शनिवार, 2 मई 2015

सत्य क्या है - २ ( सत्य की निर्भरता )

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत सत्य की द्वंद्ववादी शिक्षा पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



सत्य क्या है - २ ( सत्य की निर्भरता )
what is truth - 2 ( dependence of truth )

सत्य का प्रश्न एक वैज्ञानिक द्वारा अपनाये जानेवाले सामान्य दार्शनिक दृष्टिकोण से, दर्शन के मूल प्रश्न का उत्तर देने के उसके तरीक़े से घनिष्ठता के साथ जुड़ा है। सत्य के मामले में विज्ञान और धर्म की परस्पर विरोधी प्रकृति अत्यंत स्पष्टता से प्रकट होती है। विज्ञान के लिए सत्य की खोज एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम है, जबकि धर्म आस्था की ओर रुख करता है और कभी-कभी आस्था को खुलेआम सत्य के मुक़ाबले में खड़ा कर देता है।

प्रत्ययवाद/भाववाद ( idealism ) और अज्ञेयवाद ( agnosticism ) की सारी की सारी क़िस्में, सत्य को मानने से इनकार नहीं करती, किंतु वे इसकी व्याख्या आत्मगत ( subjective ) ढंग से करती हैं, क्योंकि वे इसे, परिवेशीय वास्तविक जगत के अस्तित्व की मान्यता के साथ, तथा सही-सही ढंग से उसका संज्ञान कर सकने व अपनी चेतना में उसे परावर्तित करने की मनुष्य की क्षमता के साथ, नहीं जोड़ती हैं। कुछ प्रत्ययवादी सत्य को लोगों के बीच संपन्न एक समझौते का परिणाम मानते हैं। कभी-कभी जो उपयोगी होता है उसी को सत्य घोषित कर दिया जाता है, परंतु जो उपयोगी है, वह सब सत्य नहीं होता है।

केवल द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ( dialectical materialism ) ही ने, जिसने संज्ञान के सिद्धांत में क्रांति कर दी थी, सत्य का, उसके आधारों और उसकी कसौटियों ( criterion ) का, एक मूलतः नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। वह सिद्धांत क्या है?

संज्ञान एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें आत्मगत चिंतनात्मक कार्य और क्रियाविधियां, वस्तुगत ( objective ) तथा व्यावहारिक कार्यों तथा कार्यकलाप के रूपों के साथ घनिष्ठता से अंतर्संबंधित ( interconnected ) होती हैं। इस प्रक्रिया की उपज के रूप में प्राप्त ज्ञान ( knowledge ) पर, इन दोनों परस्परसंबंधित पहलुओं ( aspects ) की छाप होती है। इसलिए यह पता करना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि हमारे ज्ञान में क्या वस्तुगत कारकों पर निर्भर है और क्या आत्मगत कारकों पर। विज्ञान के इतिहास पर दृष्टिपात करके हम जान सकते हैं कि, मसलन चन्द्रमा के बारे में, हमारा ज्ञान कैसे विकसित हुआ है।

यदि हम आरंभिक, अति प्राचीन काल से चले आ रहे ज्ञान का गहन विश्लेषण करें, तो पायेंगे कि उनमें मानों दो स्तर हैं। इस ज्ञान में से कुछ तो मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों ( sense organs ) की विशेषताओं, प्रेक्षक ( observer ) की स्थिति, प्रेक्षण करने की उसकी योग्यता, मेहनत तथा ध्यान की मात्रा, आदि पर निर्भर होता है। मगर इसी ज्ञान का एक दूसरा स्तर भी है, जो न तो अलग व्यक्ति पर और न सारी मानवजाति पर ही निर्भर होता है। हम जो चन्द्रमा की विभिन्न ऋतुओं में और महिने के विभिन्न दिनों मे कभी प्रकाशमान चक्र और कभी हंसिये जैसा देखते हैं, वह आंशिकतः प्रेक्षक की स्थिति और आंशिकतः स्वयं चन्द्रमा और सूर्य की स्थिति से निर्धारित होता है। किंतु जहां तक चन्द्रमा के पृथ्वी के गिर्द घूमने या उसकी मिट्टी की रासायनिक संरचना का संबंध है, तो वे प्रेक्षक की स्थिति पर निर्भर नहीं होते।

ज्यों-ज्यों हमारे प्रेक्षण साधन परिष्कृत ( refined ) होते हैं और प्रकाशीय दूरदर्शियों का स्थान रेडियो दूरदर्शी, रेडार, लेज़र यंत्र और अंतरिक्षीय प्रयोगशालाएं लेती हैं, त्यों-त्यों चन्द्रमा के बारे में हमारा ज्ञान अधिकाधिक बहुविध बनता जाता है। इसके साथ ही हमारे ज्ञान में उस स्तर और उस जानकारी का अनुपात भी बढ़ता जाता है, जो व्यक्तियों और मानवजाति पर निर्भर नहीं होता, बल्कि जिसका निर्धारण वस्तुगत कारकों द्वारा किया जाता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

1 टिप्पणियां:

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति ...धन्यवाद!

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