हे मानवश्रेष्ठों,
संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना - १
( structure of cognitive process -1 )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत ज्ञान के स्रोतों के बारे में विभिन्न दार्शनिक मतों के बीच एक वार्ता प्रस्तुत की थी, इस बार हम संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना पर चर्चा शुरू करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना - १
( structure of cognitive process -1 )
दैनिक जीवन अज्ञेयवाद ( agnosticism ) का और कुल मिलाकर प्रत्ययवाद ( idealism ) का सर्वाधिक निश्चायक खंडन
है। निस्संदेह, यदि लोग अपने इर्द-गिर्द की वस्तुओं और घटनाओं को नहीं समझ
सकते, तो वे उन्हें न तो उपयोग में ला सकते, न उन्हें संवार सकते, न
उन्हें दुरस्त कर सकते, न उनमें कोई संशोधन कर सकते, न उनमें कोई परिवर्तन
ला सकते और न ही उनका पुनरुत्पादन ( reproduction ) कर सकते थे। लोगों के
भौतिक, ठोस क्रियाकलाप ( activities ) के दौरान ही यथार्थता
( reality ) में फेर-बदल हो रहे हैं। इन क्रियाकलापों से हमारा मतलब सबसे
पहले श्रम ( labour ) के उन रूपों से है, जिनसे खाद्य व आवास और साथ ही
स्वयं श्रम-उपकरणों का उत्पादन होता है।
अपने क्रियाकलाप में मनुष्य केवल वस्तुओं को ही परिवर्तित नहीं करता, बल्कि अनुभव और ज्ञान के संचय द्वारा ख़ुद को भी रूपांतरित
( transform ) करता है। उत्पादन का अनुभव प्राकृतिक विज्ञानों को जन्म
देता है। हम यह जानते ही हैं कि जहाजरानी ( shipping ) की व्यावहारिक
आवश्यकता ने खगोलविद्या ( astronomy ) को जन्म दिया और ज्यामिति का जन्म
खेती की आवश्यकताओं के कारण हुआ। अंकगणित ने लोगों को क्षेत्रफल और घनफल
की गणना करने और लेखाकारों ( accountants ) को पारिश्रमिकों ( wages ) का
हिसाब रखने में सहायता की थी। किंतु व्यावहारिक क्रियाकलाप प्रकृति में फेर-बदल करने में ही सहायक नहीं होते, वे सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन लाते हैं।
संज्ञान ( cognition ) एक मानसिक क्रिया ( mental activity ) है, जो व्यावहारिक क्रियाकलाप से संबद्ध ( associated ) होने पर भी उनसे भिन्न
( different ) होती है। अपनी श्रम-क्रियाओं के दौरान मनुष्य प्रकृति को
अपनी आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित करता है। वह तेल और कोयले का
निष्कर्षण ( extraction ) करता है, जंगल लगाता है, ज़मीन जोतता है, आदि। यह
सब करने के लिए उसे संबद्ध विषयों और घटनाओं की जानकारी होनी ही चाहिए। संज्ञान, ज्ञान के रूप में यथार्थता का मानसिक स्वांगीकरण ( assimilation ) है। अधिगम ( learning ) तथा जांच-पड़ताल के ज़रिये ज्ञानोपार्जन ( acquisition of knowledge ) तथा संस्कृति की उपलब्धि से मनुष्य एक ऐसे सर्जक
( creator ) में परिवर्तित हो जाता है, जो यथार्थता को ही नहीं स्वयं अपने
आपको भी रूपांतरित करता है। वह ज्ञान का विषयी है, सामाजिक ज्ञान का वाहक
( carrier ) है। यदि प्रारंभिक ज्ञान व्यवहार से पृथक नहीं, बल्कि उससे
घुल-मिल जाता है तो समय आने पर ज्ञान का यह संचय
उसे ( यानी स्वयं ज्ञान को ) सापेक्षतः स्वाधीन ( relatively independent
) बना देता है और वह पूर्व अर्जित ज्ञान के आधार पर विकसित ( develop )
होने लगता है।
संज्ञान का विषय सारा विश्व, प्रकृति और समाज नहीं, बल्कि वह चीज़ है, जो प्रदत्त ऐतिहासिक चरण
में मानव संज्ञान के लिए सुगम ( intelligible ) है। यह भौतिक संभावनाओं पर
और साथ ही संचित ज्ञान के स्तर व सामाजिक आवश्यकताओं पर भी निर्भर करता
है। यह बोधगम्य बात है कि प्राचीन दार्शनिक परमाणु की संरचना को नहीं समझ
पाये ; न्यूटन के ज़माने में सापेक्षता का सिद्धांत निरूपित करना असंभव था
और जीन्स तकनीकी से संबंधित समस्याओं को आज के जमाने में ही हल किया जा
सकता है। किंतु मनुष्य प्रकृति का अध्ययन महज उसकी आद्यावस्था में ही नहीं
करता है। ज्ञान के कई विषय मनुष्य के क्रियाकलाप के दौरान बनते है। उदाहरण
के लिए, अनाज की नयी क़िस्में तथा जानवरों की नयी प्रजातियां चयनात्मक
प्रजनन ( selective breeding ) के द्वारा विकसित की गयी हैं।
फलतः संज्ञान, ज्ञानोपलब्धि की वह प्रक्रिया है, जिसका सीधा लक्ष्य है सत्य तक पहुंचना और अंतिम लक्ष्य सफल व्यावहारिक कर्म है।
संज्ञान की संकल्पना ( concept ) को इस तरह से समझ लेने के बाद, हम
संज्ञान की प्रक्रिया में अब और गहरे उतर सकते हैं, और क्रियाकलापों के
दौरान संज्ञान की उत्पत्ति में ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रेक्षण, औज़ारों
और यंत्रों के प्रयोग, चिंतन तथा क्रियाकलापाधीन प्रक्रिया या परिघटना के
साथ मनुष्य की अन्योन्यक्रिया ( interaction ) की भूमिका की जांच-परख कर
सकते हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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