हे मानवश्रेष्ठों,
संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका - २
( the role of abstraction in knowing - 2 )
अपकर्षण/अमूर्तकरण ( abstraction ) या अपकर्षित संकल्पनाएं
( abstract concepts ) हमारे गिर्द की घटनाओं तथा प्रक्रियाओं के आंतरिक,
गहरे संपर्कों को समझने में हमारी किस तरह से सहायता करती हैं ?
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका पर चर्चा शु्रू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
संज्ञान की प्रक्रिया में अपकर्षण की भूमिका - २
( the role of abstraction in knowing - 2 )
यथार्थ ( real ) भौतिक जगत
की वस्तुओं में, अनुगुणों ( properties ), पहलुओं ( aspects ) तथा
संयोजनों ( connections ) का एक असीम समुच्चय (set ) होता है। प्रत्येक
अपकर्षण स्वयं में किसी संपर्क-सूत्र या संयोजन अथवा अनुगुण को परावर्तित
करता है, मसलन, रंग, आकृति, एक घटना की दूसरे पर कारणात्मक निर्भरता (
causal dependence ), आदि। परंतु अलग-अलग लेने पर ये अनुगुण या संयोजन
अधिकतम पूर्णता तथा सटीकता ( exactness ) से परावर्तित होते हैं। असीमित
संयोजनों तथा अनुगुणों वाली यथार्थ भौतिक वस्तुओं को अधिक गहराई से जानने
के लिए, यानी उन्हें अपनी चेतना में परावर्तित करने के लिए हमें पृथक-पृथक
अपकर्षणों को एकजुट ( unite ) करना होता है और उन्हें एक ख़ास ढंग से एक
नयी, मूर्त ( concrete )
संकल्पना में संयुक्त करना होता है, जो अपने काल तथा युग ( age ) के लिए
एक मूर्त वस्तु के बारे में पूर्णतम ज्ञान प्रदान करती है। फलतः मूर्त संकल्पना, विविध अपकर्षणों का एक प्रकार का योग ( sum ) या समग्रता ( aggregate ) होती है, जो एक वस्तु के कुछ अनुगुणों, पहलुओं और संबंधों को परावर्तित करती है।
बाह्य जगत को परावर्तित करनेवाले हमारे ज्ञान के विकास के साथ, संकल्पनाएं अधिकाधिक मूर्त बनती जाती है। मसलन, प्राचीन खगोलविद्या ( astronomy ) के जमाने में चंद्रमा की संकल्पना बहुत अपकर्षित/अमूर्त थी। उसमें कई लक्षण शामिल थे : चंद्रमा पृथ्वी के गिर्द घूमता है, उसकी चकत्ती हथेली से कुछ ही बड़ी है, वह रात को चमकता है। १९वीं सदी में खगोलविद्या के विकास की तथा दूरबीनों के अविष्कार की बदौलत चंद्रमा की सतह पर विद्यमान गड्ढ़ों तथा पर्वतों की जानकारी हो चुकी थी, उसके वास्तविक आकार की गणना कर ली गयी थी तथा पृथ्वी से उसकी दूरी का पता लगा लिया गया था और ज्वार-भाटों पर उसके प्रभाव, आदि का स्पष्टीकरण दिया जा चुका है। हमारे अपने युग में स्वचालित चंद्र-गाड़ियों तथा मनुष्य के चंद्रतल पर उतरने के बाद चंद्र मिट्टी के, उसकी रासायनिक बनावट तथा कई अन्य विशेषताओं के बारे में हमारी जानकारी में बहुत वृद्धि हो गयी। संकल्पना ‘चंद्रमा’ १००-१५० वर्ष पहले, बल्कि ५० ही वर्ष पहले कि संकल्पना से अधिक समृद्ध, अंतर्वस्तु ( content ) से परिपूर्ण तथा अधिक मूर्त हो गयी। विज्ञान के विकास के साथ ही साथ विज्ञान की संकल्पनाओं की मूर्तता में हमेशा वृद्धि होती है।
बाह्य जगत को परावर्तित करनेवाले हमारे ज्ञान के विकास के साथ, संकल्पनाएं अधिकाधिक मूर्त बनती जाती है। मसलन, प्राचीन खगोलविद्या ( astronomy ) के जमाने में चंद्रमा की संकल्पना बहुत अपकर्षित/अमूर्त थी। उसमें कई लक्षण शामिल थे : चंद्रमा पृथ्वी के गिर्द घूमता है, उसकी चकत्ती हथेली से कुछ ही बड़ी है, वह रात को चमकता है। १९वीं सदी में खगोलविद्या के विकास की तथा दूरबीनों के अविष्कार की बदौलत चंद्रमा की सतह पर विद्यमान गड्ढ़ों तथा पर्वतों की जानकारी हो चुकी थी, उसके वास्तविक आकार की गणना कर ली गयी थी तथा पृथ्वी से उसकी दूरी का पता लगा लिया गया था और ज्वार-भाटों पर उसके प्रभाव, आदि का स्पष्टीकरण दिया जा चुका है। हमारे अपने युग में स्वचालित चंद्र-गाड़ियों तथा मनुष्य के चंद्रतल पर उतरने के बाद चंद्र मिट्टी के, उसकी रासायनिक बनावट तथा कई अन्य विशेषताओं के बारे में हमारी जानकारी में बहुत वृद्धि हो गयी। संकल्पना ‘चंद्रमा’ १००-१५० वर्ष पहले, बल्कि ५० ही वर्ष पहले कि संकल्पना से अधिक समृद्ध, अंतर्वस्तु ( content ) से परिपूर्ण तथा अधिक मूर्त हो गयी। विज्ञान के विकास के साथ ही साथ विज्ञान की संकल्पनाओं की मूर्तता में हमेशा वृद्धि होती है।
मूर्त वस्तुओं तथा मूर्त संकल्पनाओं
के बीच अंतर करना तथा उन्हें गड्डमड्ड न करना जरूरी है। मूर्त वस्तुएं,
वस्तुगत यथार्थता ( objective reality ) में चेतना ( consciousness ) के
बाहर तथा उससे स्वतंत्र रूप से विद्यमान होती हैं, किंतु मूर्त संकल्पनाएं
लोगों के संज्ञानात्मक क्रियाकलाप ( cognitive activity ) का परिणाम होती
हैं। मूर्त सकल्पनाएं, मूर्त वस्तुओं के विविध पहलुओं तथा संयोजनों को
परावर्तित करनेवाले पृथक अपकर्षणों के संगत ( consistent ), आनुक्रमिक
संपूरण ( consecutive supplementing ) तथा परिष्करण ( refining ),
विस्तारण ( extension ) और संश्लेषण ( synthesis ) के द्वारा उत्पन्न होती
हैं।
पृथक ( separate ) अपकर्षणों से मूर्त संकल्पनाओं में संक्रमण ( transition ) को अपकर्षित से मूर्त को आरोहण ( ascent ) की विधि
कहते हैं। यह आरोहण बेतरतीब नहीं, बल्कि कुछ निश्चित क़ायदों और नियमों के
अनुसार होता है। इनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह अपेक्षा है कि अलग-अलग
अपकर्षणों के ( जो अधिक पूर्ण, सटीक और अधिक मूर्त संकल्पना में शामिल है
) बीच संबंध, परावर्तित घटनाओं और प्रक्रियाओं के अनुगुणों तथा लक्षणों के
बीच वस्तुगत, वास्तविक संयोजन को परावर्तित करे। यदि मूर्त संकल्पना के
अंतर्गत, अपकर्षणों का संबंध, अध्ययनाधीन घटना या प्रक्रिया के अनुगुणों
तथा लक्ष्यों के वास्तविक संयोजन के अनुरूप होता है, तो हमें स्वयं
वस्तुगत यथार्थता के तदनुरूप ( corresponding ) अत्यंत सत्य, गहन ज्ञान की
प्राप्ति होती है।
फलतः संकल्पनाएं मनुष्य में अंतर्जात ( inborn ) या किसी ईश्वर की बनायी हुई नहीं होती हैं, जैसा कि कुछ प्रत्ययवादी
( idealistic ) दार्शनिकों का विचार था। वे इतिहास आश्रित होती हैं और
अपकर्षण के द्वारा रूप ग्रहण करती हैं। वे संवेदनों पर आधारित होती हैं और
उनकी अभिव्यक्ति का भौतिक साधन भाषा है। अपकर्षण की प्रक्रिया में
अतिकाल्पनिकता ( fantasy ) तथा रचनात्मकता ( creativity ) के भी कुछ तत्व
होते हैं। जब हम कुछ लक्षणों को अपकर्षित करते हैं और अन्य का पृथक्करण
तथा समूहन करते हैं, तो हम यथार्थता के प्रति एक निश्चित सक्रिय रवैये (
active attitude ) का प्रदर्शन करते हैं। मनुष्य जीवन, अपने उत्पादन,
दैनिक तथा सामाजिक क्रियाकलाप में उत्पन्न होनेवाली वस्तुगत जरूरतों
द्वारा प्रस्तुत लक्ष्यों व कार्यों द्वारा निर्देशित ( guided ) होता है।
इसलिए एक संकल्पना केवल वस्तुगत यथार्थता को ही परावर्तित नहीं करती, बल्कि मानवीय सक्रियता, रचनात्मक क्रियाकलाप की छाप ( traces ) से प्रभावित भी होती है।
जब
संकल्पना के निर्माण करने में समर्थ रचनात्मक क्रियाकलाप, वस्तुओं के
वस्तुगत गुणों तथा संबंधों के विरुद्ध आ टकराता है, तो अपकर्षण की
प्रक्रिया के दौरान ऐसी असत्य संकल्पनाएं बन सकती हैं, जो वस्तुगत यथार्थता को विरूपित, त्रुटिपूर्ण ढंग से परावर्तित करती हैं। ऐसी संकल्पनाओं के पैदा होने की संभावना हमेशा मौजूद रहती है और कुछ दशाओं में यह प्रत्ययवा/भाववाद ( idealism ) की ओर पहुंचा सकती हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
0 टिप्पणियां:
एक टिप्पणी भेजें
अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।