शनिवार, 24 सितंबर 2011

भावना के रूप में आवेश

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने व्यक्तित्व के संवेगात्मक-संकल्पनात्मक क्षेत्रों को समझने की कड़ी के रूप में संकीर्ण अर्थ में भावनाओं पर विचार किया था, इस बार हम आवेश पर चर्चा करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय  अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



आवेश
( Intense emotion )

आवेश मनुष्य की एक विशेष प्रकार की स्थायी भावनाएं हैं। लोगों का जिससे वास्ता पड़ता है या जो उनके जीवन में घटता है, उसके प्रति उनका रवैया ( attitude ) सामान्यतः एक स्थायी रूप ग्रहण कर लेता है और उनकी सक्रियता की एक स्थायी प्रेरक-शक्ति ( persuasive ) बन जाता है। यह शक्ति मनुष्य के उसकी रुचि की वस्तुओं से संबद्ध प्रत्यक्षों ( perception ), परिकल्पनों और विचारों की विशेषताओं और उसके द्वारा क्रमानुवर्ती संवेगों, भावों तथा मनोदशाओं को अनुभव करने के ढंग को निर्धारित करती है। वह कुछ क्रियाओं के लिए उत्प्रेरक और दत्त मनुष्य की गहन भावनाओं से मेल न खानेवाली क्रियाओं के लिए प्रबल अवरोधक बनती है। इस तरह भावना मनुष्य के चिंतन तथा सक्रियता से एकाकार हो जाती है। आवेश को मनुष्य के विचारों और कार्यों की दिशा का निर्धारण करने वाली स्थिर, प्रबल और सर्वतोमुखी भावना कहा जा सकता है

आवेश मनुष्य को अपने सभी विचार अपनी भावनाओं की वस्तु पर संकेंद्रित ( focus ) करने, इन भावनाओं के मूल में निहित आवश्यकताओं की पूर्ति की विस्तार से कल्पना करने और उसके मार्ग में खड़ी वास्तविक अथवा संभावित बाधाओं व कठिनाइयों के बारे में सोचने को विवश करता है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए लड़नेवाले देशभक्त के मामले में उसकी गहनतम आवश्यकताओं और स्वप्नों से जुड़ी हुई मातृभूमि से प्रेम की भावना एक ऐसी अदम्य शक्ति में परिवर्तित हो जाती है कि जो उसे विजय प्राप्ति के निमित्त जान की बाज़ी भी लगा देने को मजबूर कर देती है।

जो चीज़ें मुख्य आवेश से संबद्ध नहीं हैं, वे गौण होकर पृष्ठभूमि में चली जाती हैं, वे मनुष्य को उत्तेजित नहीं करती और कभी-कभी तो भुला ही दी जाती हैं। इसके विपरीत जो चीज़ें मनु्ष्य के आवेश से संबंध रखती हैं, वे उसकी कल्पना को आलोड़ित करती हैं, उसका ध्यान खींचती है, उसके मन पर छायी रहती है और स्मृति में अंकित हो जाती हैं। अतुष्ट आवेश सामान्यतः प्रबल संवेगों और भावावेशों ( क्रोध, क्षोभ, हताशा, नाराजगी, आदि ) को जन्म देता है।

कभी-कभी मातृभूमि-प्रेम अथवा सत्य की खोज और जनसेवा के एक साधन के नाते अविष्कारकर्म तथा विज्ञान से प्रेम जैसी उदात्त तथा उच्च भावना भी आवेश में परिणत हो सकती है। ऐसे मामलों में आवेश मनुष्य को शोधपूर्ण कार्यों के लिए उत्प्रेरित करेगा, अथक प्रयास करते रहने के लिए वर्षों तक उसका संबल बना रहेगा और वैज्ञानिक खोजों तथा सृजनात्मक उपलब्धियों के स्रोत में परिणत हो जाएगा। आवेश ऐसी नैतिकतः निंदनीय भावनाओं से भी पैदा हो सकता है, जिनकी जड़ें मनुष्य के विकास की परिस्थितियों या उसकी वैयक्तिक विशेषताओं में हैं। ऐसे आवेशों को हम निकृष्ट आवेश कहते हैं ( उदाहरणार्थ, नशे की लत ) और जो आदमी उसके वशीभूत होकर अपने को गिरने देता है, उसकी हम निंदा करते हैं।



इस बार इतना ही।

जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।

शुक्रिया।

समय

1 टिप्पणियां:

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति पर
बहुत बहुत बधाई ||

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