शनिवार, 12 सितंबर 2015

साम्यानुमान पद्धति

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की पद्धतियों निगमन और आगमन के एकत्व पर चर्चा की थी, इस बार हम संज्ञान की एक और पद्धति साम्यानुमान को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



साम्यानुमान पद्धति
( Analogy method )

संज्ञान में वैज्ञानिक अपाकर्षणों ( abstractions ) की भूमिका असाधारण महत्व की होती है। लेकिन संज्ञानात्मक प्रक्रिया अपाकर्षणों की विरचना ( formulation ) पर समाप्त नहीं होती, क्योंकि वे अध्ययनाधीन विषय के संपूर्ण सार ( essence ) को प्रकट नहीं कर सकते। अपाकृष्ट चिंतन ( abstract thought ) अपूर्ण, सामान्य और अद्वंद्वात्मक होता है, जबकि द्वंद्वात्मक चिंतन ( dialectical thought ) गहन रूप से वैज्ञानिक, स्पष्ट, सुसंगत, निश्चायक, यानी मूर्त ( concrete ) होता है। आगमन और निगमन के साथ ही विचार को मूर्त बनाने का एक और प्रमुख उपकरण है साम्यानुमान ( analogy )। इसका विशिष्ट लक्षण है एक विशेष ( particular ) से दूसरे विशेष की ओर विचार की गति। साम्यानुमान आगमन और निगमन के बीच एक प्रकार की मध्यवर्ती, संक्रामी ( transitional ) स्थिति में होता है।

साम्यानुमान एक प्रकार का अनुमानित ( inferred ) ज्ञान होता है, जिसमें वस्तुओं के बीच कुछ मामलों की समानताओं को अन्य मामलों मे उनकी समानता पर निष्कर्ष निकालने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसका यह मतलब है कि साम्यानुमान से पहले अध्ययनाधीन वस्तु के संबंध में प्रारंभिक संक्रियाओं ( operations ) का एक सेट पूरा हो चुकना चाहिये। ये संक्रियाएं हैं, पहली, वस्तु के अलग-अलग पक्षों, अनुगुणों, संपर्कों व संबंधों के बारे में अनुभवात्मक ज्ञान का स्वांगीकरण ( assimilation ) और उनका व्यवस्थापन; दूसरी, एक उपयुक्त तुल्यरूप ( analogue ) का ( समरूपता दर्शाने के लिए एक नमूने model का ) चुनाव, जिसके अनुगुणों का सर्वांगीण अध्ययन किया गया है तथा जिसके साथ साम्यानुमान लगाया जायेगा; और तीसरी, तुलनाधीन वस्तुओं के समान लक्षणों तथा नमूने में विद्यमान उस लक्षण के बीच आवश्यक व मौलिक संबंध का निर्धारण करना, जिसे अध्ययनाधीन वस्तु को अंतरित ( transferred ) करना है।

अनुसंधान की प्रारंभिक और सरलतम कार्य-विधि, विभिन्न वस्तुओं या घटनाओं की समान विशेषताओं को सही-सही निर्दिष्ट करना है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि पहला, जितनी अधिक समान विशेषताएं संभव हों, उन सबको निर्धारित करना और, दूसरा, इन वस्तुओं या घटनाओं की मूलभूत, अंतर्निहित विशेषताओं में समानता पर जोर देना और गौण तथा सांयोगिक विशेषताओं को पृथक करना। अध्ययनाधीन वस्तुओं, घटनाओं या प्रक्रियाओं की समानताओं तथा भेदों को जितनी ज़्यादा पूर्णता से विश्लेषित किया जाता है, साम्यानुमान के निष्कर्ष उतने ही सही, उतने ही अधिक प्रसंभाव्य ( probable ) होते हैं

अन्य अनुगुणों या पक्षों की समानताओं के आधार पर वस्तुओं या घटनाओं के कुछ अनुगुणों या पक्षों की समानता पर निकाला गया कोई भी निष्कर्ष हमेशा प्रसंभाव्य होता है। साम्यानुमान से निकाले गये निष्कर्षों की प्रसंभाव्यता को बढ़ाने की एक अत्यंत महत्वपूर्ण शर्त यह है कि समानुरूप वस्तुओं या घटनाओं का व्यापक, सर्वांगीण और गहन अध्ययन किया जाये। अध्ययनाधीन वस्तुओं का हमारा ज्ञान जितना पूर्णतर होगा, उनकी संख्या का महत्व उतना ही कम होगा। जहां वस्तुओं का अच्छा अन्वेषण न हुआ हो, उनका सार प्रकाश में न लाया गया हो और उनके भेदों को ध्यान में न रखा गया हो, वहां साम्यानुमान से निकाले गये निष्कर्षों की अच्छी प्रसंभाव्यता का कोई आधार नहीं होता।

साथ ही, यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि तुलनाधीन वस्तुएं पूर्णतः समान नहीं भी हो सकती हैं। साम्यानुमान निश्चित विशेषताओं के अनुसार केवल कुछ ही मामलों में उनकी अनुरूपता ( correspondence ) को प्रमाणित करता है। प्रत्येक तुलना अपूर्ण होती है, प्रत्येक तुलना में तुलनाधीन वस्तुओं या धारणाओं के एक या कुछ पक्षों के संदर्भ में समरूपता दिखलायी जाती है, जबकि अन्य पक्षों को अस्थायी रूप से तथा शर्त के साथ अपाकर्षित ( abstracted ) किया जाता है। चूंकि साम्यानुमान के निष्कर्ष केवल प्रसंभाव्य होते है, इसलिए यह तार्किक प्रमाण के औज़ार का काम नहीं कर सकता है। पर इसके बावजूद यह संज्ञान की एक सबसे अधिक प्रयुक्त पद्धति है।

साम्यानुमान को लागू करने के नियमों की तथा उसका कुशलता से इस्तेमाल करने की जानकारी व्यावहारिक काम में बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। समानुरूपी प्रक्रियाओं, घटनाओं तथा जीवन की स्थितियों के विश्लेषण से विभिन्न समस्याओं के लिए इष्टतम ( optimal ) समाधान खोजना और यह फ़ैसला करना संभव हो जाता है कि ठोस स्थितियों में कैसा व्यवहार किया जाये। मिलते-जुलते संसूचकों ( indicators ) के एक सेट के आधार पर एक प्रक्रिया या घटना के विकास की दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है और उसके अवांछित परिणामों से बचने तथा उसके सकारात्मक तत्वों को सुदृढ़ बनाने के लिए, उस पर प्रभाव डालने के तरीक़े व साधनों का निर्धारण किया जा सकता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

0 टिप्पणियां:

एक टिप्पणी भेजें

अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।

Related Posts with Thumbnails