शनिवार, 20 सितंबर 2014

अनिवार्यता और संयोग - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के प्रवर्गों पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
अनिवार्यता और संयोग - १

( necessity and chance ) - 1

सामान्यतः संयोग ( chance ) उसे कहते हैं, जो घट भी सकता है और नहीं भी घट सकता है तथा ऐसे भी घट सकता है और वैसे भी घट सकता है। अनिवार्य ( necessary ) उसे कहते हैं, जिसे अवश्यमेव घटित होना है या जो घटे बिना नहीं रह सकता। जब तेज़ हवा के झोंके से कुकरौंधे के बीज हर दिशा में उड़ते हैं, तो पहले से ही यह कहना असंभव होता है कि वे कहां गिरेंगे। इस स्थिति में हम कहते हैं कि उनके गिरने की जगह नितांत सांयोगिक ( coincidental ) होती है। साथ ही बीजों का बिखरना कुकरौंधे के अस्तित्व ( existence ) की एक अनिवार्य शर्त है। इसके बिना पौधों की यह जाति धरती से लुप्त हो सकती है। ऐसे और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं।

हम आसानी से अपने गिर्द की दुनिया में अल्पकालिक, अस्थायी, बाह्य, परिवर्तनीय तथा शीघ्रता से ग़ायब होने वाले ऐसे संयोजनों को देख सकते हैं, जिनके बिना भी कोई एक घटना विद्यमान तथा विकसित हो सकती है। उन्हें "संयोग" कहा जाता है। परंतु प्रत्येक प्रणाली और प्रत्येक घटना में ऐसे संयोजन, अंतर्क्रियाएं और संबंध, तत्व और उपप्रणालियां होती हैं, जिनके बिना वह अस्तित्वमान और विकसित नहीं हो सकती। उन्हें "अनिवार्य" कहा जाता है। अनिवार्यता ( necessity ) और संयोग, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रवर्ग ( category ) हैं। वे प्रत्येक भौतिक प्रणाली के प्रमुख लक्षण होते हैं।

अनिवार्यता की संकल्पना ( concept ) कुछ संयोजनों ( connections ) तथा अनुगुणों ( properties ) की समुचित दशाओं के अंतर्गत अवश्यंभावी उत्पत्ति को परावर्तित ( reflect ) करती है। अनुगुण और संयोजन तब अनिवार्य कहे जाते हैं, जब उनके अस्तित्व के कारण उन्हीं के भीतर निहित हों और जब वे एक घटना की रचना करने वाले घटकों की आंतरिक प्रकृति पर निर्भर हों। परंतु जिन अनुगुणों और संयोजनों के अस्तित्व के कारण उनसे बाहर स्थित होते हैं, यानी जो बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं, उन्हें सांयोगिक कहा जाता है। अनिवार्य अनुगुण और संयोजन अवश्यंभाव्यतः कुछ निश्चित दशाओं में ही उत्पन्न होते हैं, जबकि सांयोगिक अनुगुण और संयोजन अवश्यंभावी नहीं होते और वे उत्पन्न हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।

वस्तुगत जगत में घटनाओं के विकास की अवश्यंभावी शक्ति के रूप में अनिवार्यता का ही बोलबाला होता है, क्योंकि यह उनके सार ( essence ) से उपजती है और उनके संपूर्ण पूर्ववर्ती विकास और अंतर्क्रिया ( interaction ) पर आश्रित होती है। अनिवार्यता का प्रवर्ग प्राकृतिक और सामाजिक विकास के नियमबद्ध स्वभाव को अभिव्यक्त करता है।

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि सांयोगिक घटनाओं के, अनिवार्य घटनाओं की ही तरह, अपने ही कारण ( cause ) होते हैं। यह सोचना ग़लत होगा कि संयोग और कारणहीनता एक ही चीज़ है। कारणहीन घटनाएं क़तई नहीं होती। अनिवार्यता की ही भांति संयोग भी वस्तुगत ( objective ) है और उसका अस्तित्व इस पर निर्भर नहीं है कि हम उसके कारण को जानते हैं या नहीं। संयोग की वस्तुगत प्रकृति को अस्वीकार करने से सामाजिक इतिहास तथा मनुष्य के अस्तित्व को भाग्यवादी, रहस्यमय प्रकृति प्रदान करने की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

2 टिप्पणियां:

Neetu Singhal ने कहा…

जन्म एक संयोग है, मृत्यु अवश्यम्भावी है..... आत्मा को यदि मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाए तो यह सुसंयोग कहलाता है.....

Unknown ने कहा…

आदरणीया नीतू सिंहल जी,
इसी तरह की आम अयथार्थ वैचारिकी से मुक्ति की संभावनाओं की कोशिश की जा रही हैं यहां, अगर संभव हो सके। शुक्रिया।

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