शनिवार, 10 जनवरी 2015

ज्ञान के स्रोतों के बारे में एक वार्ता

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत  परावर्तन के रूप में संज्ञान को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम ज्ञान के स्रोतों के बारे में विभिन्न दार्शनिक मतों के बीच एक वार्ता प्रस्तुत करेंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



ज्ञान के स्रोतों के बारे में एक वार्ता
( a talk about the sources of knowledge )

दार्शनिकगण इस बात पर प्राचीनकाल से ही विचार करते रहे हैं कि ज्ञान के स्रोत क्या हैं और यथार्थता ( reality ) के ज्ञान का समारंभ कहां से होता है। कालान्तर में दो सुस्पष्ट प्रवृत्तियां बन गयीं, अर्थात अनुभववाद ( empiricism ) तथा तर्कबुद्धिवाद ( rationalism )। अनुभववाद के समर्थक संवेदनों ( sensations ) तथा उन पर आधारित अनुभवों ( experiences ) को ज्ञान का स्रोत समझते हैं। तर्कबुद्धिवादियों का विचार है कि ज्ञान स्वयं मनुष्य की तर्कबुद्धि ( reason ) से, सोचने की क्षमता से उपजता है। उनके कथनानुसार, यह क्षमता मनुष्य में प्रारंभ से ही अंतर्निहित ( inherent ) होती है। संवेदनवाद ( sensualism ), अनुभववाद के साथ घनिष्ठता से जुड़ा है; इसके प्रवक्ता संज्ञान के सैद्धांतिक व अमूर्त रूपों के महत्त्व से अक्सर इनकार करते हैं और ज्ञान को संवेदनों तक सीमित कर देते हैं। संवेदनवादियों के बीच कई भौतिकवादी ( materialists ) थे, जो यह समझते थे कि संवेदन बाह्य जगत के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं, लेकिन संवेदनवाद का उग्र रूप यह मान लेता है कि एकमात्र यथार्थता संवेदन है, फलतः वे आत्मगत प्रत्ययवाद ( subjective idealism ) तथा अज्ञेयवाद ( agnosticism ) पर जा पहुंचते हैं।

अनुभववादियों तथा तर्कबुद्धिवादियों की दलीलों और दृष्टिकोण से परिचित होने के लिए हम यहां एक अनुभववादी, एक तर्कबुद्धिवादी तथा एक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी ( dialectical materialist )  के बीच एक काल्पनिक वार्ता को समझने की कोशिश करते हैं :

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अनुभववादी - किसी भी सामान्य व्यक्ति से पूछिये कि उसे यह कैसे मालूम कि गुलाब लाल होता है और मधुर सुगंध देता है, तो वह अपने संवेदनों का हवाला देगा। मैं एक लाल फूल देखता हूं, उसकी सुगंध को महसूस करता हूं। फलतः संवेदन ही ज्ञान के सच्चे स्रोत हैं।

तर्कबुद्धिवादी - लेकिन असल बात यह है कि हमारा वास्ता सिर्फ़ उससे नहीं है, जिससे संवेद ग्रहण किये जा सकते हैं और जिसका प्रेक्षण ( observation ) हो सकता है। मसलन, हमें इस तथ्य का ज्ञान कहां से प्राप्त होता है कि एक त्रिभुज के तीन कोणों का योग दो समकोणों के बराबर होता है, मूल कणों का या सामाजिक विकास के नियमों का ज्ञान कहां से प्राप्त होता है? हम उन्हें देख नहीं सकते, सूंघ नहीं सकते और उनको महसूस नहीं कर सकते।

अनुभववादी - हम कई भिन्न-भिन्न त्रिकोण बना सकते हैं, उनके कोणों को कई बार माप सकते हैं और फिर सामान्यीकरण ( generalization ) करके आंतरिक कोणों के योग के बारे में एक प्रमेय ( theorem ) का निरूपण कर सकते हैं। जहां तक मूल कणों ( elementary particles ) का संबंध है, हम विभिन्न उपकरणों के संकेतों और प्रमाणों ( evidence ) को देखते हैं और उसके जोड़ को एक मामले में इलैक्ट्रोन तथा दूसरे में प्रोटोन, तीसरे में पोज़ीट्रोन, आदि कहते हैं। केवल उपकरणों की सुइयों के संवेद प्रभावों का ही वास्तविक अस्तित्व होता है और ‘इलैक्ट्रोन’, ‘प्रोटोन’, आदि संकल्पनाएं ( concepts ) इन संवेदनों के द्योतक ( signifying ) शब्द मात्र हैं। जहां तक सामाजिक विकास के नियमों का संबंध है, वे भी ऐसी संकल्पनाएं है जो विविध संवेदों के प्रभावों का सामान्यीकरण करती हैं। इन शब्दों की कोई और वास्तविकता नहीं है और इस बात को ईमानदारी से मान लेना चाहिए।

तर्कबुद्धिवादी - किंतु ऐसी हालात में हम विभिन्न संवेदनों के बंदी भर बनकर रह जाते हैं। उनके बीच निश्चय ही अनेक त्रुटियां होंगी। हम जानते हैं कि विभिन्न प्रकार के मतिभ्रम ( hallucinations ) होते हैं, चाक्षुष भ्रांतियां ( optical illusions ) होती है, सुनने की ग़लतियां होती हैं, आदि। यदि हम उन सब पर विश्वास करें, तो हम लगातार अंतर्विरोधों ( contradictions ) में उलझे रहेंगे। प्रश्न यह है कि हम वास्तविक संवेदनों को मिथ्या संवेदनों से विभेदित ( distinguish ) कैसे कर सकते हैं? कुछ संवेदनों को दूसरे वैसे ही अविश्वसनीय संवेदों से कैसे अलग किया जा सकता है?

द्वंद्वात्मक भौतिकवादी - ( संवाद में भाग लेते हुए ) यहां यह बात जोड़ना जरूरी है कि विज्ञान तथा दैनिक जीवन में ऐसे अनेक कथन ( statement ) तथा संकल्पनाएं हैं, जिन्हें किसी भी सरल तरीक़े से संवेद प्रत्यक्षों ( sense perceptions ) या संवेदनों ( sensations ) में परिणत नहीं किया जा सकता है। मसलन, भौतिकी में हम कहते हैं कि प्रकाश का वेग ३ लाख किलोमीटर प्रति सेकंड है। हम यह तो समझ सकते हैं कि यह क्या है, किंतु हमारे संवेद अंग ऐसी गति के बोध के लिए अक्षम हैं, क्योंकि हमारे अंग इसके लिए अनुकूलित ( adapted, conditioned ) नहीं है। हम जानते हैं कि रंगाध ( colour-blind ) लोग लाल और हरे रंग में फ़र्क नहीं कर सकते। किसके संवेदों पर यक़ीन किया जाये? गणित में बहुआयामीय देश ( multidimensional space ) में आकृतियों के बारे में प्रमेयों को प्रमाणित किया जाता है, किंतु इन प्रमेयों के बिल्कुल सटीक होने के बावजूद ऐसे देश की संवेदनात्मक छवि ( sensory image ) की रचना करना असंभव है।

अनुभववादी - परंतु ऐसे प्रमेयों का क्या महत्त्व जिन्हें संवेदनों में परिणत नहीं किया जा सकता?

द्वंद्वात्मक भौतिकवादी - उनके तथा संवेदों में परिवर्तित नहीं किये जा सकने वाले अन्य कथनों के ज़रिये कई महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक परिणाम हासिल किये जा सकते हैं और भौतिक व रासायनिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित किया जा सकता है। ऐसा ही सामाजिक विज्ञानों में भी होता है। यदि ‘सामाजिक विकास के नियम’ जैसी संकल्पना संवेदनों के एक समुच्चय का नाम भर होती, तो संवेदनों में फेर-बदल करके उनसे छुटकारा पाना आसान होता। किंतु मुद्दा यह है कि समाज का विकास, अलग-अलग लोगों के संकल्प ( will ) व चेतना, संवेदनों व अनुभवों से स्वतंत्र रूप में होता रहता है।

तर्कबुद्धिवादी - इस हालत में मैं यह सुझाता हूं कि ज्ञान का स्रोत मनुष्य की तर्कबुद्धि ( reason ) को समझा जाना चाहिए।

अनुभववादी - इसका क्या मतलब?

तर्कबुद्धिवादी - हमें यह मानना चाहिए कि मनुष्य में सोचने की अंतर्जात ( inborn ) क्षमता होती है। वह ईश्वर या प्रकृति द्वारा उसके मन में बैठाये हुए विश्व के आधारभूत, गहन ज्ञान की खोज करने में समर्थ है। उदाहरण के लिए, देकार्त का विचार था कि इस ज्ञान की रचना ईश्वर ने की है, जबकि भौतिकवादी स्पिनोज़ा इसे भौतिक पदार्थ का परिणाम या नतीजा समझते थे। बात जो भी हो, जब हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसका अन्वेषण ( invent ) व खोज करते हैं, तो हम तर्कशास्त्र के नियमों के द्वारा उससे अन्य सभी कुछ निगमित ( deduce ) कर सकते हैं और जिस हद तक वह विश्व से संबंधित है, उसे प्रयोगों से या प्रेक्षणों से परख सकते हैं। मुख्य बात है बूंद-बूंद कर, क़दम-ब-क़दम, संगत रूप से ( consistently ) तथा आनुक्रमिक ढंग से ( consecutively ), किसी बात को नज़रअंदाज़ किये बग़ैर ज्ञान को व्युत्पन्न ( derive ) करना।

अनुभववादी - इस तरह से तो कोई भी मिथकीय दंतकथा ( mythical legend ) निश्चय ही विज्ञान कही जा सकती है। किसी भी कपोल-कथा ( fairytale ) या आस्था की कल्पना को स्वीकार करने के लिए जादूगरों, झाड़ुओं पर बैठी उड़ान भरती जादूगरनियों, आदि के बारे में संगत और तार्किक ढंग से बातें करना और यह कह देना ही काफ़ी है कि आपने अपने प्रारंभिक ज्ञान को अपने मन में देखा था।

तर्कबुद्धिवादी - लेकिन मैंने तो प्रयोगों ( experiments ) और प्रेक्षणों से जांचने की बात भी कही थी।

अनुभववादी - आप इस मामले में असंगत ( inconsistent ) हैं, क्योंकि आपने ख़ुद यह भी कहा था कि संवेदन और फलतः उन पर आधारित प्रेक्षण भ्रामक ( deceptive ) हो सकते हैं। मेरी यह समझ में नहीं आता कि तर्कबुद्धिवाद से क्या फ़ायदे हासिल होते हैं।

द्वंद्वात्मक भौतिकवादी - दरअसल आप दोनों के दृष्टिकोण एकतरफ़ा है और देर-सवेर वे दोनों प्रत्ययवाद पर पहुंचा सकते हैं। संवेदनों को ज्ञान का एकमात्र स्रोत बताकर अनुभववाद, अज्ञेयवाद की तरफ़ सरकता जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि संवेदनों के पीछे कुछ नहीं हो और भौतिक जगत लापता हो जाये। तर्कबुद्धिवाद भी वस्तुगत प्रत्ययवाद ( objective idealism ) की तरफ़ ले जाता है, क्योंकि यह ऐसे शाश्वत ( eternal ), अंतर्जात ज्ञान के अस्तित्व को मान्यता देता है, जो वास्तविक सामाजिक दशाओं पर या लोगों के भतपूर्व अनुभव और व्यावहारिक क्रियाकलाप पर निर्भर नहीं होता।

अनुभववादी - फिर आप क्या कहते हैं?

द्वंद्वात्मक भौतिकवादी - दोनों दृष्टिकोण संवेदनात्मक ( आनुभविक ) तथा बौद्धिक ज्ञान के विच्छेदन तथा एक को दूसरे के मुक़ाबले में खड़ा करने का परिणाम है। लेकिन मुख्य त्रुटि यह है कि आप सारे ज्ञान पर सरलीकृत दोसदस्यीय रूप आरोपित कर रहे हैं, अर्थात ‘मनुष्य और उसके मुक़ाबले में खड़ी दुनिया’ और आप इन दो सदस्यों के बीच किसी भी संपर्क सूत्र को नहीं देख पा रहे हैं। परंतु, वास्तव में मनुष्य तथा बाह्य जगत के बीच एक जटिल संपर्क सूत्र है, जो विशेष मानव क्रियाकलाप में, यानी व्यवहार में व्यक्त होता है और यह व्यवहार है - श्रम, भौतिक उत्पादन और वस्तुओं तथा औज़ारों के साथ तरह-तरह के काम। यह व्यवहार ( practice ) ही है, जो ज्ञान का आधार और स्रोत है तथा उसकी सत्यता को परखने का साधन है

इस दृष्टिकोण की सत्यता से, स्वयं अपने को विश्वास दिलाने के लिए हमें इस बात की अधिक विस्तार से जांच करनी होगी कि ज्ञान कैसे प्राप्त होता है, यानी इसमें संवेदन क्या भूमिका अदा करता है, अपकर्षित ( अमूर्त ) संकल्पनाएं ( abstract concepts ) तथा ज्ञान कैसे उत्पन्न होते हैं और इस प्रक्रिया में लोगों के भौतिक क्रियाकलाप ( material activity ) क्या भूमिका अदा करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

6 टिप्पणियां:

Neetu Singhal ने कहा…

यह फूल है गेंदे का है इसका रंग पीला है यह सुगन्धित फूल है यह कौन बताता हैं माता-पिता,कुल, गुरुकुल
ज्ञान-वाणी बताती है.....

Neetu Singhal ने कहा…

यह कोमल है ज्ञानेंद्रियाँ बताती हैं इसकी माला बन सकती है यह कर्मेन्द्रियाँ बताती हैं.....

ved vyas malik ने कहा…

Anubhac aur tark, aadi kal se santo aur vaigyoniko ke beech shodh chal raha he.Upnashid anubhavo se bhare hain, mahaan sceintists ka anutha yogdan he . Vartman me budhijeevi bhi aastha ke aunbhooti ko sweekar kerte hain--gyan ka shrott

Unknown ने कहा…

आदरणीया नीतू सिंघल जी,
इस पोस्ट के संदर्भ में, आपकी इन टिप्पणियों से, जो कि बहुत ही सरलीकृत आत्मपरक कथन हैं, आपका आशय अधिक स्पष्ट नहीं हो पाया कि आप क्या अभिव्यक्त करना चाह रही हैं।
अगर कुछ स्पष्ट विस्तार हो तो ही संवाद संभव हो सकता है।
शुक्रिया।

Unknown ने कहा…

आदरणीय वेद व्यास जी,
सही है कि प्राचीन काल से ही ज्ञान का विकास होता आ रहा है, यथार्थ के प्रति हमारी समझ वस्तुगत रूप से लगातार विकसित हो रही है।
यथार्थ अस्तित्व में होता है, और यह इस बात पर निर्भर नहीं होता कि कोई क्या स्वीकार करता है, या किसी की यथार्थ ( reality ) के बारे में अपनी आत्मपरक ( subjective ) मान्यताएं क्या हैं?
यहां पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ, ज्ञान की अवधारणा और उसके विकास, तथा उसकी सत्यता की जांच-परख पद्धतियों को, वस्तुगत ( objective ) रूप से समझने की कोशिशों के लिए उपलब्ध सामग्री प्रस्तुत की ही जा रही है। आप पहले की प्रविष्टियों से भी गुजर सकते हैं, और आगे भी इनसे जुड़े रह सकते हैं।
शुक्रिया।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

हम मानते हैं कि सामान्य व्यक्ति अपने जीवन काल में ज्ञान की प्राप्ति के लिये कई प्रमाणों का सहारा लेता है - प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और ऐतिह्य । किसी भी एक प्रमाण तक ही सीमित नहीं रहा जा सकता ।

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