शनिवार, 26 जुलाई 2014

व्यष्टिक, विशिष्ट और सामान्य ( सार्विक ) - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने ‘भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग" पर चर्चा शुरू करते हुए ‘व्यष्टिक, विशिष्ट और सामान्य ( सार्विक )’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू किया था, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
व्यष्टिक, विशिष्ट और सामान्य ( सार्विक ) - २
the individual, particular and general ( universal ) - 2

व्यष्टिक और सार्विक अंतर्संबंधित हैं। प्रत्येक व्यष्टिक ( किसी न किसी तरह ) सार्विक है। प्रत्येक सार्विक व्यष्टिक ( उसका एक टुकड़ा, या एक पहलू, अथवा उसका सार ) है। व्यष्टिक केवल उस संपर्क में अस्तित्व रखता है, जो सार्विक की ओर जाता हैसार्विक केवल व्यष्टिक में और व्यष्टिक के द्वारा अस्तित्व में आता है। सामान्य था व्यष्टिक के साथ उसके अंतर्संबंध की यह द्वंद्वात्मक-भौतिकवादी समझ वास्तविकता के सही ज्ञान के वास्ते बहुत महत्त्वपूर्ण है। सामान्य, वस्तुओं के सार ( essence ) से बद्धमूल होता है और उनकी आंतरिक एकता की एक अभिव्यक्ति होता है। यही कारण है कि वस्तुओं तथा घटनाओं के सार को तथा उनके विकास के नियमों को समझने का तरीक़ा सामान्य को समझना है। और सामान्य को केवल व्यष्टिक के द्वारा ही समझा जा सकता है।

स्वयं यथार्थता में सार्विक, विशेष तथा व्यष्टिक के बीच गहरा द्वंद्वात्मक संयोजन ( dialectical connection ) होता है। सार्विक और विशेष, व्यष्टिक में विद्यमान तथा उसके द्वारा व्यक्त होते हैं और विलोमतः कोई भी व्यष्टिक वस्तु तथा प्रक्रिया में कुछ विशेष और सार्विक विद्यमान होता है। यह उसूल ( principle ) प्रकृति, समाज तथा चिंतन में अनुप्रयोज्य ( applicable ) है। प्रत्येक पौधा तथा जंतु सामान्य जैविक नियमों के अंतर्गत होता है और साथ ही ऐसे विशिष्ट नियमों से भी संनियमित ( governed ) होता है, जो केवल उसकी प्रजातियों ( species ) के लिए ही लाक्षणिक होते हैं। इसके साथ ही साथ सार्विक और विशिष्ट, व्यष्टिक के बगैर तथा उससे पृथक ( separate ) रूप में विद्यमान नहीं होते हैं। समाज के सार्विक प्रतिमान ( general patterns ) पृथक श्रम समूहों के क्रियाकलाप में तथा उन समूहों की रचना करनेवाले व्यक्तियों के क्रियाकलाप में व्यक्त होते हैं।

एक मनुष्य, शुरू में, अपने संवेद अंगों से व्यष्टिक का, अलग-अलग घटनाओं का और उनके विविध अनुगुणों का बोध प्राप्त करता है, फिर उसका चिंतन इन अवबोधनों का विश्लेषण ( analysis ) करता है, आवश्यक को अनावश्यक से, सामान्य को व्यष्टिक से पृथक करता है। उसके बाद चिंतन, घटनाओं के एक समुच्चय के सामान्य और आवश्यक लक्षणों के संश्लेषण ( synthesis ) और सम्मेल के द्वारा इन घटनाओं के बारे में एक धारणा ( notion, concept ) बनाता है, जो घटनाओं के समुच्चय के सामान्य और साथ ही आवश्यक लक्षणों को व्यक्त करती है। कुलमिलाकर, संज्ञान की प्रक्रिया व्यष्टिक से शुरू होती है, विशिष्ट से गुजरती हुई सामान्य व सार्विक पर पहुंचती है

व्यष्टिक और सामान्य के प्रवर्ग ( categories ), नूतन ( new ) की उत्पत्ति की प्रक्रिया को समझने मे भी सहायक है। मुद्दा यह है कि नूतन प्रकृति और समाज में अक्सर तुरंत उत्पन्न नहीं होता है। शुरू में यह व्यष्टिक के रूप में पैदा होता है, फिर दृढ़ व साकार होकर विशिष्ट बन जाता है और अंततः सामान्य और सार्विक तक बन जाता है। सारे नये उपक्रम और आंदोलन इसी तरह उपजते हैं, इसी तरह से क्रांतिकारी चेतना उत्पन्न व सुदृढ़ होती है।

इस तरह से हम अब यह आसानी से समझ सकते हैं कि यदि हम ‘व्यष्टिक’ की विशषताओं की अवहेलना ( neglect ) करते है और बदलती हुई दशाओं और परिस्थितियों की परवाह किये बग़ैर ‘सामान्य’ के उपयोग पर बल देते हैं, तो हम नयी परिस्थितियों के समुचित विश्लेषण के बिना सामान्य फ़ार्मूलों को महज़ दोहराते रह जाएंगे और इस तरह जीवन तथा समाज के साथ अपने संपर्कों से हाथ धो बैठ सकते हैं। सामान्य की भूमिका से इन्कार तथा विशिष्ट और व्यष्टिक पर अनुचित ज़ोर देने से भी ऐसी ही गंभीर ग़लतियां हो सकती हैं। इसलिए व्यष्टिकता और सामान्यता के द्वंद्व को समुचित रूप से हल करके ही हम जीवन और समाज में सफल हस्तक्षेपों ( interventions ) के वाहक हो सकते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

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