हे मानवश्रेष्ठों,
निषेध के निषेध का नियम - तीसरा भाग
निषेध का निषेध
इस बार इतना ही।
समय
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने द्वंद्ववाद के नियमों के अंतर्गत तीसरे नियम ‘निषेध के निषेध का नियम’ पर चर्चा करते हुए ‘द्वंद्वात्मक निषेध’ को समझने का प्रयास किया था, इस बार हम ‘निषेध के निषेध’ की अवधारणा पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़
समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र
उपस्थित है।
निषेध के निषेध का नियम - तीसरा भाग
निषेध का निषेध
विकास प्रक्रिया ( development process ) की दार्शनिक व्याख्या में द्वंद्वात्मक निषेध ( dialectical negation ) को ही, केवल निषेध
( negation ) ही कह दिया जाता है, परंतु इसका विशिष्ट अभिप्राय यही होता
है। निषेध के सबसे महत्त्वपूर्ण अनुगुण ( properties ) और विशिष्ट लक्षण
क्या हैं?
सबसे पहले, निषेध सार्विक
( universal ) है। यह प्रकृति और समाज में, किसी भी विकास में अंतर्भूत (
immanent ) होता है, ऐसे विकास का एक आवश्यक पहलू है। जैव प्रकृति में
शताब्दियों के दौरान हुए विकास में, पुरानी जैविक जातियां उन नयी जातियों
से निषेधित हो जाती हैं, जो पुरानी जातियों की बुनियाद पर पैदा होती हैं
और उनसे अधिक जीवनक्षम ( sustainable ) होती हैं। समाज के ऐतिहासिक विकास
की प्रक्रिया में नये और उच्चतर समाजों द्वारा पुरानों का प्रतिस्थापन है
- आदिम-सामुदायिक समाज का दास-प्रथा वाले समाज से, दास-प्रथा वाले समाज का
सामंती से, सामंती समाज का पूंजीवादी समाज से और पूंजीवादी समाज का
समाजवादी समाज से। संज्ञान के क्षेत्र में भी, कुछ वैज्ञानिक प्रस्थापनाएं
उन अन्य प्रस्थापनाओं के लिए स्थान छोड़ देती हैं, जिनमें वास्तविकता (
reality ) के संपर्कों का अधिक सही परावर्तन ( reflection ) होता है।
दूसरे, निषेध विरोधियों ( opposites ) की एकता व संघर्ष में अंतर्निहित
है। एक अंतर्विरोध ( contradiction ) के विरोधी पक्षों का भिन्न-भिन्न
महत्त्व होता है और वे किसी वस्तु या घटना के विकास में भिन्न-भिन्न
भूमिकाएं अदा करते हैं। इनमें एक वस्तु या घटना को परिवर्तित करने की और
संधान ( colligation ) में होता है और फलतः प्रगतिशील भूमिका (
progressive role ) अदा करता है। दूसरा वस्तु या घटना के स्थायित्व को
व्यक्त करता है और इसलिए रूढि़पंथी भूमिका ( orthodox, conservative role
) अदा करता है। निषेध उस आंतरिक अंतर्विरोध का समाधान है, क्योंकि उसमें
पुरातन, रूढिपंथी पक्ष पर काबू पा लिया जाता है और नूतन, प्रगतिशील पक्ष
प्रभावी हो जाता है।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि निषेध के बिना कोई विकास
नहीं होता। कोई भी, किसी भी क्षेत्र में अस्तित्व के अपने पूर्ववर्ती
रूपों का निषेध किये बगैर विकसित नहीं हो सकता है। द्वंद्वात्मक निषेध का
एक महत्त्वपूर्ण लक्षण यह है कि यह किसी भी विकास-प्रक्रिया में ही अंतर्निहित ( inherent ) होता है और कभी भी बाह्य या बाहर से समाविष्ट ( incorporated ) किया हुआ नहीं होता।
इस द्वंद्वात्मक निषेध
की प्रक्रिया क्या है? यदि बीज से उत्पन्न पौधे के नीचे ज़मीन खोदी जाए तो
बीज वहां नहीं मिलेगा। वह कहां गया? नये पौधे की पैदा होने की प्रक्रिया
में पहले छोटी-छोटी हरी पत्तियां और नन्हीं-नन्हीं जड़ें उस सामग्री से
बनती हैं, जो बीज में मौज़ूद रहती हैं। इस पौष्टिक सामग्री को ढके रहने
वाला बाहरी छिलका सचमुच नष्ट हो जाता है और नई वनस्पति की संरचना में
शामिल नहीं होता। इस प्रकार बीज के विलोपन की प्रक्रिया में हालांकि एक
भाग नष्ट हो जाता है, मगर दूसरा, महत्त्वपूर्ण भाग परिवर्तित रूप में
सुरक्षित रहता है : वे अंकुर में परिवर्तित हो जाते हैं। फिर ज्यों ही
नन्हीं सी जड़े प्रकट होती हैं, वे आसपास की मिट्टी से अपने लिए पौष्टिक
पदार्थ लेने लग जाती हैं, पत्तियां भी हिस्सा लेने लगती हैं और इस तरह एक
पौधा प्रकट हो जाता है, जो निश्चित ही बीज का निषेध है। लुप्त बीज की जगह
पैदा हुए इस पौधे में बीज से लिए गए पदार्थ ही नहीं, बल्कि आसपास की
मिट्टी से लिए गए पदार्थ भी मौज़ूद होते हैं।
द्वंद्वात्मक निषेध में आंतरिक कारक
( internal factors ) निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। परंतु उसकी तैयारी के
क्रम में, बाह्य कारकों ( external factors ) की भी काफ़ी बड़ी भूमिका हो
सकती है। मसलन, अपर्याप्त गर्मी या नमी बीज के विकास को तथा अंकुरित होकर
उगनेवाले पौधे से उसके निषेध को विलंबित ( delayed ) कर सकती है या रोक भी
सकती है। द्वंद्वात्मक निषेध पुरातन ( old ) का विलोपन ही नहीं करता,
बल्कि नूतन ( new ) को प्रभावी भी बनाता है। पुरातन नूतन द्वारा कभी भी
पूर्णतः नष्ट नहीं किया जाता, द्वंद्वात्मक निषेध पुरातन के सकारात्मक
तत्वों को संरक्षित ( preserved ) रखता है और अतीत के विकास की उपलब्धियां
नूतन द्वारा स्वांगीकृत ( assimilated ) हो जाती हैं। द्वंद्वात्मक निषेध का सार
यही है कि निषेध किए गये चरण में से कुछ छोड़ दिया जाता है, कुछ ग्रहण कर
लिया जाता है ( चाहे परिवर्तित रूप में ही सही ) और कुछ ऐसा नया जोड़ा जाता
है, जो पहले बिल्कुल नहीं था।
एक जीव नस्ल के विलोपन और उसके स्थान
पर दूसरी नस्ल के आविर्भाव की प्रक्रिया में भी ये तीन तत्व प्रत्यक्षतः
पाए जाते हैं। जीवों तथा वनस्पतियों की असंख्य जातियों का, जो करोड़ों
वर्षों तक एक दूसरे का स्थान लेती रहीं, अध्ययन करने के बाद भी
जीवाश्मविज्ञानियों को इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है कि कोई जाति एक बार
विलुप्त हो जाने के बाद पुनः उत्पन्न हुई हो। प्रकृति में पूरी तरह आवृति
किसी की नहीं होती। यद्यपि बाद में उत्पन्न जातियों में लुप्त जातियों के
कुछ लक्षण होते हैं, फिर भी वे हमेशा अपने पूर्वजों के कुछ लक्षणों से
वंचित और कुछ सर्वथा नये लक्षणों से युक्त होती हैं। लंबी अवधियों में इन
भिन्न लक्षणों का संचय ( accumulation ) पुनः नयी जातियों के आविर्भाव का
कारण बनता है। वैज्ञानिक तथ्य इस तत्वमीमांसीय दृष्टिकोण का पूर्णतः खंडन
करते हैं कि विकास बारंबार आरंभिक बिंदु पर पहुंचनेवाले एकसमान चक्रों की
पुनरावृत्ति, अर्थात चक्राकार गति है।
समाज के विकास में भी नये
चरण के आविर्भाव का मतलब पुराने समाज के सभी लोगों, उनके द्वारा निर्मित
सभी तकनीकों तथा उनके द्वारा अर्जित सभी जानकारियों का विलोपन नहीं है।
यदि सब नष्ट हो जाता है, तो सामाजिक विकास का नया चरण शुरू न होता। नये चरण के समारंभ के लिए आवश्यक है, पुरानी, अनुपयोगी सामाजिक रीतियों, उनके रक्षक राज्य तथा उनकी समर्थक विचारधारा का उन्मूलन ( abolition ), पुराने लोगों का नये समाज में सम्मिलन ( inclusion ) और पूर्ववर्ती चरण में प्राप्त उत्पादन-तकनीकी उपलब्धियों एवं वैज्ञानिक जानकारियों का समुचित उपयोग, गुणात्मक रूप से भिन्न नये उत्पादन संबंधों, नये राज्य तथा नयी विचारधारा का निर्माण ( construction ) और विज्ञान तथा तकनीक की नयी उपलब्धियों के आधार पर अधिक विकसित उत्पादक शक्तियों का सृजन ( creation )।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विकास की प्रक्रिया में कोई भी चरण शाश्वत नहीं है। हर चरण देर-सवेर ख़त्म हो जाता है और अगले चरण द्वारा उसका ‘निषेध’ कर दिया जाता है। द्वंद्वात्मक निषेध
( किसी वस्तु या प्रक्रिया के स्वभावगत नियमों के अनुसार होने वाला विकास
के चरणों का परिवर्तन ) निषेध किए गये चरण के कालातीत लक्षणों का विलोपन
ही नहीं, अपितु उसके कुछ लक्षणों का सुरक्षित रहना और साथ ही ऐसे नये
लक्षणों का आविर्भाव भी है, जो पहले कतई नहीं थे। इन्हीं सब कारणों से
विकास के चरणों का परिवर्तन अग्रगामी
होता है। यद्यपि कोई भी चरण पूरी तरह कभी नहीं दोहराया जाता, फिर भी अधिक
बाद के चरणों में काफ़ी पहले के चरणों के लक्षण बदले हुए रूप में दिखाई दे
जाते हैं, जिसके फलस्वरूप विकास सर्पिल ( spiral ) बनता है।
विकास की ऊपर वर्णित सभी विशेषताएं निषेध का निषेध
( negation of the negation ) कहलाती हैं। यानि विकास किसी भी प्रक्रिया
में केवल एक नहीं, बल्कि कई निषेधों के निषेध, यानि अनेक अनुक्रमिक (
successive ) निषेध होते हैं। वास्तव में, एक गुणात्मक अवस्था से दूसरी अवस्था में होने वाला प्रत्येक संक्रमण ( transition ) पूर्ववर्ती अवस्था का द्वंद्वात्मक निषेध होता है, जिसमें प्रत्येक मूल्यवान ( valuable ) तथा जीवंत ( viable ) चीज़ संरक्षित होती है, प्रतिधारित ( retained ) होती है और बदले हुए गुण में समाविष्ट हो जाती है। इस संरक्षण ( preservation ) और प्रतिधारण ( retention ) को ही सामान्यतः सातत्य ( continuity ) कहते हैं।
प्रत्येक नये द्वंद्वात्मक निषेध को सर्पिल की एक नयी कुंडली ( loop ) के
रूप में देखा जा सकता है। फलतः सातत्य पुरातन का सीधा-सादा पुनरावर्तन (
repetition ) नहीं है और यांत्रिक उन्मूलन ( mechanical abolition ) भी
नहीं है। यह दो विरोधी अनुगुणों की एकता का द्योतक है, अर्थात मूल्यवान
तथा जीवंत अनुगुणों के संरक्षण तथा विकास को रोक रहे गतावधिक ( outlived ) अनुगुणों का अस्वीकरण
( rejection ) है। फलतः ‘सातत्य’ एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रवर्ग है, जो
किसी भी विकासमान घटना में पुरातन और नूतन के बीच संबंध और अंतर को
परावर्तित करता है।
इस तथ्य को कि द्वंद्वात्मक निषेध एक
बहुआवर्तित ( multi-repetitive ) प्रक्रिया है, विकास की किन्हीं लंबी
प्रक्रियाओं में स्पष्टता से देखा जा सकता है। बारंबार पुनरावृत निषेध ऐतिहासिक प्रक्रियाओं में भी होता है। प्रत्येक सामाजिक-आर्थिक विरचना
( socio-economic formation ), अपनी पूर्ववर्ती विरचना का द्वंद्वात्मक
निषेध होती है। किसी भी विकासमान घटना या प्रक्रिया के सर्पिल की प्रत्येक
कुंडली या घुमाव पर नूतन जन्म लेता है, पुराना भंग होता है और साथ ही
द्वंद्वात्मक पुनरुत्पादन ( reproduction ) होता है, यानि पूर्ववर्ती
विकास में रचित हर मूल्यवान चीज़ का सातत्य होता है और आगे की उन्नति (
advance ) सुनिश्चित होती है। निषेध तथा सातत्य की द्वंद्वात्मक एकता और द्वंद्वात्मक निषेध की रचनात्मक क्रिया इसी में प्रकट होती है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय
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