हे मानवश्रेष्ठों,
सामाजिक मानसिकता और दैनंदिन चेतना
(social psychology and everyday consciousness)
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत सामाजिक चेतना की प्रणाली में वैचारिकी पर चर्चा की थी, इस बार हम सामाजिक मानसिकता और दैनंदिन चेतना को समझने की कोशिश करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
सामाजिक मानसिकता और दैनंदिन चेतना
(social psychology and everyday consciousness)
वैचारिकी (ideology) का विकास समाज के सारे
सदस्यों द्वारा नहीं, बल्कि लोगों के, विचारकों के एक समूह के द्वारा होता
है, जो एक विशेष वर्ग (class) का ‘हितसाधन’ करते हैं। किंतु ये विचारक अपनी कच्ची
सामग्री कहां से खोद निकालते हैं और समाज तथा मनुष्य, आदि के बारे में
अपनी प्रारंभिक संकल्पनाएं (concepts) और धारणाएं (notions) कहां से लाते हैं ? वे अपनी सामग्री,
सामाजिक मानसिकता (social psychology) तथा दैनंदिन यानी आम चेतना (ordinary consciousness) से हासिल करते हैं। आधुनिक
समाज में विज्ञान और, सर्वोपरि, समाज को जानने से संबंधित शास्त्र,
वैचारिकी के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। इसलिए ऐतिहासिक
भौतिकवादी दर्शन के लिए विज्ञान तथा वैचारिकी का अंतर्संबंध विशेष
दिलचस्पी का विषय है।
सामाजिक मानसिकता विभिन्न सामाजिक समूहों की
जीवन क्रिया के, यानी काम, राजनीतिक संघर्ष, पारस्परिक संसर्ग, आदि के
दौरान उत्पन्न उनके अनुभवों, भावावेगों और दृष्टिकोणों की समग्रता (aggregate) है। यह
सामाजिक सत्व (social being) के स्वतःस्फूर्त परावर्तन (spontaneous reflection) का एक प्रत्यक्ष रूप है।
समाज
का प्रत्येक सदस्य, एक ही समय में कई सामाजिक समूहों का सदस्य भी होता है,
मसलन, परिवार, उत्पादन श्रम समष्टि, ट्रेड-यूनियन, पार्टी शाखा, खेल क्लब
या टीम, आदि का। सामूहिक क्रियाकलाप के सारे रूपों में लोग एक दूसरे के
साथ विभिन्न प्रकार के संबंध क़ायम करते हैं। इसके फलस्वरूप एक पेचीदा
‘समामेल’(amalgam) , सामाजिक मनोदशाओं तथा मूल्यों का एक अंतर्ग्रथन (interweaving) बन जाता है।
उनमें, कुछ फुटबाल प्रेमियों की मनोदशा की तरह सापेक्षतः अस्थायी होते हैं, और कुछ अन्य अधिक स्थायी (stable) होते हैं।
उनके अलावा, कुछ सकारात्मक
सामाजिक मनोदशाएं (moods) तथा रुख़ (attitudes) भी होते हैं। उदाहरण के लिए, क्रांतिकारी उत्साह
की मनोदशा, जैसे फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति के विजेताओं या
राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों तथा कई देशों के जनगण द्वारा चलाये जा रहे
उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष के विजयी सहभागियों के बीच पैदा होती है। ऐसे
सामाजिक रुख़, सामाजिक सत्व में परिवर्तनों को प्रत्यक्षतः परावर्तित (directly reflect) करते
हैं। सामाजिक मानसिकता एक राष्ट्र के ऐतिहासिक अतीत पर भी बहुत निर्भर
करती है। यह बात राष्ट्रीय मानसिकता में देखी जाती है, जो एक राष्ट्र या जनगण (people)
के विकास तथा निर्माण के विशिष्ट पथ का सापेक्षतः स्थायी परावर्तन है।
राष्ट्रीय मानसिकता की विशिष्टता देश विदेश की आत्मिक संस्कृति, भाषा,
ललित कलाओं (fine arts), दैनिक जीवन के संगठन, राष्ट्रीय परंपराओं, आदतों, रुचियों,
आदि में सर्वाधिक स्पष्टता से दिखायी देती है। लेकिन सामाजिक मानसिकता के
राष्ट्रीय तत्वों को अतिरंजित (exaggerate) तथा पृथक्कीकृत (isolate) नहीं किया जाना चाहिए।
जनता
का मानसिक छविचित्र (psychological portrait), उसके राष्ट्रीय चरित्र की विशेषताएं और उसका संपूर्ण
आत्मिक और बौद्धिक जीवन, अंततः, सामाजिक विकास की विशेषताओं पर, देश की
स्थिति पर तथा जनगण की जीवन क्रियाओं की स्थायी प्रवृत्तियों पर निर्भर
होता है। जब एक निश्चित राष्ट्रीय संस्कृति व मानसिकता में अंतर्निहित कुछ
निश्चित विशेषताएं विद्यमान होती हैं, तो उनका अंततः निर्धारण ऐतिहासिक
प्रक्रिया की वस्तुगत अंतर्वस्तु (objective content), समाज के जीवन की दशाओं और राष्ट्रों के
इतिहास को प्रभावित करनेवाली प्रमुख घटनाओं से होता है। इससे यह स्पष्ट
निष्कर्ष निकलता है कि सामाजिक मानसिकता की अंतर्वस्तु सामाजिक सत्व के
विकास के साथ बदलती है।
जिसे सामान्य या दैनंदिन चेतना या ‘सहज बुद्धि’ (common sense) कहते हैं, वह सामाजिक
चेतना का निम्नतम स्तर होता है। यह सामान्य जीवन में व्यक्ति के सामने
पड़नेवाली घटनाओं पर उसकी पारंगति (mastery) के दौरान बनती है। यह इन घटनाओं का
स्पष्टीकरण कभी-कभार ही देती है और कुछ निश्चित दैनिक अनुभवों के संचय तक
ही सीमित होती है। लोगों के दैनिक व्यवहार तथा संसर्ग के क़ायदे इसी
सामान्य चेतना के स्तर पर बनते हैं। किंतु यह सामाजिक घटना का गहन
वैज्ञानिक स्पष्टीकरण तथा बोध (understanding) नहीं दे सकती है। यह सापेक्षतः संरक्षी
(conservative) स्वभाव की होती है और सामाजिक चेतना की ‘उच्चतर’ अवस्थाओं की तुलना में
अधिक मंद गति से परिवर्तित होती है। यह सामान्य चेतना तथा वैचारिक स्तर पर
विकसित होने वाली सामाजिक सत्व की सैद्धांतिक समझ (theoretical comprehension) के बीच एक सबसे महत्वपूर्ण अंतर है।
ऐतिहासिक विकास के दौरान वैचारिकी तथा सामाजिक मानसिकता के विभिन्न स्तरों
और दैनंदिन चेतना के बीच एक जटिल अंतर्क्रिया (interaction) होती है। एक तरफ़ तो वैचारिकी
अपने तथ्य उनसे हासिल करती है और दूसरी तरफ़, वह सामूहिक संचार साधनों के
ज़रिये प्रचार से उन्हें प्रभावित करती है। सामाजिक मानसिकता तथा सामान्य
चेतना में परिवर्तन बहुत हद तक इस पर निर्भर है कि कौनसी वैचारिकी उन पर
प्रमुख रूप से प्रभाव डालती है। वैचारिकी और सामाजिक मानसिकता विभिन्न
रूपों में व्यक्त होते हैं और सामाजिक चेतना की विशिष्टताओं पर विचार करते
समय इस पर लगातार ध्यान रखना ज़रूरी है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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