शनिवार, 23 अगस्त 2014

आभास और सार - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्गों के अंतर्गत ‘आभास और सार’ के प्रवर्गों को समझने का प्रयास शुरू किया था, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



भौतिकवादी द्वंद्ववाद के प्रवर्ग
आभास और सार - २
( Appearance and Essence ) - 2

स्वयं यथार्थता ( reality ) में सार और आभास अलग-अलग अस्तित्वमान ( existing ) नहीं होते। कहा गया है कि सार आभासित होता है और आभास सारभूत है। इसका मतलब यह हुआ कि आंतरिक, छुपा हुआ पक्ष हमेशा बाह्य के ज़रिये खोजा जाता है, प्रेक्षण के लिए सुलभ होता है, जबकि बाह्य, आंतरिक से संचालित होता है और उसका कारण उसी में निहित होता है। साथ ही प्रवर्ग "सार" और "आभास" संज्ञान ( cognition ) की अवस्थाओं के संपर्क और निर्भरता को व्यक्त करते हैं। आभास मानवीय संवेद अंगों पर प्रत्यक्ष ( direct ) प्रभाव डालता है और उनके द्वारा परावर्तित होता है अतएव आभास का संज्ञान, संवेदनात्मक ज्ञान ( sensory knowledge ) और जीवित अनुध्यान ( live contemplation ) से होता है। परंतु सार वस्तुओं, प्रक्रियाओं या उनके संबंधों की सतह ( surface ) पर कभी प्रकट नहीं होता, बल्कि विषयी के लिए आभास की आड़ में छिपा होता है और इस तरह से संवेदात्मक अवबोधन के लिए अलभ्य ( unavailable ) होता है। यही कारण है कि सार को संकल्पनाओं ( concepts ) तथा निर्णयों ( judgments ) के ज़रिये अमूर्त चिंतन ( abstract thinking ) की अवस्था में खोजा और समझा जाता है। संज्ञान हमेशा आभास से सार की ओर, वस्तुओं के बाह्य पक्ष से उनके बुनियादी नियमबद्ध संपर्कों की ओर जाता है।

इस विश्व की कोई भी चीज़, सार और आभास की एकता होती है। यह एकता इस तथ्य में व्यक्त होती है कि पहला, वे एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं और उन्हें केवल मन ही मन में पृथक ( separate ) किया जा सकता है। दूसरा, उनकी एकता इस तथ्य में प्रकट होती है कि विकास की वास्तविक प्रक्रिया में वे एक दूसरे में रूपांतरित ( transformed ) हो जाते हैं। तीसरा, सार और आभास की एकता उनके परिवर्तन की वस्तुगत अंतर्निर्भरता ( interdependence ) में प्रकट होती है। विकास के दौरान सार में होनेवाला कोई भी परिवर्तन अवश्यंभाव्यतः ( inevitably ) आभास को और विलोमतः आभास में परिवर्तन, सार को बदल देता है। लेकिन सार और आभास की एकता सापेक्ष ( relative ) है और इसका तात्पर्य है उनमें भेद और उनकी प्रतिपक्षता ( oppositeness ) भी। सार और आभास के बीच अंतर्विरोध इस बात में मुख्यतः व्यक्त होता है कि वे पूर्णतः मेल नहीं खाते हैं, क्योंकि वे एक वस्तु के अलग-अलग पक्षों को परावर्तित करते हैं। यदि वस्तुओं का सार उनकी अभिव्यक्तियों से पूर्णतः मेल खाता, तो संज्ञान इतनी लंबी और जटिल प्रक्रिया न होता और विज्ञान अनावश्यक हो जाता।

दर्शन की प्रत्ययवादी ( idealistic ) धाराएं दावा करती हैं कि हम केवल आभास को ही जान सकते हैं, यानि संवेद अंगों के ज़रिये यह जान सकते हैं कि चीज़ें हमें कैसी आभासित होती हैं। हम वस्तुओं के सार को नहीं जान सकते ( जिसे कि जैसे कांट ने "वस्तु निज रूप" कहा था )। इस तरह कहा जाता है कि "वस्तु निज रूप" ( thing-in-itself ) अज्ञेय ( unknowable ) है। परंतु इससे एक अंतर्विरोधी प्रश्न पैदा होता है कि अगर उसका संज्ञान पाना असंभव है, तो यह कैसे कहा जा सकता है "वस्तु निज रूप" वस्तुगत रूप से विद्यमान है। इसके समाधान के लिए प्रत्ययवाद आस्था का, संवेदनात्मक ज्ञान से परे खड़ी किसी सर्वोच्च तर्कबुद्धि ( supreme reason ) का सहारा लेने की कोशिश करता है और कहता है कि हम "निज रूप वस्तुओं" के अस्तित्व को इसलिए जानते हैं कि हम उन पर विश्वास करते हैं। इस तरह आभास और सार के बीच एक अपारगम्य खाई ( impassable gulf ) बना दी जाती है।

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का संज्ञान सिद्धांत, आधुनिक विज्ञान तथा अनुभव पर आधारित होने की वजह से, यह मानता है कि अज्ञेय "निज रूप वस्तुओं" का अस्तित्व नहीं होता है। यह विश्व और इसकी घटनाएं ज्ञेय हैं। केवल ऐसी विविध वस्तुओं, घटनाओं और प्रक्रियाओं का अस्तित्व होता है जिनका संज्ञान किया जा सकता है, और जो पूर्णतः ज्ञेय नहीं हैं उन्हें उस हद तक जाना जा सकता है, जिस हद तक हमारे व्यावहारिक और संज्ञानात्मक क्रियाकलाप गहन और विस्तृत होते हैं। संज्ञान के दौरान हम लगातार आभास से सार की ओर, किन्हीं सापेक्ष सत्यों से अन्य अधिक गहरे सत्यों की ओर जाते हैं, व्यवहार में उन्हें निरंतर परखते हैं और ग़लत व असत्य निर्णयों को निर्ममता से ( ruthlessly ) ठुकरा देते हैं।

वास्तविक जगत की वस्तुएं तथा घटनाएं अकेली-दुकेली नहीं होती, बल्कि अंतर्संबंधों के साथ अस्तित्व में होती हैं और उन अंतर्संबंधों के बाहर उनमें से किसी को भी समझना असंभव है। किसी वस्तु का अन्य के साथ अंतर्संबंध में अध्ययन करने का अर्थ है उसकी उत्पत्ति के कारण का पता लगाना, इसलिए अगली बार हम कार्य-कारण संबंध के प्रवर्गों पर विचार करेंगे।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय

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