शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

प्रकृति और समाज - १

हे मानवश्रेष्ठों,

दर्शन पर यहां प्रस्तुत की गई अभी तक की सामग्री में हम भूतद्रव्य और चेतना के संबंधों पर विस्तार से चर्चा कर चुके हैं और द्वंद्ववाद पर भी। अब हम समाज और प्रकृति के बीच की अंतर्क्रिया, संबंधों को समझने की कोशिश करेंगे। इसी हेतु यहां पर प्रकृति और समाज पर एक छोटी श्रृंखला की शुरुआत की जा रही है।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्रकृति और समाज - १
( nature and society - 1 )

इस चर्चा के संदर्भ में प्रश्न यह उठता है कि प्रकृति और समाज के अंतर्संबंध पर बहस का दर्शन से क्या रिश्ता है। मामले के सार को समझने के लिए हमें सबसे पहले प्रकृति की परिभाषा करनी चाहिए और यह जानना चाहिए कि इस संकल्पना ( concept ) को उपयोग में लाते समय हमारा दृष्टिकोण और अभिप्राय क्या होता है।

प्रकृति संपूर्ण ब्रह्मांड नहीं है और हमें ज्ञात सारा विश्व नहीं, बल्कि उसका वह भाग है, जिसका मनुष्य से सामना पड़ता है और वह एक या अन्य ढंग से उसके साथ प्रतिक्रिया करता है और जो कमोबेश स्पष्ट ढंग से समाज के विकास पर प्रभाव डालता है। बेशक, प्रकृति की व्याख्या इससे ज़्यादा विस्तृत रूप में की जा सकती है, लेकिन तब शुरुआत में उठाया गया हमारा प्रश्न अपनी स्पष्टता गंवा देता है। इसलिए प्रकृति से हमारा तात्पर्य मुख्यतः उस हर वस्तु से होगा, जो पृथ्वी की सतह पर अस्तित्वमान है, उसके आभ्यंतर ( interior ) में और पृथ्वी के इर्दगिर्द अंतरिक्ष ( अंतरिक्ष के उस भाग सहित, जिसके साथ मनुष्य अंतर्क्रिया करने लगा है तथा जिसमें वह विज्ञान व इंजीनियरी की उपलब्धियों की बदौलत अधिकाधिक प्रविष्ट होने लगा है ) में होती है। इस अर्थ में मानव समाज स्वयं प्रकृति के विकास का एक उत्पाद है।

परंतु प्रकृति और समाज के बीच एक बुनियादी, गुणात्मक ( qualitative ) अंतर है। यह अंतर इसमें निहित है कि प्रकृति अपने ही वस्तुगत नियमों ( objective laws ) से, जो व्यष्टिक ( individual ) और सामाजिक चेतना से परे स्वतंत्र रूप से संक्रिया करते हैं, विकसित होती तथा कार्य करती है। परंतु समाज के क्रियाकलाप के नियम वस्तुगत होने के बावजूद तर्कबुद्धिसंपन्न मनुष्य की चेतना तथा क्रियाकलाप से जुड़े होते हैं। यह अंतर हमें प्रकृति और समाज के अंतर्संबंध के सवाल के दार्शनिक महत्व को समझने में मदद देता है।

मनुष्य अपने क्रियाकलाप में प्रकृति को आधार बनाता है, प्रकृति में रहता है, उसके प्रभावों का पात्र होता है और उससे प्राप्त हुई संपदा, साधनों तथा जीवन की दशाओं का उपयोग करता है। साथ ही अपने लक्ष्यों का अनुसरण करते हुए लोग ऐसी नयी चीज़ों व औज़ारों, संरचनाओं तथा परिस्थितियों का निर्माण करते हैं, जो प्रकृति में मनुष्य के बिना अस्तित्वमान नहीं होती और मनुष्य के उद्‍भव से पहले अस्तित्वमान नहीं हो सकती थीं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

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