हे मानवश्रेष्ठों,
मानसिक और शारीरिक श्रम
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
मानसिक और शारीरिक श्रम
श्रम
का मतलब है, मनुष्य द्वारा अपने किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रकृति में
किया जा रहा सचेत परिवर्तन। श्रम का उद्देश्य निश्चित समाजिकतः उपयोगी
उत्पादों को पैदा करना है। जाहिर है, इसके लिए उसे अपने पूर्व के अनुभवों
के आधार पर पहलें मानसिक प्रक्रिया संपन्न करनी पड़ती है, आवश्यकता क्या
है, उसकी तुष्टि के लिए क्या करना होगा, किस तरह करना होगा, एक निश्चित
योजना और क्रियाओं, गतियों का एक सुनिश्चित ढ़ांचा दिमाग़ में तैयार किया
जाता है तत्पश्चात उसी के अनुरूप मनुष्य प्रकृति पर कुछ निश्चित साधनों के
द्वारा कुछ निश्चित शारीरिक क्रियाएं संपन्न करता है।
यानि किसी भी
उत्पाद को तैयार करने में, उत्पादन में मानसिक तथा शारीरिक क्रियाएं
अंतर्गुथित होती हैं। पहले की उत्पादन प्रक्रियाओं में उन दोनों
प्रक्रियाओं की सभी क्रियाएं एक ही मनुष्य द्वारा संपन्न की जाती थी,
परंतु आज की विकसित उत्पादन प्रक्रियाओं में, जबकि उत्पादन का समाजीकरण
होता जा रहा है, किसी भी उत्पाद की संपूर्ण प्रक्रियाओं का विलगीकरण हो
जाता है, और यह प्रक्रिया कई टुकड़ो में बंट जाती है। मानसिक प्रक्रियाएं,
शारीरिक प्रक्रियाएं अलग होती है, और इनके भी कई टुकड़े हो जाते हैं। इस
तरह हम देखते हैं कि उत्पादन प्रक्रियाओं में मानसिक तथा शारीरिक श्रम अलग
होते जाते हैं। ये भी और हिस्सों में बंट कर अलग-अलग व्यक्तियों के श्रम
योगदान में परिवर्तित हो जाते हैं।
इस तरह आजकल मानसिक और शारीरिक
श्रम काफ़ी दूर हो गये हैं, कई बार तो लगता भी नहीं कि ये किसी एक ही
उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े हैं। अब यह समझा जा सकता है कि इनमें क्या अंतर
है। ये सामाजिकतः उपयोगी उत्पादन प्रक्रियाओं के दो भिन्न पहलुओं को
परावर्तित करते हैं। एक में मानसिकतः प्रधान और दूसरी में शारीरिकतः
प्रधान सार्थक क्रियाएं संपन्न की जाती हैं।
अगर हमने यह समझ लिया
है कि ये आपस में अंतर्गुथित हैं, तो महत्त्व का सवाल ही बाकी नहीं रह
जाता। परंतु समाज में प्रचलित मानसिकताओं और दृष्टिकोणों के अनुसार इनको
विभिन्न सामाजिक संरचनाओं में अलग-अलग महत्त्व दिया जाता है। जहां शारीरिक
श्रम को हेय दृष्टि से देखा जाता है वहां मानसिक श्रम को जाहिरा तौर पर
ऊंचा दर्ज़ा प्राप्त होता जाता है। समाज के साधनसंपन्न लोग उत्पादन
प्रक्रियाओं के मानसिकतः पहलू पर अपना आधिपत्य और एकाधिकार बनाए रखने की
कोशिश करते हैं, ताकि बाकियों को हेय शारीरिक श्रम में लगाए रखा जा सके और
वे उससे बचे रह सकें। पढलिखकर ऊंचे ओहदों और कार्यों को लपकने के लिए चल
रही गलाकाट प्रतिस्पर्धा में इसका प्रतिबिंबन आसानी से देखा जा सकता है,
यह व्यवस्था उन्हें लूट के अधिक हिस्से का , लाभ का बनाए रखकर इसमें मदद
करती है।
व्यापक रूप से देखा जाए तो श्रम की प्रक्रिया एक अभिन्न
सी प्रक्रिया है जिसमें मानसिक और शारीरिक पहलू आपस में गहरे से
अंतर्गुथित होते हैं। दरअसल इन्हें अलग-अलग रूपों में महसूस करके जो भ्रम
रचा जाता है वह अपने को व्यापक सर्वहारा वर्ग से अलग और शासक वर्ग के साथ
निकटता महसूस करने के लिए होता है। मानसिक श्रम करने वाले भी यदि उनके पास
बुर्जुआ साधन नहीं है और वे अपने जीवनयापन के लिए अपना श्रम ( चाहे मानसिक
श्रम ही ) बेचकर ही गुजारा कर सकते हैं तो वर्गीय दृष्टि से वे सर्वहारा
वर्ग में ही आते हैं। परंतु वे थोड़ा अधिक फैंका हुआ हिस्सा पाते हैं,
इसलिए अधिक साधन संपन्न हो जाते हैं और अपने को प्रभुत्वशाली वर्ग के पास
पाते हैं, वैसा ही बन जाने या बन पाने के सपने रचते हैं, तो इसीलिए वे इस
मानसिक श्रम के अलगाव का भ्रम रचते हैं जो उन्हें शारीरिक श्रम करने वालों
से अलग, श्रेष्ठ होने का सुक़ून देता है। यह भ्रम व्यवस्था द्वारा फैलाया
और पोषित किया जाता है, वह ऐसा मानसिक श्रम वालों को अधिक हिस्सा प्रदान
करके किया करती है और उनकी प्रतिरोधी चेतना को कुंद करती है, सर्वहारा
वर्ग में फूट डालती है, उनमें मानसिक परिपक्व नेतृत्व की संभावनाओं को
कमजोर करती है।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
4 टिप्पणियां:
यह भ्रम व्यवस्था द्वारा फैलाया और पोषित किया जाता है, वह ऐसा मानसिक श्रम वालों को अधिक हिस्सा प्रदान करके किया करती है और उनकी प्रतिरोधी चेतना को कुंद करती है, सर्वहारा वर्ग में फूट डालती है, उनमें मानसिक परिपक्व नेतृत्व की संभावनाओं को कमजोर करती है।
यह बिंदू कहीं कांस्पीरेसी थ्योरी की ओर लेकर जाता है, जिसके अनुसार कुछ बड़े समूह मिलकर यह दुनिया चला रहे हैं। मेरे देखने में आया है कि वास्तव में इंसान की नैसर्गिक प्रवृत्तियां ही उसे बांधे रखती है, शासित होने और शासन करने की प्रवृत्ति भी नैसर्गिक है। हो सकता है मुझ पर जातिवादी होने का आरोप लगे, लेकिन समूह विशेष के लोगों को मैंने शासन करने के लिए प्रतिबद्ध और अन्य लोगों को शासित होने के लिए अभिशप्त पाया है...
शासन करने वाले आराम से रहते हों या किसी प्रकार की तकलीफों से नहीं गुजरते हों, ऐसा नहीं है, लेकिन वे कष्ट पाकर भी ऊपर बने रहते हैं और बड़ी संख्या ऐसे लोगों की देखता हूं जो अपने चारों को छद्म भय का आवरण बनाकर अपने कंफर्ट जोन में पड़े रहते हैं...
मैंने खुद ने दोनों स्थितियों को करीब से महसूस किया है... इसलिए यह बात कह रहा हूं।
सार्थक व् उपयोगी सराहनीय प्रस्तुति आभार . मगरमच्छ कितने पानी में ,संग सबके देखें हम भी . आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN क्या क़र्ज़ अदा कर पाओगे?
आदरणीय सिद्धार्थ जी,
वैयक्तिक रूप से अनुभव और महसूस करने के विषयगत-आत्मगत ( subjective ) आधारों पर सामान्य सिद्धांत विकसित करने की प्रवृत्ति वैज्ञानिक नहीं होती। अक्सर हमारे आत्मगत वैयक्तिक अनुभव, हमारे अनुकूलन (conditioning ), विकसित हुई दृष्टि और दृष्टिकोण, वैचारिक और व्यवहारिक उद्भासन ( ideological/conceptual and practical exposure ) आदि की सीमाओं में आबद्ध होते हैं।
इंसान/मनुष्य में नवजात शिशुओं में पाए जानेवाले कुछैक सहजवृत्तिक प्रतिक्रियात्मक प्रतिवर्तों ( Instinctive reaction reflexes ) को छोडकर, अन्य कुछ भी नैसर्गिक नहीं होता। जाहिर है इस तथ्य से अनजान मानसिकता के साथ, हम कितना कुछ सही देख सकते हैं, समझ सकते हैं, इसकी अपनी सीमाएं हैं। हम यदि अपने प्रेक्षणों में वस्तुगत ( objective ) होने के अभ्यासी नहीं हैं तो जाहिरा तौर पर हमारे प्रेक्षणों और निष्कर्षों पर हमारी मानसिकता, मान्यताओं और पूर्वाग्रहों का भरपूर आत्मगत ( subjective ) प्रभाव तारी रहेगा।
यह वस्तुस्थिति ही है, जिसका कि आपने सही प्रेक्षण किया है कि कुछ समूह विशेष शासन-सत्ता के लिए प्रतिबद्ध हैं और अन्य अधिकतर लोग शासित होने को अभिशप्त हैं। आपकी मान्यताएं इसका उत्स, इसकी व्याख्या भले ही मनुष्य की तथाकथित नैसर्गिकता में, मूल प्रवृत्तियों में, जन्मना अधिकारों में, भाग्य-भगवान, ग्रह दशाओं, आदि में देखने और इसीलिए इसको अपरिवर्तनीय मानने के लिए अभिशप्त हो, परंतु जो लोग इन अमानवीय स्थितियों को बदलना चाहते हैं उनके लिए वस्तुस्थितियों को उनकी वस्तुगतता में देखना, समझना, उनके मूल कारणों तक पहुंचना आवश्यक हो जाता है। ऐसी परिवर्तनकामी चेतनाएं काल्पनिक प्रभामंडलों में अपने आपको उलझाए रखने की अभिशप्तता से अपने को बाहर निकालने के लिए सदैव प्रयत्नरत रहती हैं।
हम अपने आपको इन यथास्थितिवादी मान्यताओं, व्याख्याओं से उबार सकें और परिवर्तनकामी चेतना से लैस कर सकें ताकि इन अमानवीय स्थितियों से मानव समाज की मुक्ति की राह प्रशस्त हो सके, यही हमारी अभिलाषा और शुभकामनाएं हैं, हम सबके लिए, आपके लिए भी।
बहुत दिनों के बाद आपके दर्शनों से लाभान्वित हुए, हमारी खुशनसीबी। आपकी आमद, हौसला अफ़्जाई और शब्द-कृपा का शुक्रिया।
शुक्रिया।
परंतु जो लोग इन अमानवीय स्थितियों को बदलना चाहते हैं उनके लिए वस्तुस्थितियों को उनकी वस्तुगतता में देखना, समझना, उनके मूल कारणों तक पहुंचना आवश्यक हो जाता है। ऐसी परिवर्तनकामी चेतनाएं काल्पनिक प्रभामंडलों में अपने आपको उलझाए रखने की अभिशप्तता से अपने को बाहर निकालने के लिए सदैव प्रयत्नरत रहती हैं।
हम अपने आपको इन यथास्थितिवादी मान्यताओं, व्याख्याओं से उबार सकें और परिवर्तनकामी चेतना से लैस कर सकें ताकि इन अमानवीय स्थितियों से मानव समाज की मुक्ति की राह प्रशस्त हो सके,
१.---ये परिवर्तन कामी चेतनाएं मानव में कहाँ से आती हैं ( क्योंकि वे कभी कभी आती हैं, लम्बे युगों बाद , इसीलिये उसे युग व युगपरिवर्तन.. कहां जाता है )
२.प्रय्त्नारतता ..किसी मानव में कैसे उत्पन्न होती है ...
३.कोइ किस प्रकार अपने आपको इन यथास्थितिवादी मान्यताओं, व्याख्याओं से उबारे और परिवर्तनकामी चेतना से लैस कर पाए ..
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