हे मानवश्रेष्ठों,
ठोस समाधानों की तात्कालिक आकांक्षाएं
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
ठोस समाधानों की तात्कालिक आकांक्षाएं
आप
ही के शब्द, ‘अब इस पर क्या कहें?’ :-) यदि आप अपनी समझ में बेहतर होते
जाएंगे तो अपने समाधान ख़ुद ही तलाश लेने की अवस्थाओं में होंगे और यही
सबसे अच्छी बात होगी। कुछ कहते ही हैं, यह पुनरावर्तन ही होगा पर फिर भी।
इसके मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करते हैं।
जब वास्तविक दुनिया
में परिवर्तन संभव नहीं लगते, तब अमूर्तन दुनिया अधिक रास आने लगती है।
वास्तविक यथार्थ के कुछ पहलू हमारे विचारों को आंदोलित करते हैं, हमें ग़लत
लगते हैं, समस्याएं पैदा करते हैं, और हम उनका समाधान करने को प्रस्तुत हो
जाना चाहने लगते हैं। पर यदि यथार्थ की वस्तुगत समझ पैदा नहीं हो पाई होती
हैं तो हम उन समस्याओं के मूल पर नहीं पहुंच पाते। मूल तक नहीं पहुंच पाना
उन्हें सही रूप से हल कर पाने की संभावनाओं को बंद कर देता है।
हम
सामान्यतः तत्काल समाधान चाहते हैं, सोचते हैं कि क्यों ना इन समस्याओं के
तुरंत हल निकल आएं। यही आकांक्षा हमें उस स्थिति की ओर ले जाती है, जब हम
वास्तविक तात्कालिक समाधान ना भी कर पाएं तो कम से कम तार्किक रूप में
यानि अमूर्त रूप में, अपनी चेतना में, तो उनका समाधान प्रस्तुत कर ही लें।
यह हमें वास्तविक यथार्थ से अलग करता है और हमें अमूर्तन रूप में, चेतना
के स्तर पर ही समाधानों में उलझे रहना और इसी को वास्तविकता समझने की ओर
प्रवृत्त करता है। एक आभासी दुनिया हमारी चेतना में सरगर्मी करने लगती है
और हम इन्हीं आभासी समाधानों की दुनिया में डूबे रहना पसंद करने लगते हैं।
चाहे वास्तविकता में ये चरितार्थ हो पाएं या नहीं।
थोड़ा समझाएं,
जैसे कि वर्तमान परिस्थितियों में जो देश की आत्मनिर्भरता और संप्रभुता से
वास्ता रखते हैं वे यह समस्या महूसस करते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां
देश में पूंजी का जिम्मेदारी रहित, जम कर दोहन कर रही हैं तथा
आत्मनिर्भरता और संप्रभुता पर संकट खड़ा कर रही हैं, साम्राज्यवादी भाषा और
संस्कृति की वाहक हैं। वे इसका समाधान करना चाहते हैं।
यहां हम
संसंदीय पार्टियों की अवसरवादी राजनीति को छोड़ देते हैं क्योंकि उनके ज़रिए
सिर्फ़ सत्ता की अलट-पलट होती है, नीतियां कमोवेश वही रहती हैं। आगे बढ़ें,
कुछ लोगों को लगता है कि ये इसलिए संभव हो पा रहा है कि देश की वर्तमान
सत्ता की साम्राज्यवादी शक्तियों के आगे घुटने टेकने और देश की पूंजीवादी
शक्तियों को फायदा पहुंचाने तथा मिल-जुलकर खाने हड़पने की नीतियां इसके मूल
में हैं, इसलिए बिना इस पूंजी-सत्ता के गठजोड़ को सत्ता को हटाए और एक
जनपक्षीय सत्ता कायम किए बगैर इन समस्याओं के वास्तविक और स्थायी समाधान
नहीं निकल सकते। यानि सत्ता पर निर्णायक कब्ज़े की लड़ाई छेड़ना और जीतना ही
इसका समाधान है।
कुछ लोगों को लगता है कि फिलहाल की परिस्थितियों
में इसके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध किया जाना चाहिए और इनके
खिलाफ़ बहिष्कार की रणनीति अपनानी चाहिए। इनकी सभी कार्यवाहियां मुनाफ़ा
बटोरने के लिए होती हैं, इसलिए बहिष्कार इनका मुनाफ़ा कम करेगा या खत्म कर
देगा और मजबूरन उन्हें यहां से वापस लौटना ही होगा। इनके अनुसार यही एक
कारगर तात्कालिक समाधान होगा।
क्रांति, आमूल-चूल परिवर्तन के लिए
परिस्थितियों, पूंजीवादी शक्तियों के खिलाफ़ एक व्यापक जन चेतना और बृहत्तर
स्तर पर अधिकतर जनता की सक्रिय भागीदारी वाला संघर्ष आवश्यक है, और इस हद
तक का बहिष्कार जिससे उनका वास्तविक रूप में मुनाफ़ा ख़त्म किया जा सके के
लिए भी एक व्यापक जनचेतना और बृहत्तर रूप से बहुल जनता के बहिष्कार की
सक्रिय और लंबी भागीदारी की आवश्यकता है। इसका मतलब ये दोनों समाधान सिर्फ़
दिमाग़ में ही अमूर्त समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं और व्यावहारिक रूप से एक
लंबी और व्यापक कार्यवाहियों की आवश्यकता को ही प्रतिबिंबित कर रहे हैं।
दोनों
ही तात्कालिक समाधान मस्तिष्क में तो प्रस्तुत हो रहे हैं, पर यथार्थ में
देखा जाए तो वास्तविकता में कोई तात्कालिक हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं।
इसलिए हमने ऊपर तार्किक रूप से सूझ रहे इस तरह के समाधानों को अमूर्त
दिमागी शगल मात्र ही कहा है जिनसे प्राप्त तात्कालिक मानसिक संतुष्टि रास
आने लगती है। आपको यह समझना चाहिए ही कि समस्याओं के सैद्धांतिक या
तार्किक समाधानों के पीछे का मनोविज्ञान क्या है? इतिहास हमें सिखाता है
कि बृहत्तर सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के कोई लघु-कालिक तात्कालिक
समाधान नहीं होते। व्यवस्थाओं के अंतर्विरोध उनके निषेध से यानि आमूलचूल
परिवर्तन से ही स्थायी रूप से हल हो सकते हैं, यहां कोई लघु-मार्ग नहीं
होता।
उपरोक्त दोनों समाधानों पर थोड़ा और गौर फरमाएं तो हम देखते
हैं कि पहले समाधान में परिस्थितियों की एक वस्तुगत और व्यापक समझ है,
वहीं दूसरे समाधान में परिस्थितियों की भाववादी व्याख्या है और आदर्शवादी
तात्कालिक अवसरवादी प्रवृत्ति है जो इसी तरह तात्कालिक रूप से समाधान होने
का भ्रम तो पैदा करती है पर इन समस्याओं के मूल, वर्तमान व्यवस्था के
विरोध की कोई मानसिकता उसके पीछे परिलक्षित नहीं होती इसलिए यथास्थितिवादी
रुख आसानी से ले सकती है।
जब ये दोनॊं समाधान एक व्यावहारिक रूप से
एक लंबी और व्यापक जन कार्यवाहियों की आवश्यकता को ही प्रतिबिंबित कर रहे
हैं यानि एक व्यापक जन आंदोलन और लंबे संघर्षों की आवश्यकता को परिलक्षित
कर रहे हैं तो फिर अपनी जिम्मेदारी समझ रहे व्यक्तियों और समूहों द्वारा
जनता के बीच ऐसी व्यापक कार्यवाहियां, पहले समाधान के दूरगामी लक्ष्यों के
प्रति ही लक्षित क्यों ना हों। जब एक व्यापक जन चेतना पैदा करनी ही है तो
क्यों ना इसके लिए अपनी उर्जा को संपूर्ण परिवर्तन की दिशा में ही लगाया
जाए। क्यों ऐसे तात्कालिक से समाधानों में उलझा जाए जिनसे व्यावहारिक रूप
से कोई वास्तविक परिणाम प्राप्त होने की संभावना नहीं है।
बाकी बात हम पहले भी और ऊपर भी विकल्प वाली बात के अंतर्गत ही काफ़ी कुछ कह चुके हैं।
समस्याओं
के मूल में वर्तमान व्यवस्था अगर है तो जाहिरा तौर पर इसके निषेध से ही
समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है। यानि कि आमूलचूल परिवर्तनकारी
क्रांति ही असल समाधान है। तभी समस्याओं के वास्तविक हल निकल सकते हैं। पर
यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और पारिस्थितिक रूप से ही समग्रता से संभव हो
सकती है। यह बात पूरी तरह समझ में जब तक नहीं आ पाएगी, तब तक हम किन्हीं
सुधारवादी गतिविधियों में उलझने को अभिशप्त होंगे जो यथास्थिति को बनाए
रखने में ही मददगार ही होती है।
क्या किया जा सकता है, इसके कई
इशारे हम पेश कर ही चुके हैं, कि तात्कालिक परिस्थितियों में हमारे
हस्तक्षेपों की सही दशा और दिशा क्या हो सकती है। वही जो इस दूरगामी
लक्ष्य हेतु प्रवृत्त करती हो, और वर्तमान व्यवस्था से तात्कालिक राहत
जरूर हासिल कर लेती हो परंतु जो वर्तमान व्यवस्था की वास्तविकताओं को भी
खोल कर रखती रहती हों और इसके निषेध की तरफ़ लक्षित हों।
इतिहास को
देखिए, आपको पता चलेगा कि समाज में कोई भी परिवर्तनकारी परिणाम यूं ही ना
हासिल कर लिए गये हैं, उनके पीछे एक बेहद लंबी और बलिदानी कार्यवाहियों की
श्रृखलाएं रही है। और ये संघर्ष हमेशा सफल रहे हों यह भी जरूरी नहीं। कई
छुटपुट सफलताओं और असफलताओं की श्रृंखलाएं चलती रही हैं। व्यापक
क्रांतियों के मामले में भी, असफल संघर्षों के मामले में भी, सुधारवादी
हासिलों के मामले में भी। तत्काल और तुरंत कुछ नवीन हासिल नहीं किया जा
सकता है, जहां हासिल होता भी लग रहा है तो यह समझ लेना चाहिए कि जरूर
इसमें कुछ भी नवीन नहीं होगा, यह कोई पुरानी चीज़ ही होगी जिसमें मुलम्मा
कोई नया लपेट दिया गया हो। ताकि यह नया सा भी लगे, और पुराने ढांचे के रूप
में ही यथास्थिति के लिए पहले की तरह ही मुफ़ीद भी हो।
तो इसलिए ठोस
समाधान पर निराशा तो होगी ही, क्योंकि तत्काल में ये कोई वास्तविक
परिवर्तन करते हुए नहीं दिखाई देते हैं। पर यदि वस्तुगतता में देखेंगे,
समाज के विकास के नियमों को समझेंगे तो आदर्शवादी रुझानों से मुक्ति पा
सकते हैं। यह समझ में आ सकता है कि परिस्थितियां पकने पर ही फल मिला करते
हैं, और एक व्यक्ति के रूप में इसी बात पर संतोष किया जा सकता है कि हमने
इन पकने की परिस्थितियों के पैदा होने में मदद की, अपना योगदान किया और
विरोधी परिस्थितियों से जमकर मुकाबला, संघर्ष किया। एक व्यक्ति के रूप में
अपने हस्तक्षेप की अधिकतर संभावनाओं का यथासम्भव दोहन किया।
दोबारा
पढा तो लगा कि काफ़ी पुनरावृत्ति हो रही है, हम एक ही जैसी बातें बार-बार
दोहरा कर कहे जा रहे हैं। एकबारगी तो लगा कि हटा दें, फिर लगा कि जब लिखने
में श्रम हो ही गया है तो रहने ही देते हैं। आप ख़ुद समझदार है। काम की
बातें छांट लेंगे, थोथा उड़ा ही लेंगे।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
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