शनिवार, 26 सितंबर 2015

संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियां

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की विश्लेषण और संश्लेषण की पद्धतियों पर चर्चा की थी, इस बार हम संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियों को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियां
( Logical and Historical methods of cognition )

प्रकृति तथा समाज में कोई प्रणाली कितनी ही जटिल क्यों न हो, उसे दो दृष्टिकोणों से जांचा जा सकता है। पहले उपागम ( approach ) में ज्ञान को प्रदत्त व निरूपित तथा कुछ हद तक पूर्ण माना जाता है। दूसरे में वस्तु के विकास तथा रचना की प्रक्रिया के अध्ययन पर जोर दिया जाता है। पहले उपागम से अध्ययनाधीन वस्तु की कार्यात्मकता ( functioning ) या जीवन क्रिया के नियमों को प्रकाश में लाना संभव हो जाता है, दूसरे में उसके विकास, रचना, उत्पत्ति और परिवर्तन के वस्तुगत ( objective ) नियमों को खोजा तथा उनका अध्ययन किया जाता है।

पहले उपागम में हम संज्ञान की जिस विधि का उपयोग करते हैं, वह तार्किक विधि ( logical method ) कहलाती है। इसमें बुनियादी, सबसे महत्वपूर्ण सारभूत विशेषताओं, अनुगुणों और लक्षणों को प्रकाश में लाया जाता है और इन अनुगुणों व विशेषताओं को परावर्तित करनेवाली आरंभिक संकल्पनाओं ( concepts ) से उन अधिक जटिल मूर्त संकल्पनाओं में निरंतर संक्रमण किया जाता है, जो हमें अध्ययनाधीन घटनाओं तथा प्रक्रियाओं के बारे में अधिक पूर्ण व सर्वांगीण ज्ञान प्रदान करती हैं। इस विधि के उपयोग से एक वस्तु के संज्ञान की प्रक्रिया में, उसकी सारभूत विशेषताओं के साथ यथातथ्य जानने में मदद मिलती है।

दूसरे उपागम में हम ऐतिहासिक विकास की वास्तविक प्रक्रिया को क़दम-ब-क़दम पुनःप्रस्तुत करते हैं जो हमेशा सहज व सीधी प्रक्रिया नहीं होती है। संज्ञान की ऐतिहासिक विधि ( historical method ) में अध्ययनाधीन प्रक्रियाओं या घटनाओं की रचना, विकास तथा उनके रूपायित ( shaping ) होने की, सारी अवस्थाओं की अनुक्रमिक, सतत जांच तथा वर्णन किया जाता है। इसमें विकास की जटिल वास्तविक प्रक्रिया के सारे सर्पिलों ( spiral ) का, उसके सभी टेढ़े-मेढ़े रास्तों व पश्चगमनों ( retreats ) सहित, अध्ययन किया जाता है। इसलिए ऐतिहासिक विधि बहुत श्रम-साध्य होती है और भारी शक्ति तथा समय की मांग करती है। साथ ही यह उन कई प्रश्नों का उत्तर देने में मदद देती है, जिनका सर्वांगीण उत्तर तार्किक विधि से नहीं मिल सकता है। इन प्रश्नों में अध्ययनाधीन वस्तुओं ( विषयों ) के क्रम तथा ऐतिहासिक विकास की दिशा से संबंधित प्रश्न भी शामिल हैं। अतः तार्किक व ऐतिहासिक विधियां एक दूसरे का विरोध नहीं करतीं, बल्कि एक दूसरे की संपूरक ( supplement ) हैं।

मिसाल के लिए, जब एक डॉक्टर रोगलक्षणों का अध्ययन करता है, तो वह सबसे महत्वपूर्ण चिह्नों को पृथक कर लेता है : तापमान में परिवर्तन, रुधिर की अवस्था में परिवर्तन, कुछ सूक्ष्म जीवाणुओं की उपस्थिति, अलग-अलग अंगों में परिवर्तन। अंत में वह प्राप्त तथ्यों को तार्किक ढंग से जोड़ते तथा मिलाते हुए एक निदान ( diagnosis ) पर पहुंचता है, यानी वह रोगी के स्वास्थ्य तथा बीमारी की स्थिति के बारे में नितांत ठोस ज्ञान प्राप्त करता है। किंतु कारगर उपचार ( effective treatment ) के लिए यह निदान काफ़ी नहीं होता।  डॉक्टर को बीमारी के इतिहास, लक्षणों के प्रकट होने के क्रम, बीमारी के अलग-अलग प्रकटीकरणों के विकास, अंगों की विविध विशेषताओं में परिवर्तनों और रोगी की अनुभूतियों, आदि के बारे में भी जानना होता है। इस ऐतिहासिक सूचना से अपने पूर्व अर्जित ज्ञान को संपूरित करके ही डॉक्टर अंततःअपने निदान को अधिक सटीक बनाता है और रोग के कारगर इलाज के लिए हिदायतें देता है। इससे भी अधिक, स्वयं रोग का उपचार यह मांग करता है कि उसके विकास, गतिकी तथा परिवर्तनों में सुधार प्रक्रिया की लगाता जांच करते रही जाये।

संज्ञान की तार्किक और ऐतिहासिक विधियां विभिन्न सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में भी एक दूसरे को द्वंद्वात्मक ( dialectical ) ढंग से संपूरित करती हैं। उदाहरण के लिए, जब हम किसी देश की समसामयिक अर्थव्यवस्था का अध्ययन करते हैं, तो हमें सबसे पहले उसकी संरचना को उद्घाटित करने, उसके मुख्य उत्पादन संबंधों का विश्लेषण करने, अर्थव्यवस्था के मुख्य घटकों ( उद्योग, कृषि, व्यापार, सेवाक्षेत्र, वित्त, कर प्रणाली, अदि ) की जांच करने का प्रयत्न करते हैं ; अर्थव्यवस्था के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों तथा तकनीकों की छानबीन करते हैं। यह अनुसंधान तार्किक उपागम के संदर्भ में किया जाता है, जिससे आर्थिक प्रणाली के प्रमुख केंद्रों और उनके संपर्कों, अंतर्क्रिया, पारस्परिक प्रभाव, आदि को विभेदित करना संभव हो जाता है।

किसी प्रदत्त देश में अमुक-अमुक स्थिति कैसे बनी, उसके विकास की प्रवृत्तियां और परिप्रेक्ष्य क्या है, कुछ सूचकांकों में अन्य देशों से क्यों भिन्न है - इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए ऐतिहासिक उपागम को अपनाना और अर्थव्यवस्था के सारे घटकों को उनके उत्थान ( rise ), स्थापना ( establishment ), निकट तथा दूर भविष्य में उनके अलग-अलग तत्वों के दुर्बलीकरण या दृढ़ीकरण की सविस्तार जांच करना आवश्यक है।

तार्किक और ऐतिहासिक विधियां घनिष्ठता से संयोजित तथा एक दूसरे की संपूरक हैं। किसी एक आर्थिक प्रणाली के मुख्य घटकों तथा संयोजनों को अलग छांटकर तार्किक विधि यह दर्शाती है कि इस प्रणाली के ठीक किस क्रियातंत्र का विश्लेषण किया जाये, आज की आर्थिक स्थिति को समझने के लिए ऐतिहासिक अनुसंधान के लिए कौन से क्रियातंत्र सबसे महत्वपूर्ण है। परंतु ऐतिहासिक विधि इस आर्थिक प्रणाली के उत्थान के क्रम तथा कार्य-कारण संबंधों और पूर्ववर्ती अवस्थाओं से मौजूदा अवस्था में उसके संक्रमण ( transition ) की जांच करके हमें तार्किक विश्लेषण द्वारा उद्घाटित नियमितता को अधिक अच्छी तरह से समझने और इस आर्थिक स्थिति के विशिष्ट लक्षणों तथा विशेषताओं का स्पष्टीकरण देने में मदद करती है।

इस तरह, तार्किक और ऐतिहासिक विधियों के बीच एक गहन आंतरिक संपर्क होता है। तार्किक विधि उन महत्वपूर्ण घटकों को सामने लाती है, जो ऐतिहासिक अध्ययन के विषय हैं और ऐतिहासिक विधि, तार्किक विधि के परिणामों को ठोस, परिष्कृत बनाने तथा संपूरित करने में मदद देती हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

1 टिप्पणियां:

Unknown ने कहा…

अद्भुत....
'जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है'

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