हे मानवश्रेष्ठों,
व्यवहार - संज्ञान का आधार और कसौटी - ३
( practice - basis and criterion of cognition - 3 )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान के आधार और कसौटी के रूप में व्यवहार पर चर्चा को आगे बढ़ाया था, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
( practice - basis and criterion of cognition - 3 )
ज्ञात है कि परिवेशी विश्व की परिवर्तनशीलता और गतिशीलता विषयक कथन ( statement ) को पराकाष्ठा
( climax ) पर पहुंचानेवाले कुछ दार्शनिकों ने निष्कर्ष निकाला था कि
विश्व का संज्ञान कर पाना असंभव है, क्योंकि, इन दार्शनिकों के अनुसार, हम
वस्तुओं के गुणों को अभी पहचान ही रहे होंगे कि तब तक उनमें न जाने कितना
परिवर्तन आ जायेगा। फिर भी व्यावहारिक कार्यकलाप
ही जिसके दौरान दसियों, सैंकड़ो बार दोहरायी गयी क्रियाओं का न्यूनाधिक
समान नतीजा निकलता है, विश्व के संज्ञान की संभावना के बारे में
प्रत्ययवादियों/अज्ञेयवादियों ( idealistic/agnostics ) के दृष्टिकोण का
सबसे कारगर खंडन करता है।
उदाहरण के लिए, सैकड़ों कृत्रिम उपग्रहों
का पृथ्वी की कक्षा में पूर्वनिर्धारित प्रक्षेप-पथ पर उड़ना और कृत्रिम
अंतरिक्षीय प्रयोगशालाओं का चन्द्र धरातल पर निश्चित स्थान पर उतरना और
इसी क्रिया को बार-बार दोहराया जाना पूर्णतः सिद्ध कर देता है कि व्यवहार
- चाहे वह उत्पादन संबंधी कार्यकलाप हो या कोई वैज्ञानिक प्रयोग - परिवेशी
परिघटनाओं के स्थायी, आवृत्तिशील लक्षणों तथा गुणों का पता लगाने और उनके
बारे में विश्वसनीय और सच्ची जानकारी पाने में मदद करता है।
इस तरह उपरोक्त तथ्यों से हम ये तीन निष्कर्ष निकाल सकते हैं : १) व्यवहार संज्ञान का यथार्थ आधार और साथ ही इसकी कसौटी है कि किसी परिघटना का हमारा ज्ञान कितना गहन और विश्वसनीय है ; २) व्यवहार में इतनी गतिशीलता, अनिश्चितता और परिवर्तनीयता है कि वह हमारे संज्ञान को जड़, स्थिर नहीं होने देता, वह संज्ञान के विकास का मूलभूत कारक है ; ३) व्यवहार में इतनी सुनिश्चितता है कि हम सही और ग़लत जानकारियों, भौतिकवादी तथा प्रत्ययवादी उपागमों के बीच भेद और संज्ञान के भौतिकवादी सिद्धांत की सत्यता की पुष्टि कर सकते हैं।
व्यवहार और सिद्धांत ( theory ), दोनों ही विकसित होते रहते हैं और उनके विकास में निर्णायक भूमिका,
व्यवहार की होती है। सिद्धांत और व्यवहार संज्ञान के दो अविभाज्य पहलू (
indivisible aspect ) हैं। वे एक दूसरे को समृद्ध ( enriched ) बनाते हैं,
जैसे कि विज्ञान और उत्पादन की एकता में देखा जा सकता है। सिद्धांत और
व्यवहार को उनके एकत्व ( unity ) में देखना चाहिए, क्योंकि सिद्धांत,
सामाजिक-ऐतिहासिक व्यवहार से मात्र समृद्धतर ही नहीं होता, बल्कि यह ख़ुद
भी एक सबल रूपांतरणकारी शक्ति
है, जो विश्व के क्रांतिकारी रूपांतरण ( revolutionary transformation )
के लिए, युगों पुराने पिछड़ेपन ( backwardness ) को मिटाने और नये जीवन का
निर्माण करने के तरीक़े सुझाता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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