हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में मुख्य संवेगात्मक अवस्थाएं और उनकी विशेषताओं पर विचार किया था, इस बार हम संकीर्ण अर्थ में भावनाओं पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में मुख्य संवेगात्मक अवस्थाएं और उनकी विशेषताओं पर विचार किया था, इस बार हम संकीर्ण अर्थ में भावनाओं पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
भावनाएं और व्यक्तित्व
मनुष्य
की संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं और उसके व्यवहार और सक्रियता के संकल्पमूलक
नियमन की अनुषंगी भावनाएं व्यक्तित्व की एक सबसे सजीव अभिव्यक्ति है। उनकी उत्पत्ति संज्ञान और सक्रियता की वस्तुओं के प्रति मनुष्य के स्थायी रवैयों ( permanent or stable attitudes ) से होती है।
किसी मनुष्य का वर्णन करने का अर्थ सर्वप्रथम यह बताना है कि उसे क्या
पसंद और क्या नापसंद है, वह किससे घृणा या ईर्ष्या करता है, किस बात पर वह
गर्व या शर्म महसूस करता है, किस बात से उसे ख़ुशी मिलती है, वग़ैरह। मनुष्य
की स्थायी भावनाओं के विषय, इन भावनाओं की प्रगाढ़ता, स्वरूप तथा संवेगों,
भावों, आदि के रूप में अभिव्यक्ति की प्रायिकता ( probability ) उसके भावना-जगत और उसके व्यक्तित्व
का परिचय देते हैं। इस कारण संवेगात्मक प्रक्रियाओं का गहराई में विश्लेषण
अल्पकालिक अवस्थाओं पर नहीं, अपितु मनुष्य के व्यक्तित्व की विशेषतासूचक
स्थायी भावनाओं पर केंद्रित होना चाहिए।
संकीर्ण अर्थ में भावनाएं
( Emotions in narrow sense )
संवेगों, भावों, मनोदशाओं और खिंचावों के विपरीत, जिनका स्थिति-सापेक्ष स्वरूप ( situation-relative format ) होता है और जो किसी निश्चित क्षण या परिस्थितियों में किसी वस्तु ( अथवा व्यक्ति ) के प्रति मनुष्य के रवैये को प्रतिबिंबिंत करते हैं, अपने संकीर्ण अर्थ में भावनाएं मनुष्य की स्थिर आवश्यकताओं की वस्तु के प्रति मनुष्य के रवैये को प्रतिबिंबिंत करती हैं, यानि उसके व्यक्तित्व के रुझान ( personality trends ) को दिखाती हैं। उनकी स्थिरता को घंटों या दिनों में नहीं, अपितु महीनों और वर्षों में व्यक्त किया जाता है। भावनाएं सदा यथार्थ ( reality ) से जुड़ी होती हैं। उन्हें तथ्य, घटनाएं, लोग, परिस्थितियां जन्म देते हैं, जिनके प्रति मनुष्य स्थिर रूप से सकारात्मक अथवा नकारात्मक रवैया रखता है। स्थिर अभिप्रेरक तभी मनुष्य को सदा के लिए सक्रिय बना सकते हैं, यानि उसे अविराम सक्रियता के लिए उत्तेजित कर सकते हैं, जब वे उसकी स्थायी भावनाओं का विषय बनते हैं।
संकीर्ण अर्थ में भावनाएं
( Emotions in narrow sense )
संवेगों, भावों, मनोदशाओं और खिंचावों के विपरीत, जिनका स्थिति-सापेक्ष स्वरूप ( situation-relative format ) होता है और जो किसी निश्चित क्षण या परिस्थितियों में किसी वस्तु ( अथवा व्यक्ति ) के प्रति मनुष्य के रवैये को प्रतिबिंबिंत करते हैं, अपने संकीर्ण अर्थ में भावनाएं मनुष्य की स्थिर आवश्यकताओं की वस्तु के प्रति मनुष्य के रवैये को प्रतिबिंबिंत करती हैं, यानि उसके व्यक्तित्व के रुझान ( personality trends ) को दिखाती हैं। उनकी स्थिरता को घंटों या दिनों में नहीं, अपितु महीनों और वर्षों में व्यक्त किया जाता है। भावनाएं सदा यथार्थ ( reality ) से जुड़ी होती हैं। उन्हें तथ्य, घटनाएं, लोग, परिस्थितियां जन्म देते हैं, जिनके प्रति मनुष्य स्थिर रूप से सकारात्मक अथवा नकारात्मक रवैया रखता है। स्थिर अभिप्रेरक तभी मनुष्य को सदा के लिए सक्रिय बना सकते हैं, यानि उसे अविराम सक्रियता के लिए उत्तेजित कर सकते हैं, जब वे उसकी स्थायी भावनाओं का विषय बनते हैं।
स्वयं मनुष्य के लिए भावनाएं, उसकी आवश्यकताओं के अस्तित्व
के स्वयं उसके लिए आत्मपरक ( subjective ) रूपों के तौर पर पैदा होती हैं।
वास्तव में कोई भी प्रेक्षक ( अर्थात् जांचकर्ता मनोविज्ञानी ) मनुष्य के
कार्यों के पीछे छिपे अभिप्रेरकों ( motives ) को प्रकट कर सकता है और
कारणात्मक अरोपण की प्रणाली के ज़रिए उनकी व्याख्या कर सकता है। किंतु
स्वयं मनुष्य अपने व्यवहार तथा सक्रियता के अभिप्रेरकों को भावनाओं के रूप में अनुभव करता है।
इसका मतलब है कि अभिप्रेरक, कर्ता के सामने ऐसी भावनाओं की शक्ल में आते
हैं, जो उसे बताते हैं कि कोई वस्तु उसकी आवश्यकताओं की तुष्टि के लिए
कैसे और किस हद तक जरूरी है। मनुष्य के व्यक्तित्व के रुझान को तय
करनेवाले अभिप्रेरक जितने ही स्थिर होंगे, उसे अपनी सक्रियता या व्यवहार
में सहायक या बाधक हर चीज़ उतनी ही अपने भावजगत से संबद्ध लगेगी, और उसके
रवैये ऐसी भावनाओं का रूप लेंगे, जो उसकी आवश्यकताओं की तुष्टि की
प्रक्रिया की सफलता या विफलता की परिचायक हैं।
संवेगात्मक अनुभव के सामान्यीकरण ( generalization ) के फलस्वरूप पैदा हुई भावनाएं व्यक्ति के संवेगात्मक क्षेत्र में प्रमुख बन जाती हैं और स्थितिसापेक्ष संवेगों, मनोदशाओं तथा भावों की गतिकी ( dynamics ) तथा अंतर्वस्तु ( content ) को निर्धारित करने लगती हैं।
भावना, स्थितिसापेक्ष संवेगों की गतिकी तथा अंतर्वस्तु को निर्धारित करती हैं, इसे एक मिसाल देकर स्पष्ट करें। प्रियजन के प्रति प्रेम की भावना, अपने को स्थिति के अनुसार अलग-अलग ढंग से व्यक्त करती है : जब वही प्रिय व्यक्ति सफलता पाता है, प्रेम हर्ष का रूप लेता है, और जब नहीं पाता, तो दुख के रूप में प्रकट होता है, यदि प्रिय व्यक्ति का व्यवहार आशा के अनुरूप निकलता है, तो प्रेम उसपर गर्व का रूप लेता है और यदि आशा के प्रतिकूल पाया जाता है, तो प्रेम रोष के रूप में प्रकट होता है। भावना जितनी ही प्रबल होगी, उसपर क्षणिक संवेगों का प्रभाव उतना ही कम पड़ेगा।
मां अपनी बेटी से उसकी किसी हरकत के कारण नाराज़ हो सकती है, फिर भी कुछ समय बाद बेटी के प्रति प्रेम की भावना का पलड़ा भारी हो जाएगा, उसकी हरकत भुला दी जाएगी और उसे क्षमा कर दिया जाएगा। यह भावना का प्रबल और साथ ही दुर्बल पहलू है। भावना में स्पष्ट परिवर्तन लाने के लिए नकारात्मक संवेगों के संचय के वास्ते बहुत अधिक हरकतों की जरूरत होती है। इसके विपरीत एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति अपेक्षाकृत अनिश्चित संवेगात्मक रवैये को पूर्णतः सकारात्मक या नकारात्मक भावना में बदलने के लिए दूसरे मनुष्य द्वारा पहले मनुष्य में केवल एक प्रबल सकारात्मक या नकारात्मक संवेग जगाना ही पर्याप्त है। प्रायः किसी छात्र के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया ऐसे ही पैदा होता है और इस ख़तरे से शिक्षक को सदा सतर्क रहना चाहिए।
संवेगात्मक अनुभव के सामान्यीकरण ( generalization ) के फलस्वरूप पैदा हुई भावनाएं व्यक्ति के संवेगात्मक क्षेत्र में प्रमुख बन जाती हैं और स्थितिसापेक्ष संवेगों, मनोदशाओं तथा भावों की गतिकी ( dynamics ) तथा अंतर्वस्तु ( content ) को निर्धारित करने लगती हैं।
भावना, स्थितिसापेक्ष संवेगों की गतिकी तथा अंतर्वस्तु को निर्धारित करती हैं, इसे एक मिसाल देकर स्पष्ट करें। प्रियजन के प्रति प्रेम की भावना, अपने को स्थिति के अनुसार अलग-अलग ढंग से व्यक्त करती है : जब वही प्रिय व्यक्ति सफलता पाता है, प्रेम हर्ष का रूप लेता है, और जब नहीं पाता, तो दुख के रूप में प्रकट होता है, यदि प्रिय व्यक्ति का व्यवहार आशा के अनुरूप निकलता है, तो प्रेम उसपर गर्व का रूप लेता है और यदि आशा के प्रतिकूल पाया जाता है, तो प्रेम रोष के रूप में प्रकट होता है। भावना जितनी ही प्रबल होगी, उसपर क्षणिक संवेगों का प्रभाव उतना ही कम पड़ेगा।
मां अपनी बेटी से उसकी किसी हरकत के कारण नाराज़ हो सकती है, फिर भी कुछ समय बाद बेटी के प्रति प्रेम की भावना का पलड़ा भारी हो जाएगा, उसकी हरकत भुला दी जाएगी और उसे क्षमा कर दिया जाएगा। यह भावना का प्रबल और साथ ही दुर्बल पहलू है। भावना में स्पष्ट परिवर्तन लाने के लिए नकारात्मक संवेगों के संचय के वास्ते बहुत अधिक हरकतों की जरूरत होती है। इसके विपरीत एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति अपेक्षाकृत अनिश्चित संवेगात्मक रवैये को पूर्णतः सकारात्मक या नकारात्मक भावना में बदलने के लिए दूसरे मनुष्य द्वारा पहले मनुष्य में केवल एक प्रबल सकारात्मक या नकारात्मक संवेग जगाना ही पर्याप्त है। प्रायः किसी छात्र के प्रति पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया ऐसे ही पैदा होता है और इस ख़तरे से शिक्षक को सदा सतर्क रहना चाहिए।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
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