हें यांत्रिकी के नियमों में परिणत कर दिया गया था। इसके अनुसार ब्रह्मांड में कोई नई चीज़ पैदा नहीं हो सकती। इस तरह से अधिभूतवाद, जो इतिहासतः सीमित ज्ञानार्जन विधि है, धीरे-धीरे विज्ञान के क्रम-विकास में बाधा डालने लगा।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

2 टिप्पणियां:

Neetu Singhal ने कहा…

पोथी पड़ पड़ जग भया, पंडत भया न कोए ।
ढाई आखर प्रेम का, पड़ सो पंडत होए ।|
----- । संत कबीर ॥ -----

Dinesh Parihar ने कहा…

नियम किसी बंधन में
नहीं रहता या नियम का नाम ही बंधन
हैं।
इसे ऐसे समझ सखते हैं परिवर्तन एक
नियम हैं लेकिन यह "हाथ
की पाँचों उगलिया बराबर नहीं होती"
को रखे तो अवधारणा बदल जाती ह

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