हे मानवश्रेष्ठों,
ऐतिहासिक भौतिकवाद का बुनियादी उसूल
(the basic principle of historical materialism )
प्रवर्ग ( category ) ‘सामाजिक अस्तित्व’ ( social being ), सामान्य दार्शनिक प्रवर्ग ‘भूतद्रव्य’ ( matter ) को सामाजिक घटनाओं तक विस्तार देने का परिणाम है, ठीक उसी तरह जैसे कि ‘सामाजिक चेतना’ ( social consciousness ), अधिक सामान्य दार्शनिक प्रवर्ग ‘चेतना’ ( consciousness ) का सामाजिक घटनाओं तक विस्तार देने का परिणाम है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, दर्शन के बुनियादी सवाल का उत्तर देते हुए आधुनिक
विज्ञान के साथ पूर्ण मेल सहित इस बात की पुष्टि करता है कि भूतद्रव्य
प्राथमिक तथा चेतना द्वितीयक है। इसका तात्पर्य, सबसे पहले और सर्वोपरि,
यह है कि क्रमविकास में भूतद्रव्य चेतना से पहले विद्यमान था और उससे
स्वतंत्र रूप में अस्तित्वमान हो सकता है। इसके विपरीत चेतना भूतद्रव्य से
स्वतंत्र रूप में अस्तित्वमान नहीं रह सकती है।
परंतु यह सोचना
भ्रामक होगा कि सामाजिक अस्तित्व, सामाजिक चेतना से पहले तथा उससे
स्वतंत्र रूप में विद्यमान हो सकता है। हालांकि जो सामाजिक संबंध तथा
भौतिक घटनाएं, सामाजिक अस्तित्व का अंग हैं, उनका स्वतंत्र और वस्तुगत
अस्तित्व है, उनकी रचना लोगों के द्वारा उनके सोद्देश्य क्रियाकलाप के,
यानी चिंतनशील अस्तित्वों के क्रियाकलाप के दौरान होती है। ऐसे मानव समाज
की कल्पना करना असंभव है, जिसमें सामाजिक अस्तित्व तो रूप ग्रहण कर चुका
हो किंतु सामाजिक चेतना लापता हो। ऐसे समाज का क़तई अस्तित्व नहीं हो सकता
है। इस हालत में सामाजिक जीवन तक विस्तारित दर्शन के बुनियादी सवाल का
भौतिकवादी उत्तर कैसा है?
हम देख चुके हैं कि जिस प्रकार समाज का
आर्थिक आधार, समाज की राजनीतिक और क़ानूनी अधिरचना ( superstructure ) का
आधार है, उसी प्रकार भौतिक संपदा की उत्पादन पद्धति, आत्मिक क्रियाकलाप
सहित सारे मानवीय क्रियाकलाप का आधार है। क्रियाकलाप के अन्य सारे रूप तथा
सारी पद्धतियां जिस उत्पादन पद्धति पर आश्रित होती हैं, वह, अंततः, समाज
के जीवन में गहनतम परिवर्तनों का और एक सामाजिक प्रणाली से दूसरे में
संक्रमण ( transition ) का कारण है और इस अर्थ में ठीक उसी तरह निर्णायक
भूमिका अदा करती है, जिस तरह से आधार में परिवर्तन अधिरचना के परिवर्तनों
को नियंत्रित करते हैं, क्योंकि आधार इस तथ्य के बावजूद उनका पहला कारण
होता है कि अधिरचना स्वयं आधार पर सक्रिय प्रभाव डाल सकती है। आधार की
निर्णायक भूमिका इसी में व्यक्त होती है।
अब इस बात को आसानी से
समझा जा सकता है कि दर्शन के बुनियादी सवाल को सामाजिक जीवन पर किस तरह से
लागू किया जा सकता है और इसका भौतिकवादी उत्तर कैसे दिया जा सकता है। समाज
के संबंध में इस प्रश्न का रूप ऐसा होगा : निर्धारक ( determinant ) कौन है - सामाजिक अस्तित्व या सामाजिक चेतना ? इसके उत्तर में ऐतिहासिक भौतिकवाद, ऐतिहासिक प्रत्ययवाद/भाववाद ( idealism ) के विपरीत, इस बात की पुष्टि करता है कि लोगों के अस्तित्व को उनकी चेतना निर्धारित नहीं करती किंतु, इसके विपरीत, उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है।
यह प्रस्थापना ( preposition ) मनुष्यजाति के संपूर्ण ऐतिहासिक अनुभव का
वैज्ञानिक सामान्यीकरण ( scientific generalisation ) है और साथ ही समाज
के विकास तथा उसकी कार्यात्मकता ( functioning ) का बुनियादी नियम है।
सामाजिक अस्तित्व इस अर्थ में भौतिक तथा प्राथमिक है कि केवल वही ऐसा है,
जो सामाजिक चेतना की अंतर्वस्तु ( content ) और रूप ( form ) को और यहां
तक कि सामाजिक अस्तित्व पर उसके प्रतिपुष्टिकारी ( feedback ) प्रभाव का
भी निर्धारण करता है। यही कारण है कि सामाजिक चेतना के संबंध में सामाजिक
अस्तित्व की निर्धारक भूमिका से संबंधित यह प्रस्थापना ऐतिहासिक भौतिकवाद
का एक बुनियादी उसूल है।
इस उसूल ( principle ) से कई नतीजे निकलते हैं : (१) सामाजिक अस्तित्व, सामाजिक चेतना से बाहर वस्तुगत रूप से अस्तित्वमान होता है ; (२) सामाजिक चेतना, सामाजिक अस्तित्व को परावर्तित ( reflect ) करती है ; (३) प्राथमिक तथा भौतिक होने की वजह से सामाजिक अस्तित्व, सामाजिक चेतना की अंतर्वस्तु तथा रूप, दोनों का नियमन करता है ; (४) सामाजिक चेतना में होनेवाले सारे परिवर्तन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षतः सामाजिक अस्तित्व में परिवर्तन के कारण होते हैं ; (५) सामाजिक चेतना, सामाजिक अस्तित्व के परिवर्तन तथा विकास पर सक्रिय प्रभाव
डाल सकती है, किंतु अंततः यह प्रभाव स्वयं सामाजिक अस्तित्व के विकास तथा
कार्यात्मकता के वस्तुगत नियमों से निर्धारित होता है ; (६) सामाजिक विकास
के सारे नियम ऐतिहासिक भौतिकवाद के बुनियादी उसूल पर आधारित हैं और उनका
वैज्ञानिक स्पष्टीकरण इसी से मिलता है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद का बुनियादी उसूल इस प्रस्थापना की सटीकता पर बल देता है तथा उसे अभिपुष्ट करता है कि समाज का विकास एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया है। यह दृष्टिकोण सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं ( formations ) के सिद्धांत में अत्यंत पूर्णता से मूर्त होता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम
1 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी जानकारी
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