शनिवार, 7 जून 2014

विकास की दिशा और उसका सर्पिल स्वरूप

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत दूसरे नियम परिमाण से गुण में रूपांतरण के नियम’ का सार प्रस्तुत किया था, इस बार हम द्वंद्ववाद के तीसरे नियम पर चर्चा शुरू करेंगे और इसी के अंतर्गत ‘विकास की दिशा और उसका सर्पिल स्वरूप’ को समझने का प्रयास करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



निषेध के निषेध का नियम - पहला भाग
विकास की दिशा और उसका सर्पिल स्वरूप

अब हम द्वंद्ववाद ( dialectics ) के तीसरे नियम - निषेध के निषेध का नियम ( the law of negation of the negation ) - के व्यवस्थित निरूपण की ओर बढ़ेंगे। यह नियम विकास की प्रक्रिया में निषेध ( negation ) की भूमिका और विकास की दिशा से संबंधित है। इसलिए यह बेहतर होगा कि इस नियम को निरुपित करने से पहले हम विकास की दिशा और उसके सर्पिल स्वरूप ( spiral-like character ) की अवधारणा से परिचित होलें।

गति ( motion ) के एक विशेष प्रकार के रूप में, विकास की विशेषताएं उसके आंतरिक स्रोत तथा रूप ही नहीं, बल्कि उसकी दिशा भी है। विश्व में होनेवाले परिवर्तनों की एक निश्चित दिशा होने का विचार प्राचीन काल में उत्पन्न हुआ। कई चिंतक इतिहास को एक ही धरातल पर होनेवाले अनुवृत्तों का एक क्रम समझते थे। उन्होंने सोचा कि विकास एक सरल रेखा में, जन्म से प्रौढ़ता की, बुढ़ापे और मृत्यु की ओर चलता है और फिर सब कुछ नये सिरे से शुरू होता है। कभी-कभी गति को एक ऐसे बंद वृत्त के अंदर, एक ऐसे अंतहीन परिपथ में होनेवाला परिवर्तन माना जाता था, जिसमें हर वस्तु अपने प्रथम प्रस्थान-बिंदु पर फिर-फिर वापस लौटती है।

प्राचीन यूनानी गणितज्ञ और दार्शनिक पायथागोरस  और उसके शिष्यों ने एक सिद्धांत की रचना की, जिसके अनुसार प्रत्येक ७६,००,००० वर्ष बाद हरेक वस्तु पूर्णरूपेण अपनी ही भूतकालीन अवस्था में वापस आ जाती है। अफ़लातून  और अरस्तू  भी यह सोचते थे कि समाज का विकास एक वृत्ताकार पथ में आवर्ती ( recurring ) अवस्थाओं से गुजरते हुए होता है। प्राचीन चीनी दार्शनिक दोङ्‍ जोङ्‍ शू  का कहना था कि इतिहास चक्रों में आवर्तित होता है। १७वीं सदी के इतालवी चिंतक जियोवानी बतिस्ता वीको  ने इस परिपथ का एक विशेष सिद्धांत पेश किया, जिसके अनुसार समाज चक्रों में विकसित होता है, जिनमें प्रत्येक चक्र समाज के संकट तथा ह्रास में समाप्त होता है और उसके बाद सर्वाधिक आदिम रूप से प्रारंभ करते हुए एक नया चक्र शुरू हो जाता है।

इस तरह, अधिभूतवादी दृष्टिकोण ( metaphysical standpoint ) से विकास या तो वृत्ताकार गति है, जिसमें सारी अवस्थाएं पुनरावर्तित ( repeated ) होती हैं, या सीधी रेखा में गति है, जिसमें पुनरावर्तन repetition ) पूर्णतः अनुपस्थित होता है, किंतु साथ ही इन अवस्थाओं के बीच कोई पारस्परिक निर्भरता नहीं होती। पुरातन ( old ) और नूतन ( new ) के संपर्क टूट जाते हैं और अतीत तथा वर्तमान भविष्य के साथ जुड़े हुए नहीं होते।

सामाजिक विकास के बारे में अन्य दृष्टिकोण भी प्रचलित थे ; मसलन यह दावा किया जाता था कि समाज प्राचीन ‘स्वर्णिम युग’ से लगातार ह्रास की, पश्चगति की स्थिति में है। इस दृष्टिकोण को माननेवालों में प्राचीन यूनानी दार्शनिक हेसिओद  तथा सेनिका  शामिल थे, वे गति को पश्चगामी ( backward ) मानते थे। उच्चतर से निम्नतर की ओर बढ़ने की हरकत के रूप में गति की व्याख्या करनेवाले ऐसे ही अन्य सिद्धांत आज के युग में भी पेश किये जाते हैं। निस्संदेह, इतिहास में ऐसी अवधियां ( durations ) भी हो सकती हैं, होती हैं जब पश्चगामी शक्तियां हावी हो जाती हैं और समाज पीछे की ओर जाने लगता है। किंतु वे मरणोन्मुख या ह्रासमान ( diminishing ) रूपों से अधिक कुछ नहीं होती हैं और उनकी सफलता केवल अस्थायी ( temporary ) होती है। समाज के विकास में, किसी तात्कालिक अवधि में भले ही हम यह पा सकते हैं कि जैसे पश्चगामिता हावी है परंतु, मानव-समाज के इतिहास की लंबी अवधियों के अनुसार देखने पर हम पाते हैं कि अंततोगत्वा नूतन, पुरातन को अटल रूप में प्रतिस्थापित कर देता है और विकास की कुल परिणामी दिशा अग्रगामी ( forward ) ही होती है।

विकास प्रगतिशील ( progressive ) होता है, यह निम्नतर से उच्चतर की, सरक से जटिलतर की ओर जाता है। प्रकृति में अजैव से जैव जगत में संक्रमण ( transition ) होता दिखाई देता है। पृथ्वी पर तापमान तथा वातावरण की दशाओं के इष्टतम ( optimal ) मेल से जीवन का उद्‍भव संभव हुआ। संचित अनुभवात्मक जानकारी की मदद से वैज्ञानिकगण यह निष्कर्ष निकालने में कामयाब हो गये कि सजीव प्रकृति का क्रमविकास ( evolution ) सरल से जटिल की ओर होता है। इस संदर्भ में जे० लामार्क  द्वारा निरुपित सिद्धांत तथा चार्ल्स डार्विन  का क्रमविकास का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है।

द्वंद्वात्मक प्रगतिशील विकास की दिशा कैसी है? विकास की दिशा से तात्पर्य देशिक विस्थापन नहीं, बल्कि गुणात्मकतः ( qualitatively ) नयी परिघटनाओं ( phenomena ) के बनने से है। विकास की दिशा पुरातन से नूतन की ओर गति है। यह एक अविपर्येय ( irreversible ) प्रक्रिया है, फलतः नूतन घटना को फिर से पूर्ववर्ती में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। इसे एक सर्पिल गति ( spiral motion ) कहा जा सकता है। यह ऊपर की ओर एक सरल रेखा में नहीं, बल्कि सर्पिल वक्र रेखा में ऐसे होता है, मानो बारंबार पुनरावर्तित हो रहा है।

एक ऊर्ध्व सर्पिल ( vertical spiral ) की किसी एक कुंडली (  loop ) में यदि हम आरंभिक स्थिति में कोई एक बिंदु ‘क’ लें, और उससे सर्पिल में आगे की तरफ़ ऊपर बढ़ाते जाये, तो हम पाते हैं कि एक कुंडली से दूसरी कुंडली में संक्रमण करता हुआ बिंदु ‘क’ एक तरफ़, तो प्रारंभिक स्थिति से इस तरह से अधिकाधिक दूर होता जायेगा, मानो वह सीधी रेखा हो और वह प्रारंभिक स्थिति पर वापस कभी नहीं लौटेगा। दूसरी तरफ़, प्रत्येक कुंडली के साथ वह एक ऐसी स्थिति से गुज़रेगा, जो प्रारंभिक स्थिति का प्रक्षेपण ( projection), उसका वस्तुतः एक पुनरावर्तन ( repetition ) सा ही होगा, परंतु ऊपरी कुंडली की स्थिति में यानि उच्च स्तर पर, यानि यह उसका आंशिक उच्च स्तरीय पुनरावर्तन जैसा होगा।

इस तरह द्वंद्वात्मक प्रगतिशील विकास का स्वरूप सर्पिल होता है ; उसमें हमेशा कुछ नूतन होता है और साथ ही पुरातन की ओर एक प्रतीयमान ( ostensibly ) वापसी भी होती है। सर्पिल रूप इस तथ्य को स्पष्ट कर देता है कि उसका प्रत्येक घुमाव वस्तुतः निचले घुमाव को दोहराता है, पर साथ ही सर्पिल के अर्धव्यास में बढ़ती तथा चक्र का विस्तृततर होना विकास के परिमाण ( quantity ) में वृद्धि तथा उसकी गति में त्वरण ( acceleration ) का द्योतक है और इस तथ्य को दर्शाता है कि यह अधिकाधिक जटिल ( complex ) होता जा रहा है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

1 टिप्पणियां:

Yogi Saraswat ने कहा…

​बेमिसाल

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