रविवार, 11 फ़रवरी 2018

दास-स्वामी विरचना

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां सामाजिक-आर्थिक विरचनाओं के सिद्धांत के अंतर्गत आदिम-सामुदायिक विरचना पर चर्चा की थी, इस बार हम दास-स्वामी विरचना को समझने की कोशिश करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



दास-स्वामी विरचना
(The Slave-Owning Formation)

जिस पहली सामाजिक-आर्थिक विरचना (socio-economic formation) में निजी संपत्ति (private property) के संबंध प्रभावी थे वह दासों पर स्वामित्व वाली विरचना थी। ऐसी सबसे पुरातन विरचनाएं ईसापूर्व तीसरी से दूसरी सहस्त्राब्दियों में प्राचीन मिस्र, मेसोपोटामिया, भारत तथा चीन में और ईसापूर्व दूसरी सहस्त्राब्दी के अंत में यूनान में और पहली सहस्त्राब्दी में प्राचीन रोम में विकसित हुई। दासों के स्रोत थे युद्ध और ऋण। जहां आदिम समाज में युद्ध बंदियों को या तो क़बीले का सदस्य बना लिया जाता या क़त्ल कर दिया जाता, अथवा उनके लिए फिरौती मांगी जाती, वहीं दासों पर स्वामित्व वाले समाज में उन्हें दास बनाना लाभप्रद हो गया, क्योंकि उत्पादकता के उस स्तर पर दासों का श्रम, श्रम के बेशी उत्पादों (surplus products) की रचना के काम में लाया जा सकता था।

दासों पर स्वामित्व वाली उत्पादन पद्धति (mode of production) के उद्‍भव से समाज दो सर्वथा अनमेल वर्गों (classes) - दास तथा उनके स्वामी - में बंट गया। अपनी बारी में उनके बीच संघर्ष के फलस्वरूप एक विशेष सामाजिक संस्थान (social institution), दासों के स्वामियों के राज्य ( दास-प्रथागत राज्य ) की स्थापना हुई। यह राज्य दासों के प्रभुताशाली (dominant) स्वामियों के वर्ग की आर्थिक व राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने के लिए शोषितों (exploited), सर्वोपरि दासों के राजनीतिक दमन (oppression) का एक अस्त्र था

दास-स्वामी प्रथा की प्रारंभिक अवस्थाओं में ही इस विरचना के सामान्य लक्षण, ठोस ऐतिहासिक दशाओं के अनुरूप, विशिष्ट रूप प्रदर्शित करने लगे थे। मिस्र, बेबीलोन, असीरिया व अन्य राज्यों में, जहां कॄषि के लिए आवश्यक विशाल सिंचाई तथा निकास नहरों का निर्माण किया गया था, दासों पर राजकीय स्वामित्व का बोलबाला था। प्राचीन पूर्व के देशों मे निर्मित सामाजिक-आर्थिक प्रणाली को मार्क्स ने ‘उत्पादन की एशियाई पद्धति’ कहा था। 

इसका सबसे विशिष्ट लक्षण था एक ही तरह के उत्पादन संबंधों तथा रख-रखाव के पुनरुत्पादन की क्षमता, जिसमें उत्पादक शक्तियों (productive forces) का नीचा स्तर लगभग अपरिवर्तित रहता था। एक तरफ़, उससे समाज का निश्चित स्थायित्व (certain stability) तथा अपरिवर्तनीयता (immutability) सुरक्षित रहती थी, जो बाहरी शक्तियों के आक्रमण से ही ध्वस्त हो सकती थीं। दूसरी तरफ़, उत्पादन की एशियाई पद्धति संपूर्ण सामाजिक-आर्थिक प्रणाली के गतिरोध (stagnation) को बढ़ावा देती थी, जो व्यक्ति की पहलक़दमी (initiative) तथा आत्मिक व सामाजिक स्वतंत्रता की उसकी आवश्यकता को घटाकर न्यूनतम बनाते हुए, निराशावादी विश्वदृष्टिकोण (pessimistic world outlook) तथा पलायनवाद (escapism) को सुदृढ़ बनाते और वस्तुगत सामाजिक अन्याय (objective social injustice)  की दुनिया से भागकर आंतरिक अनुभवों तथा आत्मगत स्वसुधार (subjective self-improvement) एवं धार्मिक मनन-चिंतन और सन्यास-वैराग्य (asceticism) की दुनिया में जाने के प्रयत्नों को बढ़ावा देते हुए समाज के संपूर्ण आत्मिक जीवन पर भी प्रभाव डालती थी। 

गतिरुद्ध एशियाई उत्पादन पद्धति, दास-स्वामी विरचना के बाद भी जीवित रही और एशिया के बहुत-से देशों में संपूर्ण मध्ययुग में भी जारी रही, जिसके फलस्वरूप उच्च कोटि की आत्मिक संस्कृति की रचना करने वाले ये देश आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में यूरोप और उत्तरी अमरीका के अधिक गतिशील देशों की तुलना में पिछड़ गये। पूरब के निरंकुश राजा, संपूर्ण प्रभुत्वशाली वर्ग के हितों की अकेले रक्षा करते थे। साथ ही पारिवारिक, पितृसत्तात्मक (patriarchal) दासता का अस्तित्व भी था। इसके विपरीत प्राचीन यूनान तथा रोम में दासों पर व्यक्तिगत स्वामित्व की प्रमुखता थी। दासों से कार्यशालाओं (ergasteria), पत्थर की खदानों, खानों, सड़कें बनाने तथा निर्माण के कार्यों, आदि में काम लिया जाता था। यूनान में तथा रोम में कुछ अवस्थाओं में लोकतांत्रिक दास-प्रथात्मक गणतंत्रों (slave republic) का प्रसार हुआ। किंतु उनमें लोकतंत्र (democracy) तथा राजनीतिक समानता (political equality) दासों के लिए नहीं, केवल स्वतंत्र नागरिकों के लिए थी।

एशियाई और यूरोपी राज्यों के बीच कुछ अंतरों के बावजूद दास-स्वामी विरचना के सामान्य लक्षण (general features) प्राचीन जगत के सारे राज्यों के लिए एक-से थे।

दासों की मेहनत ने दासों के स्वामियों को भारी दैनिक उत्पादक श्रम से मुक्त कर दिया। इसने शासकीय प्रभावी वर्ग के सदस्यों को कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान, आदि के विकास की तरफ़ काफ़ी ध्यान देने में समर्थ बना दिया। प्रभावी वैचारिकी (dominant ideology) दासत्व को उचित ठहराती थी। अरस्तू ने कहा था कि दास, बोलनेवाले उपकरण मात्र हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक सत्व (social being), युग की चेतना (consciousness of epoch) को कैसे निर्धारित (determine) करता है।

दास-प्रथागत समाज में बौद्धिक क्रियाकलाप और शासन, शासक वर्ग (ruling class) का विशेषाधिकार था और दैहिक श्रम, दासों और निर्धनों की नियति थी। इसलिए दैहिक श्रम (physical labour) से नफ़रत की जाती थी ; केवल बौद्धिक, मानसिक क्रियाकलाप ही स्वतंत्र व्यक्ति के योग्य माने जाते थे। इस तरह दैहिक श्रम के प्रति घृणा, शोषक व शोषितों में समाज के ऐतिहासिक विभाजन का परिणाम थी।

दास और समाज के निर्धनतम संस्तर अपने उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ अक्सर विद्रोह कर देते थे। उन विद्रोहों का क्रूरतापूर्वक दमन कर दिया जाता था। कुछ दुर्लभ मामलों में दास वर्ग विजयी हो जाता था, तो भी उसका मतलब दासता का ख़ात्मा नहीं था। विजेता स्वयं प्रभु बन जाते और विरोधियों को दस बना लेते थे। उस काल में विद्यमान उत्पादक शक्तियों के विकास तथा स्वभाव के स्तर पर इसके सिवा कोई और संभावना थी ही नहीं।

उत्पादन के साधनों (means of production) के अत्यंत मंद सुधार के दौरान एक नये, सामंती (feudal) सामाजिक-आर्थिक विरचना की उत्पत्ति के लिए वस्तुगत अवस्थाओं का निर्माण भी धीरे-धीरे ही हुआ।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

1 टिप्पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, भूखा बुद्धिजीवी और बेइमान नेता “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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