हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान के आधार और कसौटी के रूप में व्यवहार पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान की प्रक्रिया में संवेदनों की भूमिका पर विचार शुरू करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
संज्ञान की प्रक्रिया में संवेदनों की भूमिका - १
( the role of sensations in knowing - 1 )
संवेदन ( sensation ) मनुष्य द्वारा विश्व के परावर्तन ( reflection ) के प्रारंभिक रूप
हैं। ( इन पर मनोविज्ञान श्रृंखला में एक और पोस्ट यहां देखी जा
सकती है। ) संवेदन हमारे संवेद अंगों ( sense organs ) पर बाह्य जगत की वस्तुओं के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं,
इस प्रभाव का फल होते हैं, वस्तुओं के अत्यंत विविधतापूर्ण अनुगुणों (
properties ) से उत्पन्न हो सकते हैं। हम किसी वस्तु के कड़ेपन की,
ध्वनियों की, रंगों, आदि की संवेदानुभूति प्राप्त कर सकते हैं। विभिन्न
वस्तुएं और घटनाएं, हमारे संवेदी अंगों पर भिन्न-भिन्न ढंग से क्रिया कर
सकती हैं।
कुछ मामलों में संवेदी अंग वस्तुओं के प्रत्यक्ष संपर्क
( direct contact ) में आते हैं और उससे, मसलन, मिठास, कडुवा व खट्टापन,
लोचपन, खुरदुरे व चिकनेपन, आदि के संवेदन पैदा होते हैं। अन्य मामलों में
हम दूरी से किसी वस्तु का संवेद प्राप्त करते हैं, जैसे कि वस्तु द्वारा
परावर्तित या विकीर्ण ( radiate ) प्रकाश से आंखों के दृष्टि पटल पर
पड़ने-वाले प्रभाव से उस वस्तु का एक दृश्य बिंब ( image ) बन जाता है।
परंतु संवेदी अंगों पर किसी वस्तु का कोई भी प्रभाव क्यों न पड़ता हो, संवेदन उन पर प्रभाव डालनेवाले किसी बाह्य उद्दीपक ( stimulus ) का ही फल होता है।
हम चाक्षुष संवेदनों
( visual sensations ) की रचना के उदाहरण से इस प्रक्रिया पर और गहराई से
विचार करते हैं। सौर प्रकाश विद्युत चुंबकीय क्षेत्रों ( फ़ोटानों ) का
अभिवाह ( flux ) होता है, जिनमें निश्चित ऊर्जा होती है। जब सौर प्रकाश
किसी वस्तु पर ( मसलन, एक सेब पर ) पड़ता है, तो उसका एक अंश उसकी सतह से
परावर्तित होता है और एक अंश अवशोषित ( absorbed ) हो जाता है। सेब से
परावर्तित किरणें हमारी आंखों से टकराती हैं। परावर्तित किरणों में,
परावर्तित करने वाली सतह की भौतिक तथा रासायनिक संरचना के अनुसार फेर-बदल
हो जाते हैं। आंख के भीतर उनमें और भी कई संपरिवर्तन ( conversion ) तथा
रूपांतरण ( transformation ) होते हैं। प्रकाश की तरंगे प्रकाशिकी (
optics ) के नियमों के अनुसार नेत्र-लेंस द्वारा अपवर्तित ( refracted )
होती हैं और उस वस्तु की सैकड़ों या हज़ारों गुना तक छोटी छाप ( impression
) दृष्टिपटल पर छोड़ देती हैं। दृष्टिपटल ( retina ) की कोशिकाएं
तंत्रिका-तंत्रओं ( nerve fibers ) के ज़रिये जैव-विद्युत आवेग उत्पन्न
करती हैं और ये मस्तिष्क के दृष्टिकेंद्र की कोशिकाओं में विशेष रूपांतरण
कर देते हैं, उसका परिणाम प्रकाश और आकृति के विविध चाक्षुष संवेदन
होते हैं। ये संवेदन एक साकल्य ( a whole ) में संयुक्त हो जाते हैं, या
उस चीज़ में संश्लेषित ( synthesized ) हो जाते हैं, जिसे हम वस्तु का (
मसलन, सेब का ) दृश्य बिंब कहते हैं।
दृश्य बिंब के उत्पन्न होने के तरीक़े पर विचार करने पर हम निम्नांकित निष्कर्षों पर पहुंचते हैं : दृश्य बिंब देखनेवाले के मस्तिष्क में उत्पन्न और विद्यमान होता है, फलतः यह आत्मगत ( subjective ) है।
यह वस्तु की सतह से परावर्तित भौतिक प्रकाश की तरंगों के अनेकानेक
रूपांतरणों तथा संपरिवर्तनों के फलस्वरूप पैदा होता है। तरंगे विशेष
जैव-विद्युत आवेगों में संकेंद्रित होती हैं जो पुनः मस्तिष्क की कोशिकाओं
में रंग तथा देशिक ज्यामितिक ( spatial geometrical ) संवेदनों में
रूपांतरित होते हैं। उसके फलस्वरूप, मस्तिष्क में उत्पन्न बिंब वस्तु के
हूबहू अनुरूप ( correspond ) होता है और उसे अन्य सारी वस्तुओं से विभेदित
( distinguish ) करने में मदद देता है। इस अर्थ में हम कहते हैं कि एक दृश्य संवेद एक वस्तुगत वस्तु का परावर्तन होता है। वे वस्तुगत जगत ( objective world ) के आत्मगत बिंब ( subjective image ) हैं और साथ ही वे बाह्य उत्तेजना की ऊर्जा का चेतना के तथ्य ( fact ) में रूपांतरण हैं।
संवेदन चूंकि वस्तुगत वास्तविकता ( reality ) के आत्मगत बिंब हैं, इसलिए हम कह सकते हैं कि आत्मगत मानसिक प्रक्रियाओं के लिए प्रारंभिक सामग्री हमें संवेदनों के ज़रिये ही प्राप्त होती है।
यानी इससे यह स्पष्ट होता है कि संवेदन हमारे संपूर्ण ज्ञान का प्रारंभिक
आधार-स्रोत हैं। संवेदन आत्मगत रूप में इसलिए होते हैं कि उनकी उत्पत्ति (
emergence ) संवेदी अंगों की क्रिया के साथ जुड़ी होती है। साथ ही साथ अपनी
अंतर्वस्तु ( content ) में वे वस्तुगत
होते हैं, क्योंकि वे वस्तुओं के वस्तुगत अनुगुणों को परावर्तित करते हैं।
मसलन, वस्तुओ के सुगंध जैसे अनुगुणो व गुणों का प्रत्येक व्यक्ति,
व्यष्टिक ( individually ) और आत्मगत रूप से अनुभव करता है परंतु फिर भी
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को सामान्यतः यह एक जैसे ही संवेदित होते हैं।
स्पष्ट है कि यह आत्मगत बिंब वस्तुओं की वस्तुगत प्रकृति के अनुरूप होता
है। मसलन, किसी खाद्य की सुगंध उसके एक वस्तुगत अनुगुण को परावर्तित करती
है।
अतः संवेदन वस्तुगत रूप से विद्यमान यथार्थता का सही परावर्तन होते हैं, वे हमें बाह्य जगत की चीज़ों और घटनाओं के बारे में सही सूचना देते हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
1 टिप्पणियां:
एक उत्कृठ प्रस्तुति।
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