शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

मित्रों के बीच और परस्पर समझ के रूप में संप्रेषण

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने मनोवैज्ञानिक संपर्क और अंतर्वैयक्तिक टकरावों पर चर्चा की थी, इस बार हम मित्रों के बीच और परस्पर समझ के रूप में संप्रेषण पर विचार करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



मित्रों के बीच संप्रेषण

मित्रता अंतर्वैयक्तिक संबंधों का एक विशिष्ट रूप है, जिसके लक्षण हैं स्थायी वैयक्तिक चयनात्मक संबंध ( permanent selective individual relationship ) तथा अन्योन्यक्रिया, इनमें भाग लेनेवालों के बीच परस्पर लगाव ( attachment ), संप्रेषण की प्रक्रिया से अत्यधिक संतोष और एक दूसरे से अपनी जैसी ही भावनाएं तथा पसंदें रखने की अपेक्षा। मित्रता के विकास के लिए इसके अलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक है, जो परस्पर समझ, एक दूसरे के संबंध में स्पष्टवादिता तथा खुलेपन, सक्रिय परस्पर सहायता, एक दूसरे के मामलों में दिलचस्पी, ईमानदारी तथा निःस्वार्थभाव पर जोर देते हैं। मित्रता के नियमों के गंभीर उल्लंघन से या तो संबंध ख़्त्म हो जाएंगे, या मित्रता एक सतही संबंध बनकर रह जाएगी, या फिर हो सकता है कि वह शत्रुता का रूप ले लेगी।

किशोरों के लिए मित्रता और मित्रों के बीच संप्रेषण की समस्या विशेष महत्त्व रखती है। इसकी पुष्टि शिक्षकों के असंख्य प्रेक्षणों, किशोरों की डायरियों और वे मित्रता तथा प्रेम विषयक बहसों में जो रुची लेते हैं, उससे होती है। फिर भी अक्सर उनकी मित्र की खोज का अंत प्रायः मोहभंग में होता है, क्योंकि किशोरों के संबंधों के वास्तविक स्वरूप और मित्रता के नियमों के ऊंचे मानदंडों ( criteria ) के बीच खाई है। इस खाई का पता लगने से जो निराशाएं पैदा होती हैं, वे कभी-कभी किशोरों के बीच झगड़ों का कारण बन जाती हैं।

किशोरावस्था में हर कोई मित्र की आवश्यकता अनुभव करता है। मित्रों के बीच संप्रेषण के मानकों के बारे में किशोर की कमोबेश तौर पर स्पष्ट धारणा होती है, फिर भी किशोरों की सबसे बड़ी विशेषता दो व्यक्तियों के बीच की मित्रता नहीं, जिसके लिए वे लालायित रहते हैं, बल्कि साथीपन है, जो समवयस्कों के साथ व्यापकतर संप्रेषण पर ज़ोर देता है। साथीपन के संबंधों की बदौलत किशोर संप्रेषण की ऐसी प्रक्रिया में भाग लेता है, जिसमें वह अपने महत्त्वपूर्ण गुणों तथा योग्यताओं के ज़रिए अपने व्यक्तित्व का अपने समवयस्कों में विस्तार कर सकता है। किसी से उसे पुस्तकों के बारे में चर्चा करने में आनंद आता है, किसी से टेबल-टेनिस खेलने में और किसी से भावी पेशों के बारे में बातें करने में।

इस किशोरसुलभ साथीपन को साधारण सौहार्द के संबंधों से गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि मित्रों, साथियों के बीच संप्रेषण का कर्ता अपने व्यक्तित्व के अपने लिए महत्त्वपूर्ण गुणों के ज़रिए किसी ‘साझे ध्येय’ में, समवयस्कों की सक्रियता में सहभागी बनना चाहता है,  जो उसके लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी महत्त्वपूर्ण व मूल्यवान है। किशोरों की मित्रता मित्रों के बीच संप्रेषण के विकास की एक अवस्था ही है। उसका वास्तविक महत्त्व अपने को, सामाजिक प्रौढ़ताप्राप्त वयस्कों में ही, प्रकट कर सकता है।

परस्पर समझ के रूप में संप्रेषण

संप्रेषण का अन्योन्यक्रिया और सूचना के अलावा एक प्रत्यक्षपरक पहलू भी है, जो अपने को संप्रेषण में भाग लेनेवालों के, एक दूसरे को जानने-समझने की प्रक्रिया में प्रकट करता है। संप्रेषण तभी संभव है, जब अन्योन्यक्रिया की प्रक्रिया में शामिल होनेवाला व्यक्ति, परस्पर समझ ( mutual understanding ) के स्तर को आंकने और अपने सहभागी का मूल्यांकन ( evaluation ) कर पाने की स्थिति में होसंप्रेषण में भाग लेने वाले दूसरे पक्ष के अंतर्जगत को अपनी चेतना में पुनर्सृजित ( re-creation ) करने, उसकी भावनाओं, व्यवहार के अभिप्रेरकों ( motives ) तथा महत्त्वपूर्ण चीज़ों के प्रति रवैये ( attitudes ) को समझने का प्रयत्न करते हैं।

फिर भी दूसरे व्यक्ति के अंतर्जगत को पुनर्सृजित करने का यह कार्य आसान नहीं है। मनुष्य का प्रत्यक्ष सामना दूसरे लोगों के केवल बाह्य रूप, व्यवहार और संप्रेषण के साधन के तौर पर प्रयुक्त क्रियाओं से होता है। उसे लोगों को उपलब्ध जानकारी के आधार पर समझने और उनकी योग्यताओं, विचारों, इरादों, आदि के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को जानना, समझना तथा आंकना ही संप्रेषण का प्रत्यक्षपरक पहलू है। दूसरे लोगों को जानकर व्यक्ति उनकी संयुक्त सक्रियता की संभावनाओं का अधिक सही मूल्यांकन कर पाता है। उनके संयुक्त प्रयासों की सफलता उनके अंतर्जगत की उसकी समझ के सही होने पर निर्भर रहती है।

( अगली बार हम संप्रेषण के इसी परस्पर समझ के प्रत्यक्षपरक पहलू के अंतर्गत एक दूसरे को जानने के क्रियातंत्रों पर विचार करेंगे। )




इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

4 टिप्पणियां:

श्याम जुनेजा ने कहा…

भरे बाजार में जब कोई गाहक नहीं मिलता तो हीरे को भी जिन्से रायगाँ कहना ही पड़ता है ! इस अंतर्जाल पर गिने चुने लोग ही कोई सार्थक काम कर रहे हैं उनमें से एक आप हैं ! आभार !

Arvind Mishra ने कहा…

यह समय साधना चलती रहे ,,बीच बीच में चुपके से आके पढ़ जाता हूँ .....

Dorothy ने कहा…

आपकी हर पोस्ट संग्रहणीय होती हैं. विचारोत्तेजक,सारगर्भित आलेख श्रृंखलाओं के लिए आभार.
आपको वसंत पंचमी की ढेरों शुभकामनाएं!
सादर,
डोरोथी.

Inqlabimazdoorkendra ने कहा…

आपका ब्लाग अचछा लगा,
‘खासकर चीजो को बदलने के के दौरान मनुष्य का खुद बदल जाना’

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