और तब ईश्वर का क्या हुआ?
स्टीवन वाइनबर्ग
(
1933 में पैदा हुए अमेरिका के विख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीवन वाइनबर्ग,
अपनी अकादमिक वैज्ञानिक गतिविधियों के अलावा, विज्ञान के लोकप्रिय और
तार्किक प्रवक्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। उन्होंने इसी संदर्भ में
काफ़ी ठोस लेखन कार्य किया है। कई सम्मान और पुरस्कारों के अलावा उन्हें
भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।
प्रस्तुत
आलेख में वाइनबर्ग ईश्वर और धर्म पर जारी बहसों में एक वस्तुगत वैज्ञानिक
दृष्टिकोण को बखूबी उभारते हैं, और अपनी रोचक शैली में विज्ञान के अपने
तर्कों को आगे बढ़ाते हैं। इस आलेख में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण प्रसंगों
का जिक्र करते हुए, अवैज्ञानिक तर्कों और साथ ही छद्मवैज्ञानिकता को भी
वस्तुगत रूप से परखने का कार्य किया है तथा कई चलताऊ वैज्ञानिक नज़रियों पर
भी दृष्टिपात किया है। कुलमिलाकर यह महत्त्वपूर्ण आलेख, इस बहस में
तार्किक दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों के लिए एक जरूरी दस्तावेज़ है,
जिससे गुजरना उनकी चेतना को नये आयाम प्रदान करने का स्पष्ट सामर्थ्य रखता
है। )
कुछ
वैज्ञानिक इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि कुछ मौलिक स्थिरांकों का मान
विश्व में बुद्धियुक्त जीवन की मौजूदगी के अनुकूल है। अब तक यह स्पष्ट
नहीं हो पाया है कि इस अवलोकन के पीछे कुछ ठोस आधार हैं, लेकिन अगर ऐसा हो
तो भी यह आवश्यक रूप से किसी दैवीय उद्देश्य के क्रियान्वयन की ओर इंगित
नहीं करता। बहुत सारे आधुनिक ब्रह्मांड़-विज्ञान के सिद्धांतों में प्रकृति
के ये तथाकथित स्थिरांक ( जैसे कि प्राथमिक कणों की मात्रा ) स्थान और समय
के साथ, और यहां तक कि विश्व के तरंग फलन के पद से दूसरे पद तक में बदल
जाते हैं। अगर यह सही भी है, तो जैसा कि हम देख चुके हैं, एक वैज्ञानिक
विश्व के उसी हिस्से में रहकर प्रकृति के नियमों का अध्ययन कर सकता है
जहां स्थिरांकों को बुद्धियुक्त जीवन के क्रमिक विकास के अनुकूल मान
प्राप्त होते हैं।
सादृश्य के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। मान
लीजिए कि एक ग्रह है जिसका नाम है प्राइम पृथ्वी। यह हमारी पृथ्वी से हर
तरह से अभिन्न है, सिर्फ़ इसके अलावा कि उस ग्रह के मनुष्यों ने बिना खगोल
विज्ञान को जाने भौतिकी के विज्ञान को विकसित किया है जैसे कि हमारी
पृथ्वी पर है ( उदाहरण के लिए, कोई यह कल्पना कर सकता है कि प्राइम पृथ्वी
की सतह शाश्वत रूप से बादलों से घिरी रहती है )। प्राइम पृथ्वी के छात्र
भौतिक विज्ञान की की पाठ्यपुस्तक के पीछे भौतिक स्थिरांकों की सारणी
अंकित पाएंगे। इस सारणी में प्रकाश की गति, इलेक्ट्रॉन की मात्रा, आदि-आदि
लिखी होंगी। और एक अन्य मौलिक स्थिरांक लिखा होगा जिसका मान १.९९ कैलोरी
उर्जा प्रति वर्ग सेंटीमीटर होगा जो प्राइम पृथ्वी की सतह पर किसी अनजान
बाह्य स्रोत से आने वाली उर्जा की माप होगी। पृथ्वी पर यह सूर्य-स्थिरांक
कहलाती है क्योंकि हम जानते हैं कि यह उर्जा हमें सूर्य से प्राप्त होती
है।
लेकिन प्राइम पृथ्वी पर किसी के पास यह जानने की विधि नहीं
होगी कि यह उर्जा कहां से आती है और यह स्थिरांक यही मान क्यों ग्रहण करता
है। प्राइम पृथ्वी के कुछ वैज्ञानिक इस पर जोर दे सकते हैं कि स्थिरांक का
मापा गया यह मान जीवन के प्रकट होने के लिए अत्यंत अनुकूल है। अगर प्राइम
पृथ्वी २ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर से ज़्यादा या कम उर्जा
प्राप्त करता तो समुद्रों का पानी या तो भाप या बर्फ होता और प्राइम
पृथ्वी पर द्रव जल या अन्य उपयुक्त विकल्प जिसमें जीवन विकसित हो सके, की
कमी हो जाती। भौतिक विज्ञानी इससे यह निष्कर्ष निकाल सकते थे कि १.९९
कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर का यह स्थिरांक ईश्वर द्वारा
मनुष्यों की भलाई के लिए किया गया है। प्राइम पृथ्वी के कुछ संशयवादी
भौतिक विज्ञानी यह तर्क कर सकते थे कि ऐसे स्थिरांकों की व्याख्या
अंतत्वोगत्वा भौतिकी के अंतिम नियमों से की जा सकेगी और यह एकमात्र संयोग
है कि वहां इसका मान जीवन के अनुकूल है। वास्तव में दोनों ही गलत होते।
जब
प्राइम पृथ्वी के निवासी आखिर में खगोल विज्ञान विकसित कर लेते, तब वे
जानते कि उनका ग्रह भी एक सूरज से ९.३ करोड़ मील दूर है जो प्रति मिनट ५६
लाख करोड़ कैलोरी उर्जा उत्सर्जित करता है। और वे यह भी देखते कि दूसरे
ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा निकट हैं इतने गर्म हैं कि वहां जीवन पैदा
नहीं हो सकता तथा बहुत सारे ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा दूर हैं वे इतने
ठंड़े है कि वहां जीवन की संभावना नहीं है। और इसीलिए दूसरे तारों का चक्कर
लगा रहे अनन्त ग्रहों में से एक छोटा अनुपात ही जीवन के अनुकूल है। जब वे
खगोल वोज्ञान के बारे कुछ सीखते तभी प्राइम पृथ्वी पर तर्क करने वाले
भौतिक वैज्ञानी यह जान पाते कि जिस दुनिया में वे रह रहे हैं वह लगभग २
कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर ऊर्जा प्राप्त करती है क्योंकि
कोई और तरह की दुनिया नहीं हो सकती जिसमें वे रह सकें। हम लोग विश्व के इस
हिस्से में प्राइम पृथ्वी के उन निवासियों की तरह हैं जो अब तक खगोल
विज्ञान के बारे में नहीं जान पाए हैं, लेकिन हमारी दृष्टि से दूसरे ग्रह
और सूरज नहीं बल्कि विश्व के अन्य हिस्से ओझल हैं।
हम अपने तर्क को
और आगे बढायेंगे। जैसा कि हमने पाया है कि भौतिकी के सिद्धांत जितने
ज़्यादा मौलिक होते हैं उसका ताल्लुक हमसे उतना ही कम होता है। एक उदाहरण
लें, १९२० के प्रारंभ में ऐसा सोचा जाता था कि केवल इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन
ही प्राथमिक कण हैं। उस समय यह माना जाता था कि ये ही घटक है जिससे हम और
हमारी दुनिया बनी है। जब नये कण जैसे न्यूट्रॉन की खोज हुई तो पहले यह मान
लिया गया कि वे इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन से ही बने होंगे। लेकिन आज के तत्व
बिल्कुल भिन्न हैं।
अब हम यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि
प्राथमिक कणों से हमारा क्या तात्पर्य है, पर हमने यह महत्त्वपूर्ण सीख ली
है कि सामान्य पदार्थों में इन कणों की उपस्थिति उनकी मौलिकता के बारे में
कुछ नहीं बताती। लगभग सभी कण प्रभाव क्षेत्र ( फ़िएल्द् ) जो आधुनिक कणों
और अंतर्क्रियाओं के मानक मॉडल में प्रकट होते हैं, का इतनी तेजी से ह्रास
होता है कि सामान्य पदार्थ में वे अनुपस्थित होते हैं और मानव जीवन में
कोई भूमिका अदा नहीं करते। इलेक्ट्रॉन हमारी दैनन्दिनी दुनिया का एक
आवश्यक हिस्सा हैं, जबकि म्यूऑन और रॉउन नामक कण हमारे जीवन में कोई
महत्त्व नहीं रखते, फिर भी सिद्धांतों में उनकी भूमिका के अनुसार
इलेक्ट्रॉन को म्यूऑन और रॉउन से किसी भी प्रकार से ज़्यादा मौलिक नहीं कहा
जा सकता और व्यापक रूप में कहा जाए तो किसी वस्तु का हमारे लिए महत्व और
प्रकृति के नियमों के लिए उसके महत्व के बीच सहसंबंध की खोज किसी ने कभी
नहीं की है।
वैसे, विज्ञान की खोजों से ईश्वर के बारे में जानकारी
हासिल करने की उम्मीद ज़्यादातर लोगों ने नहीं पाली होगी। जॉन पॉल्किंगहाम
ने एक ऐसे धर्म-विज्ञान के पक्ष में भावपूर्ण तर्क दिये हैं जो मानव
विवेचना की परिधि के अंदर हों, पर जिसमें विज्ञान का भी घर हो। यह धर्म
विज्ञान धार्मिक अनुभवों, जैसे रहस्य का उद्घाटन ( ज्ञान प्राप्ति ), पर
आधारित हो, ठीक उसी तरह जैसे विज्ञान प्रयोग और अवलोकन पर आधारित होता है,
उन्हें उन अनुभवों की गुणात्मकता का आत्म-परीक्षण करना होगा। लेकिन दुनिया
के धर्मों के अनुयायियों का बहुतायत ख़ुद के धार्मिक अनुभवों पर नहीं बल्कि
दूसरों के कथित अनुभवों द्वारा उद्घाटित सत्य पर निर्भर करता है। ऐसा
सोचा जा सकता है कि यह सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानियों के दूसरों के
प्रयोगों पर निर्भरता से भिन्न नहीं है। लेकिन दोनों में एक महत्वपूर्ण
अंतर है। हजारों अलग-अलग भौतिक विज्ञानियों की अंतर्दृष्टि भौतिक
वास्तविकता की एक संतोषजनक ( पर अधूरा ) समान समझ पर अभिकेन्द्रित हुई है।
इसके विपरीत, ईश्वर या अन्य चीज़ों के बारे में धार्मिक रहस्योद्घाटनों से
उपजे विवरण एकदम भिन्न दिशाओं में संकेत करते हैं। हम आज भी, हजारों
सालों के ब्रह्मवैज्ञानिक विश्लेषण के बावज़ूद, धार्मिक उद्घाटनों से मिली
शिक्षा की किसी साझा समझ के निकट भी नहीं है।
धार्मिक अनुभवों और
वैज्ञानिक प्रयोग के बीच एक और फर्क है। धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान
काफ़ी संतोषप्रद हो सकता है। इसके विपरीत, वैज्ञानिक पर्यवेक्षण से प्राप्त
विश्व-दृष्टिकोण अमूर्त और निर्वैयक्तिक होता है। विज्ञान से इतर, धार्मिक
अनुभव जीवन में एक उद्देश्य के विशाल ब्रह्मांडीय नाटक में अपनी भूमिका
निभाने के लिए सुझाव पेश कर सकते हैं। और जीवन के पश्चात एक निरन्तरता को
बनाए रखने के लिए ये हनसे वादा करते हैं इन्हीं कारणों से मुझे लगता है कि
धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान पर इच्छाजनित सोच की अमिट छाप होती है।
१९७७
की अपनी पुस्तक द फर्स्ट थ्री मिनट्स ( पहले तीन मिनट ) में मैंने एक
अविवेकपूर्ण टिप्पणी की थी कि जितना ही हम इस विश्व को समझते जाते हैं,
उतना ही यह निरर्थक लगता है। मेरा यह मतलब नहीं था कि विज्ञान हमें सिखाता
है कि यह विश्व निरर्थक है, बल्कि यह बताना था कि विश्व ख़ुद किसी लक्ष्य
की ओर इशारा नहीं करता। मैंने तत्काल यह जोड़ा था कि ऐसे रास्ते हैं जिसमें
हम अपने आप अपने जीवन के लिए एक अर्थ ढूंढ़ सकते हैं, जैसे कि विश्व को
समझने का प्रयास, लेकिन क्षति तो हो चुकी थी। उस मुहावरे ने तब से मेरा
पीछा किया है।
हाल में एलन लाइटमैन और रॉबर्ट ब्रेबर ने सत्ताइस
ब्रह्मांड़ विज्ञानियों और भौतिकी विज्ञानियों के साक्षात्कार प्रकाशित
किये हैं। इनमें से ज़्यादातर विज्ञानियों से अपने साक्षात्कार के अन्त में
पूछा गया कि वे उस वक्तव्य के बारे में क्या सोचते हैं? विभिन्न विशेषणों
के साथ, दस साक्षात्कार देने वाले मुझसे सहमत थे और तेरह असहमत। लेकिन इन
तेरह में से तीन इसलिए असहमत थे क्योंकि वे नहीं समझ पाए कि विश्व में कोई
किसी अर्थ की आशा क्यों करेगा? हॉवर्ड के खगोलविज्ञानी मारग्रेट गेलर ने
पूछा - ....इसका कोई अर्थ क्यों होना चाहिए? कौन सा अर्थ? यह तो एकमात्र
भौतिक प्रणाली है इसमें अर्थ कैसा? मैं उस वक्तव्य से एकदम अचंभित हूं।
प्रिन्सटन के खगोलविज्ञानी जिम पीबल्स ने उत्तर दिया मैं यह मानने को
तैयार हूं कि हम बहते हुए और फैंके हुए हैं। ( पीबल्स को भी अंदाज़ था कि
मेरे लिए वह एक बुरा दिन था ) प्रिन्सटन के दूसरे खगोलविज्ञानी एडविन
टर्नर मुझसे सहमत थे, किंतु उनका अनुमान था कि मैंने यह टिप्पणी पाठक को
नाराज़ करने के उद्देश्य से की थी। एक अच्छी प्रतिक्रिया टेक्सस
विश्वविद्यालय के मेरे सहकर्मी, खगोलविज्ञानी गेरार्ड द वाकोलियर्स की थी।
उन्होंने कहा कि वे सोचते हैं कि मेरा उत्तर नोस्टालजिया पैदा करने वाला
था। कि वास्तव में यह वैसा ही था- उस दुनिया के लिए जहां स्वर्ग ईश्वर के
गौरव की घोषणा करते हैं, वह् नोस्टालजिया पैदा करने वाला ही था।
लगभग
एक सौ पचास वर्ष पहले मैथ्यू आर्नोल्ड ने समुद्र की लौटती हुई लहरों में
धार्मिक विश्वास के पीछे हटते कदमों के दर्शन किये थे और जल की ध्वनि में
उदासी का गीत सुना था। प्रकृति के नियमों में किसी चिन्तित सृष्टिकर्ता
द्वारा तैयार योजना, जिसमें मनुष्य कुछ खास भूमिका में होते, को देख पाना
कितना दिलचस्प होता। लेकिन ऐसा कर पाने में अपनी असमर्थता में मुझ उस
उदासी का अहसास हो रहा है। हमारे वैज्ञानिक सहकर्मियों में से कुछ ऐसे हैं
जो कहते हैं कि उन्हें प्रकृति के चिंतन से उसी आध्यात्मिक संतोष की
प्राप्ति होती है जो औरों को परम्परागत रूप से किसी हितबद्ध ईश्वर में
विश्वास से मिलता है। उनमें से कुछ को तो ठीक वैसा ही अहसास भी होता होगा।
मुझे नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि यह प्रकृति के नियमों की पहचान करने
में सहायक होगा, जैसा कि आइन्सटाइन ने एक प्रकार के दूरस्थ और निष्प्रभावी
ईश्वर को मानकर किया। इस धारणा को युक्तिसंगत दिखाने के लिए ईश्वर की समझ
को हम जितना परिमार्जित करते हैं, यह उतना ही निरर्थक लगता है।
आज
के वैज्ञानिकों में इन मसलों पर सोचने वालों में मैं शायद कुछ लीक से हटकर
हूं। चाय या दोपहर के भोजन के चन्द मौकों पर जब बातचीत मुद्दों को छूती
है, तो मेरे मित्र भौतिक विज्ञानियों में से ज़्यादातर की सबसे तीखी
प्रतिक्रिया हल्के आश्चर्य और मनोविनोद के रूप में व्यक्त होती है जिसमें
यह भाव होता है कि अब भी कोई क्या इन मुद्दों को गंभीरता से लेता है। बहुत
सारे भौतिक विज्ञानी अपनी नृजातीय पहचान बनाए रखने के लिए, और विवाह और
अंत्येष्टि के मौकों पर इसका उपयोग करने के लिए, अपने अभिभावकों के
विश्वास से नाममात्र का नाता जोड़े रहते हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई
उसके धर्मतत्व पर विचार करता है। मैं ऐसे दो व्यापक सापेक्षता पर काम करने
वाले वैज्ञानिकों को जानता हूं जो समर्पित रोमन कैथोलिक हैं। बहुत सारे
सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी हैं जो यहूदी रिवाजों के अनुपालक हैं। एक
प्रायोगिक भौतिक विज्ञानी हैं जिनका ईसाई-धर्म में पुनर्जन्म हुआ है। एक
सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जो समर्पित मुस्लिम हैं, और एक गणितज्ञ भौतिक
विज्ञानी हैं जिनका इंगलैंड के गिरजाघर में पुरोहिताभिषेक हुआ है।
निस्संदेह अन्य अत्यंत धार्मिक भौतिक विज्ञानी होंगे जिन्हें मैं नहीं
जानता या जो अपना मत ख़ुद तक ही सीमित रखते हैं। लेकिन मैं इतना अपने
अवलोकनों के आधार पर कह सकता हूं कि आज ज़्यादातर भौतिक विज्ञानी धर्म में
पर्याप्त रुचि नहीं रखते और उन्हें व्यावहारिक नास्तिक कहा जा सकता है।
( क्रमशः )
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं
के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता
है।
अगली बार इस आलेख का अंतिम भाग प्रस्तुत किया जाएगा।
शुक्रिया।
समय
5 टिप्पणियां:
पढ रहे है जी।
चारों भाग एक साथ ही पढ़ेंगे...पी०डी०एफ़० इसका भी आयेगा न!
वैसे हम तो इसे प्रिंट कर पढ़ेंगे! शायद तब कोई बात मन में आए!
आलेख का आभार।
वर्ड प्रेस पर सिद्धार्थ जोशी की टिप्पणी:
Sidharth Joshi commented on और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 3
एक बात दिमाग में घूम रही है। पहले भी मैं कहीं कोट कर चुका हूं, अब दोबारा...
एक कल्पना कीजिए, दुनिया में सात अरब बंदरों को सात अरब कम्प्यूटर देकर बैठा दिया जाए, और वे पांच सौ साल तक की बोर्ड पर बिना किसी अंदाजे के अंगुलियां मारते रहें, तो जितने पेज छपकर बाहर आएंगे, उनमें आधुनिक विज्ञान को लेकर रची गई सभी किताबें निकल आएंगी।
मेरा मंतव्य यह नहीं है कि विज्ञान के संबंध में अब तक किए गए प्रयोग और सिद्धांत बंदरों के दिमाग की उपज है, बल्कि यह कि प्रोबेबिलिटी की बात की जाए, तो यह भी एक संभावना बनती है। ऐसे में विशेष परिस्थितियों में किसी एक वैज्ञानिक द्वारा किसी क्षेत्र विशेष में समय विशेष में किया गया चिंतन एक सिद्धांत का निरूपण करता है।
इसमें कहीं न कहीं ईश्वर का हाथ अवश्य होगा।
दूसरी कल्पना : अगर हम यह मान लें कि प्रकृति प्राकृतिक रूप से वही काम करती है, जिससे कम से कम केओस पैदा हो। इसके लिए ऊर्जा के अधिकतम उपयोग और निम्नतम स्तर पर काम करने की जरूरत होगी। अगर इसका ग्राफ बनाया जाए तो यह शायद टू डायमेंशनल सीधी रेखा होगा। तीसरे आयाम की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। अगर तीसरा आयाम हो तो वह भी इतने गजब के साम्य में होगा कि सीधी रेखा को सपोर्ट करेगा।
यहीं पर मुझे ईश्वर द्वारा निर्धारित पूर्वनियतता दिखाई देती है। यानी ईश्वर ने प्रकृति को बनाया और सभी कुछ पूर्व नियत कर रखा है (मेरे ज्योतिषी होने को इस बात का समर्थन मिलता है :))
खैर, ईश्वर द्वारा तय की गई इसी पूर्वनियतता में कभी कभार बीच में जो अपवाद आते हैं, वे न केवल मुझे बल्कि खुद प्रकृति को भी झकझोर जाते हैं... अब यहां उदाहरण नहीं दे पाउंगा... :)
वर्ड प्रेस पर ही समय की टिप्पणी:
प्रिय सिद्धार्थ,
कल्पनाओं का फलक बहुत व्यापक हो सकता है। दिमाग़ में पहले से उपस्थित सूचनाओं के, और उनसे उपजी संभावनाओं के असंख्य असीमित कोलाज़ बनाए जा सकते हैं। ऐसे काल्पनिक कोलाज़ों से जूझने में, जीवन की वास्तविकताएंअधिक मदद नहीं कर सकतीं, वहां काल्पनिक हलों की संभावनाएं जैसे कि ईश्वर ही हमारी मदद कर सकता है। अतएव काल्पनिक घटाघोपों की तार्किक परिणति, हमको किसी ईश्वर के हाथ की कल्पना तक ही पंहुचा सकती है। कहीं न कहीं, क्योंकि वास्तविकता में कहीं नहीं दिखता।
जीवन की वास्तविकताओं में अबूझी, अनजानी, रहस्यमयी परिघटनाओं की कमी नहीं है, और यहीं वह अवसर मिलता है जहां ईश्वर को आसानी से प्रवेश मिल जाता है। जहां ये अधिक हैं, वहां ईश्वर की उपस्थिति अधिक है। जहां यह अवसर कम होता जाता है, ईश्वर अपना डेरा समेट कर पीछे हटता चला जाता है।
काल्पनिकता से लबरेज़ पूर्वनियतताओं में अपवाद ही जीवन से जुडी वास्तविकताएं हैं जो हमारे सामने अपने नंगे रूप में सामने खड़े होकर हमारी मान्यताओं को झकझोरने का सामर्थ्य रखती हैं। इनसे जूझना ही सत्य तक पहुंचना हो सकता है, इनसे बचना या इन्हें नई काल्पनिकताओं से भर देना नहीं।
अनुकूलित हो चुकी मान्यताओं का टूटना-छूटना, अपने अस्तित्व की सी लड़ाई सा लगता है और दिमाग़ इसके ख़िलाफ़ अपनी पुरजोर कोशिश करता है। यह उसका हक़ है, पर विज्ञान और मनुष्यता के हक़ में नहीं।
शुक्रिया।
"यहीं वह अवसर मिलता है जहां ईश्वर को आसानी से प्रवेश मिल जाता है।"
एक कवि ने कविता की भाषा में इसे कुछ इस तरह प्रस्तुत किया था ..
1993/93
ईश्वर यहीं कहीं प्रवेश करता है
पत्थर को मोम बना सकता है
बच्चे की आँख से ढलका
आँसू का बेगुनाह कतरा
गाल पर आँसू की लकीर लिये
पाँव के अंगूठे से कुरेदता वह
अपने हिस्से की ज़मीन
भिंचे होंठ तनी भृकुटी
हाथ के नाखूनों से दीवार पर उकेरता
आक्रोश के टेढ़े- मेढ़े चित्र
भय की कश्ती पर सवार होकर
पहुँचना चाहता वह
सर्वोच्च शक्ति के द्वीप पर
बच्चे के कोरे मानस में
ईश्वर यहीं कहीं प्रवेश करता है ।
- शरद कोकास
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।