हे मानवश्रेष्ठों,
भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
संभावना और वास्तविकता - १
( possibility and actuality - 1)
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘अनिवार्यता और संयोग’ के प्रवर्गों पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम ‘संभावना और वास्तविकता’ प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
संभावना और वास्तविकता - १
( possibility and actuality - 1)
वस्तुगत
जगत ( objective world ) में विद्यमान विभिन्न चीज़ें और प्रक्रियाएं
प्राकृतिक आवश्यकताओं की वज़ह से तब उत्पन्न होती हैं, जब उनकी उत्पत्ति (
emergence ) के पूर्वाधार ( prerequisites ), कारण ( causes) और दशाएं (
conditions ) बन चुकी होती हैं। समुचित समय बाद विकास उस स्थल पर पहुंचता
है, जहां अभी तक नयी वस्तु या प्रक्रिया उत्पन्न नहीं हुई है, परंतु उसकी
उत्पत्ति की दशाएं बन चुकी हैं, क्योंकि वे पूर्ववर्ती विकास से परिपक्व
हुई थीं।
इस तरह, पुरातन ( old ) के द्वंद्वात्मक निषेध (
dialectical negation ) से जो नयी ( new ) घटनाएं या प्रक्रियाएं उत्पन्न
होती हैं, वे रिक्तता ( vacuum
) से नहीं उपजती। उनकी पूर्वावस्थाएं, आधार तथा दशाएं पूर्ववर्ती घटनाओं
और प्रक्रियाओं में बनती तथा विद्यमान रहती हैं। किसी नयी चीज़ की उत्पत्ति
के बुनियादी पूर्वाधारों, कारणों तथा दशाओं का अस्तित्व, यानि पूर्वावस्थाओं तथा दशाओं की वह समग्रता ( aggregate ) जिस ने अभी नयी घटना को जन्म नहीं दिया है, को आम तौर पर "संभावना" ( possibility ) संकल्पना से व्यक्त किया जाता है। स्वयं प्रक्रिया, जो पहले से ही विद्यमान है, उत्पन्न हो रही है, क्रियाशील है और विकसित हो रही है, उसे संकल्पना "वास्तविकता" ( actuality ) या "यथार्थता"
( reality ) से व्यक्त किया जाता है। संभावना और वास्तविकता दो घनिष्ठता
से संबंधित संकल्पनाएं ( concepts ) हैं, जो एक दूसरे की परस्पर संपूरक
( supplement ) होती हैं, विकास की किसी भी प्रक्रिया की सबसे
महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को चित्रित करती हैं और इसीलिए द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद के प्रवर्गों का एक युग्म समझी जाती हैं।
वास्तविकता की संकल्पना को व्यापक अर्थ ( broad sense ) में भी इस्तेमाल किया जाता है और संकीर्ण अर्थ ( narrow sense ) में भी। व्यापक अर्थ में इसका तात्पर्य उस सब से होता है, जो वस्तुगत जगत में विद्यमान है. और संकीर्ण अर्थ में इसका तात्पर्य एक निष्पन्न ( accomplished ), साकार संभावना ( realized possibility ) होता है। संभावना, वास्तविकता के विकास से उत्पन्न होती है और वास्तविकता संभावना से तैयार होती है। अतः उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जाना चाहिये।
व्यवहार में वास्तविकता
से संभावना का विलगाव ( detachment ), अवास्तविक संभावनाओं के बारे में
अमूर्त संलाप ( abstract discourse ) पर पहुंचा देता है, क्योंकि सच्ची
संभावना हमेशा वास्तविकता से जुड़ी होती है और उसी से पैदा होती है। दूसरी
तरफ़, संभावना से वास्तविकता का
विलगाव नये के अहसास को कुंद ( blunt ) बना देता है और परिप्रेक्ष्य (
perspective ) को निगाहों से ओझल कर देता है।
इसके साथ ही, संभावना
और वास्तविकता को एक दूसरी के तदनुरूप ( identified ) भी नहीं मानना
चाहिये, क्योंकि वे एक टेढ़ी-मेढ़ी और बहुधा कठिन प्रक्रिया द्वारा एक दूसरी
से अलग-अलग होती हैं और इसी प्रक्रिया में दौरान संभावना, वास्तविकता में
परिवर्तित होती है। मिसाल के लिए, सामाजिक जीवन में संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए गहन प्रयत्नों की जरूरत होती है और यह बदलाव विभिन्न सामाजिक शक्तियों के संघर्ष ( struggle ) से संबंधित होता है। व्यवहार में संभावना और वास्तविकता को तदनुरूप समझ लेने से आत्मतुष्टि ( complacency ) की भावना पैदा हो जाती है और बदलाव के मक़सद से होनेवाले कार्यकलापों में ढ़िलाई ही पैदा होती है।
अमूर्त और वास्तविक
संभावनाओं के बीच अंतर करना जरूरी है। संभावना तभी वास्तविक होती है, जब
उसके कार्यान्वयन के सारे पूर्वाधार बन गये हों। किसी भी संभावना के
वास्तविकता में परिणत होने के लिए परिवर्तन की इस प्रक्रिया को वास्तविकता
के कुछ वस्तुगत नियमों के अनुरूप होना चाहिए और उसके लिए आवश्यक सारी
पूर्वावस्थाएं उपस्थित होनी चाहिए। यदि ये पूर्वावस्थाएं अपर्याप्त हों या
उनका अभाव हो, तो संभावना अमूर्त ( abstract ) और आकारिक ( formal ) होती है। आवश्यक पूर्वाधारों के बनने पर ही यह अमूर्त या आकारिक संभावना, ठोस ( concrete ) या वास्तविक संभावना ( real possibility ) में परिणत हो जाती है।
अधिकांश पौधे विशाल संख्या में बीज पैदा करते हैं लेकिन इस बात की मात्र अमूर्त और आकारिक संभावना होती है कि प्रदत्त पौधे के सारे बीज उगेंगे और उनसे पौधे उपजेंगे तथा अपनी बारी में नये बीज पैदा करेंगे। यह संभावना पुनरुत्पादन ( reproduction ) के जैविक नियमों के पूर्ण अनुरूप है, किंतु इसके वास्तविकता में परिणत हो सकने के लिए आवश्यक पूर्वावस्थाओं का अस्तित्व नहीं होता। हो सकता है कि बीजों को अनुकूल ज़मीन न मिले, उन्हें परिंदे या कीड़े खा जायें, वे शाकपातनाशी ( weed-killers ) पदार्थों से नष्ट हो जायें, आदि। यदि सारी आवश्यक पूर्वावस्थाएं सभी बीजों को उपलब्ध हो जायें तो चंद वर्षों में एक ही पौधे के वंशज सारी पृथ्वी पर छा जायें।
अधिकांश पौधे विशाल संख्या में बीज पैदा करते हैं लेकिन इस बात की मात्र अमूर्त और आकारिक संभावना होती है कि प्रदत्त पौधे के सारे बीज उगेंगे और उनसे पौधे उपजेंगे तथा अपनी बारी में नये बीज पैदा करेंगे। यह संभावना पुनरुत्पादन ( reproduction ) के जैविक नियमों के पूर्ण अनुरूप है, किंतु इसके वास्तविकता में परिणत हो सकने के लिए आवश्यक पूर्वावस्थाओं का अस्तित्व नहीं होता। हो सकता है कि बीजों को अनुकूल ज़मीन न मिले, उन्हें परिंदे या कीड़े खा जायें, वे शाकपातनाशी ( weed-killers ) पदार्थों से नष्ट हो जायें, आदि। यदि सारी आवश्यक पूर्वावस्थाएं सभी बीजों को उपलब्ध हो जायें तो चंद वर्षों में एक ही पौधे के वंशज सारी पृथ्वी पर छा जायें।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
4 टिप्पणियां:
बीती साँझ सिंदूरी जब गहनावै रत ।
बहोरि केतु नाथ संग उदयत नवल प्रभात ।१९५५ ।
भावार्थ : -- सिंदूरी संध्या के व्यतीत होने पर जब यामिनी गहरी होती जाती है तब फिर केतु नाथ के संग नवल प्रभात का भी उदय होता ही ।
प्रस्तुत पंक्तियों में यद्यपि नवल कुछ भी नहीं है तथापि प्रभात को नवल कहा गया क्यों कहा गया ? अपन सब थोड़े ही जानते हैं । रिक्तता कहीं लक्षित नहीं है तो भी एक नई क्रिया प्राप्त हुई ।।
Sunder prastutikaran
Sunder prastutikaran
Kya aakarshan ka siddhant sahi h
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