हे मानवश्रेष्ठों,
तीन महान खोजें
( three great discoveries )
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हम ‘द्वंद्ववाद’ संकल्पना के ऐतिहासिक विकास के अंतर्गत अधिभूतवाद पर चर्चा की थी, इस बार हम विज्ञान की दुनिया की तीन महान खोजों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़
समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र
उपस्थित है।
तीन महान खोजें
( three great discoveries )
विज्ञान के विकास के साथ ही विश्व के अधिभूतवादी
दृष्टिकोण की कमजोरियां स्पष्ट होती गईं। ऐसा सबसे पहले ब्रह्मांडिकी (
cosmology ) में हुआ। जर्मनी के प्राकृतिक वैज्ञानिक और दार्शनिक कांट तथा फ्रांसीसी खगोलविद व गणितज्ञ पियेर लाप्लास
ने सौरमंडल की उत्पत्ति पर मिलती-जुलती प्राक्कल्पनाएं ( hypothesis ) पेश
कीं। इसके अनुसार सौरमंडल धूलि सरीखे भूतद्रव्य ( matter ) से स्वाभाविक
रूप से विरचित हुआ। उनका सिद्धांत आकाशीय पिंडो के बारे में अधिभूतवादी
संकल्पना पर पहला आघात ( shock ) था।
परिवर्तन तथा क्रमविकास से
संबंधित द्वंदवादी विचार, स्वयं विज्ञान के ही गर्भ में उपज रहे थे। खास
तौर पर १९वीं सदी के मध्य से, विज्ञान में यह विचार भली भांति प्रतिष्ठित
हो गया कि क्रमविकास के सिद्धांत का ही सहारा लेकर परिवर्तनशील विश्व की
विविधता का स्पष्टीकरण देना संभव है। विश्व के द्वंद्वात्मक स्वरूप के
निरूपण ( demonstration ) में १९वीं सदी में संपन्न तीन महान खोजों का विराट महत्त्व है। ये हैं जीवित अंगियों की कोशिकीय संरचना ( cellular structure of living organism ) , ऊर्जा की अविनाशिता तथा रूपांतरण का नियम ( law of conservation and conversion of energy ) और क्रमविकास का सिद्धांत
( theory of evolution )। इन खोजों ने विश्व की वस्तुओं और घटनाओं के
सार्विक अंतर्संबंधों को उद्घाटित करने में सहायता की और यह दर्शाया कि
विकास सरल से जटिल और निम्न से उच्चतर की ओर होता है। इससे पहले वैज्ञानिक
और अधिभूतवादी दार्शनिक यह मानते थे कि पदार्थ के विभिन्न रूप
- कैलोरीय, चुंबकीय, यांत्रिक और विद्युतीय - एक दूसरे से स्वतंत्र रूप
में अस्तित्वमान हैं। किंतु अब उनका आंतरिक संबंध ( internal relation )
प्रमाणित हो गया था।
१९वीं सदी के तीसोत्तरी दशक में जर्मन जैविकीविद ( biologist ) थियोडोर श्वान और वनस्पति वैज्ञानिक ( botanist ) मैथियाज़ श्लैदेन
ने जीवित अंगियों के विकास का अध्ययन करते समय कोशिका ( cell ) की खोज की,
जो सारे पेड़-पौधों और प्राणियों की संरचना का आधार है। इस खोज का अकूत
दार्शनिक महत्त्व ( vast philosophical significance ) था, क्योंकि इसने
समस्त जीव-धारियों की एकता तथा पारस्परिक नातेदारी ( mutual kinship ) को
प्रमाणित कर दिया।
अंग्रेज भौतिकीविद जेम्स जूल और रूसी भौतिकीविद एमिल लेंट्ज़
द्वारा अन्वेषित ऊर्जा की अविनाशिता और रूपांतरण का नियम बतलाता है कि
अकारण न कोई वस्तु प्रकट होती है, न ग़ायब होती है। सदियों पहले इसी प्रकार
का विचार कई प्राचीन दार्शनिकों ने भी व्यक्त किया था किंतु यह उनका एक
अनुमान मात्र था, उन्होंने भी कहा था कि शून्य से किसी की उत्पत्ति नहीं
होती। यह सूक्ति वैज्ञानिक दृष्टि से तभी प्रमाणित हुई जब जूल और लेंट्ज़
ने ऊर्जा के सारे प्रकारों के बीच अंतर्संबंध को प्रमाणित कर दिया कि
ऊर्जा अविनाशी और असर्जनीय है और उसे केवल एक रूप से दूसरे रूप में
परिवर्तित भर किया जा सकता है यथा यांत्रिक से ताप ऊर्जा में और ताप ऊर्जा
से विद्युत ऊर्जा में, आदि।
अंग्रेज प्रकृति वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन
द्वारा निरूपित क्रमविकास के सिद्धांत ने वनस्पति जगत तथा प्राणी जगत के
बीच अंतर्संबंध को ज़ाहिर किया। डार्विन ने तथ्यात्मक ( factual ) सामग्री
के विशाल भंडार के आधार पर यह साबित किया कि पौधों से लेकर मनुष्य तक सारी
प्रकृति एक अनवरत प्रवाह और क्रमिक विकास की स्थिति में है। क्रमविकास का
विचार ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया। २०वीं सदी में भौतिकी तथा
खगोलविद्या में ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विकास संबंधी सिद्धांतों का
आविर्भाव ( emersion ) हुआ। भूविज्ञान ( geology ) और भूगोल ( geography )
ने इस विचार की पुष्टि की कि पृथ्वी, उसका आभ्यंतर और सतह लगातार बदल रही
है। भूविज्ञान ने पदार्थों के विकास का अध्ययन शुरू कर दिया। इतिहास (
history ) में यह विचार पेश किया जाने लगा कि प्रगति निम्नतर से उच्चतर
अवस्थाओं की ओर गति है। मनोविज्ञान ( psychology ) ने बताया कि मनुष्य की
मानसिकता भी बदलती है। इस प्रकार, सार्विक क्रमविकास का सिद्धांत विज्ञान
और दर्शन में सर्वव्याप्त हो गया और विश्व की अपरिवर्तनीयता के दृष्टिकोण
का पूर्णतः खंडन हो गया।
यह विचार भी सत्य सिद्ध हो रहा है कि सारी यथार्थता
( reality ) अंतर्संबंधित है। जलवायु में परिवर्तन से वनस्पति और प्राणी
जगत में परिवर्तन हो जाते हैं। सूर्य में उठनेवाले चुंबकीय तूफ़ान रेडियो
संचार को ही नहीं गड़बड़ाते हैं, बल्कि मौसम पर भी असर डालते हैं, जबकि
वायुमंडलीय दबाब मनुष्यों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। वस्तुओं और
घटनाओं के सार्विक संबंधों के बारे में वैज्ञानिक जगत के साथ-साथ
साहित्यिक जगत में भी काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है। प्रकृति की केवल एक कड़ी का
विनाश या दुर्बलीकरण प्रकृति के ही नहीं, बल्कि समाज के आगे के विकास पर
भी असर डालता है। पश्चिमी जर्मनी के एक दार्शनिक रॉबर्ट श्तैगरवाल्ड
वस्तुओं और घटनाओं के बीच सार्विक संबंध के एक उदाहरण के रूप में एक
अत्यंत कारगर कीटनाशी पदार्थ डी. डी. टी. की खोज की चर्चा करते हैं। इसके
अनुप्रयोग से कीड़ों का उन्मूलन ( abolition ) करना सहज हो गया, किंतु इसने
पक्षियों का भोजन भी नष्ट कर दिया, फलतः बसंत ख़ामोश हो गया। डी. डी. टी.
से पक्षी और मधुमक्खियां मर गईं तो पहले से कम फूलों का परागण हुआ, फल और
फ़सल घट गई। वर्षाजल से डी. डी. टी. सतह के पानी में प्रविष्ट हो गया, फिर
नदियों और सागरों में और अंततः हमारे भोजन में। यह लोगों की मांसपेशियों
में संचित हो गया। चूंकि डी. डी. टी. को जीवित शरीर से हटाना असंभव है,
इसलिए वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि डी. डी. टी. के उपयोग को ख़त्म
कर दिया जाए। किंतु घटनाओं के बीच सार्विक संबंध हमेशा जाहिर नहीं होता है, कभी-कभी तो हम उसे देख ही नहीं सकते।
विश्व केवल परिवर्तनशील और गतिमान ही नहीं ह, यह एक अविभक्त साकल्य ( a indivisibly whole ) है और इसमें हर चीज़ अभिन्न
( integral ) रूप से जुड़ी है। विज्ञान ने प्राचीन दार्शनिकों के द्वारा
लगाए गए इस अनुमान को सही साबित कर दिया कि कोई भी वस्तु शून्य से सर्जित ( create ) नहीं होती और कोई भी चिह्न छोड़े बग़ैर लुप्त
नहीं होती। परमाणु प्राथमिक कणों से बनते हैं, फिर उनसे अणुओं की रचना
होती है। बड़े आकाशीय पिंड भी एक दूसरे से जुड़े हैं ; पौधे और प्राणी
जातियां, वर्गों और कुलों की रचना करते हैं ; सूर्य पृथ्वी से, हमारी
आकाशगंगा अन्य से जुड़ी है, आदि। अतः विश्व का अध्ययन करते समय हमें उसे
उसके अंतर्संबंधों, एकता और परिवर्तनों के सहित देखना चाहिए।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
5 टिप्पणियां:
bahut acchhi prastuti
"विज्ञान ने प्राचीन दार्शनिकों के द्वारा लगाए गए इस अनुमान को सही साबित कर दिया कि कोई भी वस्तु शून्य से सर्जित ( create ) नहीं होती और कोई भी चिह्न छोड़े बग़ैर लुप्त नहीं होती। परमाणु प्राथमिक कणों से बनते हैं, फिर उनसे अणुओं की रचना होती है। अतः विश्व का अध्ययन करते समय हमें उसे उसके अंतर्संबंधों, एकता और परिवर्तनों के सहित देखना चाहिए।"
---- यही तो वैदिक दर्शन की ईश्वरीय दृष्टि व सृष्टि का मूल-भाव है ...जो हज़ारों वर्ष पहले ही अनुसंधानित एवं वर्णित है.....यत्पिंडे तत ब्रह्मांडे ....तत्वमसि ..आदि..
अच्छी जानकारी
आदरणीय श्याम जी,
काल सापेक्ष जानकारी की सीमाओं के साथ किए गए बचकाने आत्मगत अनुमानों, और वास्तविकता से नाभिनालबद्ध परिपक्व वस्तुगत वैज्ञानिक सिद्धांतों में काफ़ी फर्क होता है। यह हमें सीखना ही चाहिए। हमारे प्राचीन मेधाओं के अनवरत प्रयासों और उनके क्रमिक विकास से ही हम ज्ञान-विज्ञान की वर्तमान स्थिति तक पहुंचे हैं। कालगत सीमाओं के हर प्रयास को उचित और यथेष्ट श्रेय मिलना ही चाहिए, इसी तरह उन्हें उनकी सीमाओं के साथ भी देखना चाहिए। हजारों वर्ष पहले की चीज़ें, हजारों वर्ष पहले की अवस्थाओं के सापेक्ष ही मूल्य रखती हैं। वर्तमान में उनका मूल्य तय, वर्तमान की अवस्थाएं ही करेंगी, भले ही हम अपनी आत्मगतता में, अतीतजीविता के लिए कितना ही जोर लगालें।
हम आपकी आमद के लिए हमेशा शुक्रगुजार रहते ही हैं।
शुक्रिया।
समय जी..... सत्य व ज्ञान ..काल निरपेक्ष होता है अर्थात वास्तविक तथ्य हर युग में वही होता है ....अज्ञानान्धकार में ढंक जाने पर वह पुनः पुनः उदित होता है......
---- हमारा प्राचीन वैदिक ज्ञान बचकाना व अनुमान नहीं है अपितु अनुभवों के खजाने से अभिसिंचित वैज्ञानिक तथ्य युक्त है.....न कि आज के वैज्ञानिक तथ्यों की भाँति जो कुछ प्रयोगों के प्रतिशत निश्कर्ष पर आधारित अनुमान होते हैं जो प्रारम्भ से ही विवादित रहते है एवं कुछ समय बाद ही बदल जाते हैं ..तब तक मानवता की कितनी हानि होचुकती है...
--हम गुलामी की मानसिकता लिए हुए लोग सब कुछ विदेशियों के तथाकथित आधुनिक विज्ञान ने ही बनाया मानकर गुण गाते रहते हैं....
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