शनिवार, 27 जुलाई 2013

ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - २

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - २

हाँ, निश्चित रूप से समाज, सामाजिक संगठन, संस्थाएं, व्यवस्थाएं, आदि सरल रूप से कठिनतर की ओर विकसित हुऐ हैं...
ईश्वर की अवधारणा का सामान्यीकृत रूप निश्वित रूप से सभी मानव समूहों व धर्मों में एक ही सा है... पर जब आप कहते है कि 'एक अलौकिक शक्ति, परम चेतना, परम आत्मा, जिसने इस ब्रह्मांड़, दुनिया को रचा' तब कभी कभी एक सवाल यह भी कौंधता है मेरे दिमाग में कि पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में एकमात्र मानव ही तो है जिसने कुछ रचा-बनाया... और तभी से वह 'हर चीज को किसने बनाया-रचा ? 'यह सवाल भी पूछने लगा... अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता... तो क्या यह 'रचनाकार कौन ?' सवाल मानव मस्तिष्क का एक विशिष्ट फितूर सा नहीं माना जाना चाहिये... रही बात 'परम नियंत्रण' की... तो हर दौर का मानव यह बात कर कहीं न कहीं अपनी बेबसी में संतोष सा ही कर रहा होता है, खास कर उन चीजों के लिये जिन को वह कंट्रोल नहीं कर पा रहा होता या जिन पर उस का जोर नहीं चलता... चाहे यह प्राकृतिक आपदायें हों या असाध्य बीमारी... वह अपनी हार को परम आत्मा के परम नियंत्रणाधीन एक वृहद योजना का हिस्सा सा मान स्वयं को सांत्वना सी देता है...

निश्चित रूप से ईश्वर की अवधारणा में परिवर्तन हुऐ हैं और इसका क्रमिक विकास भी हो रहा है... मुझे तो अपेक्षाकृत नये सिख धर्म  में भी इस अवधारणा का थोड़ा परिष्कृत रूप दिखता है... और मुझे यह भी लगता है कि क्रमिक विकास होते होते एक दिन मानव जाति इस अवधारणा को नकार भी देगी...

हमारे द्वारा उछाले गये कई सवालों पर आपकी प्रतिक्रिया ने अधिकतर चीज़ें साफ़ कर दी हैं। यह भी साफ़ हुआ कि आपकी इस मामले पर समझ के बारे में हमारे पूर्वाग्रह कुछ ग़लत अनुमानों की दिशा ले रहे थे। जाहिर हुआ कि आपके पास, अपने अध्ययनों, तार्किक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में चीज़ों की एक साफ़ और बेहतर समझ मौजूद है।

जाहिरा-तौर पर यह निश्चित हुआ कि ईश्वर की अवधारणा, आद्यरूपों से इसके क्रमिक विकास, और आगे की परिणतियों की संभावनाओं पर भी आपकी समझ एकदम अद्यतन और साफ़ है और हमारे द्वारा संवाद को इस दिशा में मोड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। जहां से बात शुरू हुई थी, बात फिर वहीं पहुंच जाती है कि ईश्वर का जनक कौन है? आपने एक सरलीकृत समाधान पेश किया था, जिसको ही आगे बढ़ाते हुए हमने भी एक सरलीकृत समाधान पेश किया था। दोनों ही अलग-अलग छोरों को व्यक्त करते से लग रहे थे, परंतु वस्तुस्थिति यह है कि दोनों ही सारतः कहीं ना कहीं आपस में जुडते हैं। दरअसल चीज़ें हमेशा द्वंद में होती हैं, और उनके अंतर्विरोधों, संघर्षों और एकता में ही चीज़ों का वस्तुगत ज्ञान प्राप्त हो सकता है। हम शनैः शनैः इसको समझने की कोशिश करेंगे ही।

चूंकि, सहज रूप से समस्याओं के वैचारिक समाधान, मस्तिष्क की पैदाइश लगते हैं, और यह पूर्णतः ग़लत भी नहीं होता, परंतु यदि हम प्राथमिक मूल पर जाने की, उसे तय करने की कोशिश करते हैं तो शायद वस्तुस्थिति थोड़ी सी अलग हो उठती है। चलिए, आपने जो बात कही है, उसी को उदाहरणस्वरूप उठाते हुए, इसे आगे बढ़ाते हैं। आपने जो कहा था वह यह था, "कभी कभी एक सवाल यह भी कौंधता है मेरे दिमाग में कि पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियों में एकमात्र मानव ही तो है जिसने कुछ रचा-बनाया... और तभी से वह 'हर चीज को किसने बनाया-रचा ? 'यह सवाल भी पूछने लगा... अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता... तो क्या यह 'रचनाकार कौन ?' सवाल मानव मस्तिष्क का एक विशिष्ट फितूर सा नहीं माना जाना चाहिये..."

ईश्वर दुनिया का रचियता है, यह जवाब इस सवाल से पैदा होता है कि इस दुनिया का रचयिता कौन है? इस आत्मसात्कृत संज्ञान से प्रेरित होते हुए कि हर रचना या सृजन का एक कर्ता होना चाहिए, यह सवाल कि ‘दुनिया का रचयिता कौन है?’, मानव मस्तिष्क में इस आनुभाविक तथ्य और चेतना से पैदा होता है, कि प्रकृति से अलग उसके आसपास की कई चीज़ों की रचना के कर्ता के रूप में वह स्वयं को अपने मस्तिष्क में प्रतिबिंबिंत करता है। मस्तिष्क में इस प्रतिबिंबन का मतलब यह हुआ कि वास्तव में भौतिक रूप से वे क्रियाएं संपन्न हो रही थी ( जैसा कि आपने कहा भी है, अगर मानव कुछ रचना नहीं कर पाता तो शायद यह सवाल भी उसके पास नहीं होता...)। चीज़ों की रचना, प्रकृति में सचेत परिवर्तन के यह क्रियाकलाप, विशुद्ध रूप से उसकी पारिस्थितिक, जीवनीय आवश्यकताओं से संबंधित थी। यानि कि फिर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि यह उसकी यथार्थ परिस्थितियां ही थीं, जो उसकी इस वैचारिक श्रृंखला और निष्कर्षों के मूलभूत कारणों में थीं? क्या इस सवाल को मानव मस्तिष्क का ‘एक विशिष्ट सा फितूर’ मानने की बजाए, हमें इस ओर नहीं देखना चाहिए, नहीं सोचना चाहिए कि अपनी रचना और उसके कर्ता के रूप में उसकी स्वयं की उपस्थिति की, यानि ‘यह सवाल’ उसके विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों की एक स्वाभाविक परिणति सा लगता है, ना कि उसके मस्तिष्क में अचानक से उठे एक फितूर का परिणाम।

यानि की इसे इस तरह भी क्या नहीं देखा जाना चाहिए कि मानव के क्रम-विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों में उपजे और विकसित हुए उसके इसी रचनात्मक क्रियाकलापों, उनका मस्तिष्क में प्रतिबिंबन, इनसे उत्पन्न मानसिक क्रियाकलाप, बिंबों के लिए निश्चित ध्वनियां, और फिर इन्हीं शब्दों और छायाबिंबों के जरिए किया जाने वाला मूर्त चिंतन, और क्रियाकलापों के परिणामों की चेतना प्राप्त करते हुए, अपनी क्रियाओं के भावी परिणामों का पूर्वकल्पन, फिर प्राप्त कल्पना की क्षमता से अमूर्त चिंतन की संभावनाओं की दुनिया में प्रवेश, जो सामने नहीं है उसकी कल्पना, उस पर विचार, सवाल, संभावित-काल्पनिक जवाब, ये प्रक्रियाएं चल निकलती हैं।

दार्शनिक तौर-तरीक़ो से इसे ऐसा भी कहा जाता है कि पदार्थ मूलभूत है, उसके विकास की उच्चतर और जटिल अवस्थाओं में चेतना उत्पन्न और विकसित होती है। चेतना का विकास होने के बाद, यह अपने आगे के विकास क्रम में, स्वयं पदार्थ को नियंत्रित करने का प्रयास करती है। यानि कि अब एक द्वंद का रिश्ता बन जाता है। परिस्थितियों के प्रतिबिंबन से उनकी चेतना प्राप्त होती है, और यह चेतना अपने क्रम में अपने हितार्थ परिस्थितियों का नियमन तथा नियंत्रण करने की कोशिश करती है, परिस्थितियों को बदलने की कोशिश करती है। फिर परिस्थितियों में परिवर्तनों के प्राप्त परिणामों से पुनः चेतना समृद्ध होती है, परिस्थितियों में और अनुकूल परिवर्तनों को प्रेरित होती है, कोशिश करती है। यह प्रक्रिया अपने विकास-क्रम पर चल निकलती है और निरंतर बेहतर, विकसित और परिष्कृत होती रहती है।

( अगली बार लगातार.....)



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

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