हे मानवश्रेष्ठों,
यथास्थिति में बदलाव की आकांक्षा के प्रतीक
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
यथास्थिति में बदलाव की आकांक्षा के प्रतीक
आपसे विवेकानन्द के बारे में कुछ सुनने की इच्छा है। उनके विचार पर, उनकी सोच पर। उनकी समीक्षा आप करेंगे तो अच्छा लगेगा।....
विवेकानंद
भारतीय मेधा, परंपरा और चिंतन के स्वतस्फूर्त विकास के प्रतीक बन कर उभरते
हैं। जब वे तत्कालीन यथार्थ से रूबरू हुए, तो वास्तविकताओं ने उनके
दृष्टिकोण को थोड़ा बहुत यथार्थवादी बना दिया। इसी वज़ह से वे श्रेष्ठताबोध
के घटाघोप से उबर कर समाज की सच्चाइयों को समझने की यथासंभव कोशिश कर पाए,
और यह जरूरत महसूस की, कि इस समाज को, इस व्यवस्था को थोड़ा बहुत ठीक किया
जाना चाहिए।
विवेकानंद इतने लोकप्रिय आदर्श बनकर इसलिए उभरते हैं
कि वे भारतीय परंपरा और दर्शन के ही परिप्रेक्ष्य में यथास्थिति में बदलाव
की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हैं। यह यहां की ठेठ अनुकूलित मानसिकताओं को
रास आती है जहां पुराने को छोड़े बिना, उसी के अंदर से अपने विद्रोह की
प्रवृत्ति को बल दिया जा सकता है। सामान्य युवा जो यथास्थिति को सही नहीं
पाते, और इसकी जकड़न में कसमसा रहे होते हैं, उनके आस-पास परिवेश में सिवाय
आध्यात्मिक गुटकों के सिवाय कोई दृष्टिकोणीय, वैचारिक चिंतन उपलब्ध नहीं
होता, और ये गुटके कोई व्यावहारिक निष्कर्ष निकालने में असमर्थ होते हैं।
इसी आध्यात्मिक परिवेश में से ही कहीं-कहीं उपलब्ध उन्हें विवेकानंद की
पुस्तकें भी मिल जाती हैं जिनसे वे उसी आध्यात्मिक सुकून के संदर्भों में
पढ़ते है पर यहां उन्हें अपनी बदलाव की, परिवर्तन की आकांक्षाओं को
अभिव्यक्ति मिलती है, उनकी वैचारिक तार्किकता और पुष्टि मिलती है। यही
कारण है कि स्वतस्फूर्त रूप से विकसित हुई अधिकतर परिवर्तनकामी मानसिकताएं
विवेकानंद के आदर्शों के बीच से, और उनके ज़रिए ही आगे की राह ढूंढ़ने की
कवायदों में लगती हैं।
विवेकानंद अपने विकसित होते चिंतन में
समाजवादी विचारों तक पहुंचने और उनसे प्रभावित होने की अवस्थाओं तक
पहुंचते हैं। परंतु स्वाभाविक विकास की यह प्रक्रिया, धारा उनकी असामयिक
मृत्यु के कारण रुक गई।बाद में एक और ऐसी ही उन्नत मेधा परिदृश्य पर उभरती
है जो इसी स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया से गुजरती है और अपनी वास्तविक
परिणति तक पहुंचने में सफल हो पाती है। ये राहुल सांकृत्यायन हैं। पर वे
विवेकानंद की तरह लोकप्रिय और आम नहीं हो सके क्योंकि वे आध्यात्मिक
परिवेश में उपलब्ध नहीं थे, साथ ही वे आम मानस की मानसिकताओं से उलट उन
सामान्यतः अपरिचित और आम मानस में बदनाम किए जा चुके भौतिकवादी और समानता
के विचारों तक पहुंच गये थे जो वास्तव में परिवर्तनकारी, क्रांतिकारी थे।
विवेकानंद....आदि पर यथार्थवादी लगते हैं लेकिन समाजवाद तक वे पहुंचते हैं, इसमें संदेह है।....
पहुंचने का मतलब यह था कि वे परंपरा से विकास के रूप में इस शब्द तक, इसकी जैसी-तैसी समझ और इस शब्द के प्रयोग तक पहुंचते हैं, उसके प्रभाव में अपनी मान्यताओं और विचारों को तौलने को मजबूर होते हैं। वे जिस पक्ष और परंपरा से थे, वे तो थे ही, उसके सारे घटाघोपों के साथ।
विवेकानंद....आदि पर यथार्थवादी लगते हैं लेकिन समाजवाद तक वे पहुंचते हैं, इसमें संदेह है।....
पहुंचने का मतलब यह था कि वे परंपरा से विकास के रूप में इस शब्द तक, इसकी जैसी-तैसी समझ और इस शब्द के प्रयोग तक पहुंचते हैं, उसके प्रभाव में अपनी मान्यताओं और विचारों को तौलने को मजबूर होते हैं। वे जिस पक्ष और परंपरा से थे, वे तो थे ही, उसके सारे घटाघोपों के साथ।
यथोचित श्रेय दिया
ही जाना चाहिए, और सीमाएं भी समझनी चाहिए। यह सही ही है कि उनका कहा और
लिखा कई आम चेतनाओं को तब भी मथ रहा था, अब भी मथता है, उनमें समाजोन्मुखी
प्रवृत्तियां पैदा करता है, उनके लिए आगे के रास्ते खोलने की संभावनाएं
रखता है।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
2 टिप्पणियां:
सुन्दर सार्थक पोस्ट .आभार .
सार्थक पोस्ट .आभार
हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
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विवेकानंद इतने लोकप्रिय आदर्श बनकर इसलिए उभरते हैं कि वे भारतीय परंपरा और दर्शन के ही परिप्रेक्ष्य में यथास्थिति में बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति हैं। यह यहां की ठेठ अनुकूलित मानसिकताओं को रास आती है जहां पुराने को छोड़े बिना, उसी के अंदर से अपने विद्रोह की प्रवृत्ति को बल दिया जा सकता है। सामान्य युवा जो यथास्थिति को सही नहीं पाते, और इसकी जकड़न में कसमसा रहे होते हैं, उनके आस-पास परिवेश में सिवाय आध्यात्मिक गुटकों के सिवाय कोई दृष्टिकोणीय, वैचारिक चिंतन उपलब्ध नहीं होता, और ये गुटके कोई व्यावहारिक निष्कर्ष निकालने में असमर्थ होते हैं। इसी आध्यात्मिक परिवेश में से ही कहीं-कहीं उपलब्ध उन्हें विवेकानंद की पुस्तकें भी मिल जाती हैं जिनसे वे उसी आध्यात्मिक सुकून के संदर्भों में पढ़ते है पर यहां उन्हें अपनी बदलाव की, परिवर्तन की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति मिलती है, उनकी वैचारिक तार्किकता और पुष्टि मिलती है। यही कारण है कि स्वतस्फूर्त रूप से विकसित हुई अधिकतर परिवर्तनकामी मानसिकताएं विवेकानंद के आदर्शों के बीच से, और उनके ज़रिए ही आगे की राह ढूंढ़ने की कवायदों में लगती हैं।
जी हाँ, स्वामी विवेकानंद का दर्शन-चिंतन निश्चित तौर पर पुराने आद्यात्मिक गुटकों से एक कदम आगे का है... पर अपने दौर के समाज की सीमाओं के चलते उससे तारतम्य रखते हुऐ बहुत ज्यादा तेज न चलने की उनकी सप्रयास चाह व असामयिक निधन के कारण उनका सफर अधूरा ही रह गया...
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