हे मानवश्रेष्ठों,
अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा - १
( epistemology of agnosticism - 1 )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत विश्व की ज्ञेयता के बारे में एक बातचीत प्रस्तुत की थी, इस बार हम अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा पर एक संक्षिप्त विवेचना की शुरुआत करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा - १
( epistemology of agnosticism - 1 )
विश्व की ज्ञेयता ( knowability ) के प्रश्न के उत्तर के अनुसार सारे दार्शनिक मुख्यतः दो प्रवृत्तियों
में विभाजित हो जाते हैं। एक प्रवृत्ति में विश्व की ज्ञेयता के समर्थक
शामिल हैं, दूसरी प्रवृत्ति में इस ज्ञेयता के विरोधी शामिल हैं, जो यह
मानते हैं कि विश्व पूर्णतः या अंशतः अज्ञेय ( unknowable ) है। विश्व की
ज्ञेयता के विरोधियों को सामान्यतः अज्ञेयवादी ( agnostic ) कहते हैं। अज्ञेयवाद, यूनानी दर्शन में संशयवाद
( scepticism ) के रूप में उत्पन्न हुआ और उसे ह्यूम तथा कांट के दर्शन
में क्लासिकीय रूप प्राप्त हुआ। इसकी एक क़िस्म चित्रलिपियों ( अथवा
प्रतीकों ) का सिद्धांत ( theory of hieroglyphs or symbols ) है। नवप्रत्यक्षवाद ( neo-positivism ) और अस्तित्ववाद ( existentialism ) तथा कई अन्य धाराओं के प्रतिनिधि भी यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि विश्व तथा मनुष्य को जानना असंभव है।
अज्ञेयवाद, विश्व की ज्ञेयता से इंकार करता है। अनुभूतियों
( sensations ) को हमारे समस्त ज्ञान का स्रोत मानते हुए अज्ञेयवादी कहते
हैं : यदि हमारी अनुभूतियां, हमारे इन्द्रियबोध ( senses ) वास्तविक
घटनाओं से मेल खाते हैं, तो हमारा ज्ञान सही है। यदि हमारी अनुभूतियां और
इन्द्रियबोध वस्तुओं के वास्तविक रूप के अनुरूप नहीं है, तो हमारे ज्ञान
को भ्रामक ही मानना होगा। किंतु क्या किसी वस्तु के इन्द्रियजन्य अवबोध और
स्वयं इस वस्तु के बीच तुलना की जा सकती है? "मस्तिष्क के सामने
इन्द्रियबोधों के अलावा और कोई वस्तुएं नहीं होतीं। मस्तिष्क
इन्द्रियबोधों और वस्तुओं के सहसंबंधों ( correlations ) के बारे में कोई
भी प्रयोग करने में बिल्कुल असमर्थ है," प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक डेविड ह्यूम ( १७११-१७७६ ) ने लिखा था।
इनके अनुसार हमारी अनुभूतियों की शून्य से तुलना करना और इसकी जांच करना असंभव है कि अनुभूतियां उस वास्तविकता ( actuality ) के अनुरूप हैं या नहीं, जिसका वे ज्ञान करवाती हैं। इसलिए इस प्रश्न का भी उत्तर नहीं दिया जा सकता कि अनुभूतियां विश्व का प्रतिबिंबन ( imaging ) करती हैं या वे मात्र भ्रांतियां ( misconception ) ही हैं। हो सकता है कि हमसे बाहर ऐसी वस्तुओं का अस्तित्व हो, जिनमें वे ही गुण हैं, जिनकी सूचना अनुभूतियां देती हैं। साथ ही यह भी सर्वथा संभव है कि ऐसी कोई वस्तुएं हैं ही नहीं। इसलिए अज्ञेयवादी कहते हैं कि इस प्रश्न पर संशयों से मुक्त हो पाने और उसका समाधान प्रस्तुत करने की सामर्थ्य लोगों में नहीं है।
इनके अनुसार हमारी अनुभूतियों की शून्य से तुलना करना और इसकी जांच करना असंभव है कि अनुभूतियां उस वास्तविकता ( actuality ) के अनुरूप हैं या नहीं, जिसका वे ज्ञान करवाती हैं। इसलिए इस प्रश्न का भी उत्तर नहीं दिया जा सकता कि अनुभूतियां विश्व का प्रतिबिंबन ( imaging ) करती हैं या वे मात्र भ्रांतियां ( misconception ) ही हैं। हो सकता है कि हमसे बाहर ऐसी वस्तुओं का अस्तित्व हो, जिनमें वे ही गुण हैं, जिनकी सूचना अनुभूतियां देती हैं। साथ ही यह भी सर्वथा संभव है कि ऐसी कोई वस्तुएं हैं ही नहीं। इसलिए अज्ञेयवादी कहते हैं कि इस प्रश्न पर संशयों से मुक्त हो पाने और उसका समाधान प्रस्तुत करने की सामर्थ्य लोगों में नहीं है।
ह्यूम के पूर्ववर्ती, आत्मपरक प्रत्ययवादी ( subjective idealistic ) बर्कले
भी अनुभूतियों को ज्ञान का एकमात्र स्रोत कहते थे, यद्यपि साथ ही अपने इस
विश्वास के कारण कि बाह्य परिवेश की वस्तुएं अनुभूतियों की संहति हैं, वह
ईश्वर की सत्ता को अनुभूतियों पर निर्भर नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में
ईश्वर ही अनुभूतियों का स्रोत था। इसी में बर्कले ने अपने मत में निहित
विरोधाभास ( paradox ) दिखाया, क्योंकि वह अनुभूतियों के स्रोत ( ईश्वर )
को स्वयं अनुभूतियों से बाहर मानते थे।
यहां पर ह्यूम का बर्कले से
मतभेद हो जाता है। ह्यूम न केवल अनुभूतियों को समस्त ज्ञान का स्रोत मानते
हैं, मगर साथ ही, प्रत्ययवादी होने के बाबजूद, ईश्वर की सत्ता से भी इंकार
करते हैं। ह्यूम के अज्ञेयवाद का यह पक्ष शुरू में प्रकृतिविज्ञानियों
को पसंद आया, क्योंकि वह धर्मशास्त्रियों के हमलों से उनके बचाव का साधन
बन सकता था। किंतु शीघ्र ही उनमें से सर्वाधिक सूक्ष्म दृष्टिवालों ने जान
लिया कि अज्ञेयवाद विज्ञान से मेल नहीं खाता : विज्ञान का मुख्य उद्देश्य परिवेशी विश्व का ज्ञान प्राप्त करना है, जबकि अज्ञेयवाद यथार्थ विश्व की ज्ञेयता से ही इनकार करता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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