रविवार, 3 सितंबर 2017

प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में समाज का विकास

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना के पूर्वाधारों के रूप में मनुष्य व उसके क्रियाकलाप पर चर्चा की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे और देखेंगे कि समाज का विकास एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया है।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में समाज का विकास
( development of society as a natural-historical process )

एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में समाज के विकास का सिद्धांत इस प्रश्न का उत्तर देता है कि मानव क्रियाकलाप के दोनों पक्षों, भौतिक ( material ) और प्रत्ययिक ( ideal ), में से कौन सा पक्ष प्राथमिक और निर्धारक है और कौनसा पक्ष द्वितीयक और निर्धारित है।

प्रकृति में जारी प्रक्रियाओं में से कोई भी मनुष्य के संकल्प ( will ) व उसकी चेतना पर निर्भर नहीं होती। वे सब वस्तुगत ( objective ) या प्राकृतिक होती हैं। अतः, प्रकृति की घटनाओं का विनियमन ( govern ) करनेवाले नियम वस्तुगत हैं। क्या समाज के विकास के वस्तुगत नियम, यानी ऐसे कुछ नियम हो सकते हैं, जो जनगण की चेतना पर निर्भर नहीं होते? याद रहे कि लोगों के क्रियाकलाप में दो पक्ष होते हैं - भौतिक और प्रत्ययिक। इतिहास की भौतिकवादी समझ इस प्रश्न का स्वीकारात्मक उत्तर देती है। इतिहास के अनुभव का सामान्यीकरण ( generalisation ) करते हुए यह समझ इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि सामाजिक विकास के नियम उतने ही वस्तुगत ढंग से और अनिवार्यतः काम करते हैं, जितने कि प्रकृति के नियम, मात्र बुनियादी अंतर यह है कि वे लोगों के क्रियाकलाप के ज़रिये संक्रिया ( operate ) करते हैं। यही कारण है कि समाज के विकास को एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया कहा जाता है।

यह हो सकता है कि लोग इससे अवगत ( aware ) न हो कि उनके क्रियाकलाप, उनके संकल्प तथा इरादों से परे अंततः वस्तुगत सामाजिक नियमों से संचालित होते हैं। ऐसे मामलों में, वे कहते हैं कि समाज स्वतःस्फूर्त ढंग से ( spontaneously ) विकसित होता है। स्वतःस्फूर्तता का यह मतलब नहीं है कि लोग नितांत अचेतन ढंग से ( unconsciously ) काम करते हैं। सामान्य, स्वस्थ लोगों के लिए ऐसा करना बिल्कुल असंभव है। स्वतःस्फूर्त अवस्था में लोगों को केवल अपने सीधे व्यक्तिगत तथा समूहगत लक्ष्यों की जानकारी होती है और वे उन्हीं को निरूपित करते हैं तथा उन्हें हासिल करने के लिए ऐसे साधनों का चयन करते हैं, जो सामाजिक विकास के नियमों पर निर्भर नहीं होते। इस मामले में ऐसा भी हो सकता है कि उनके क्रियाकलाप के परिणाम निश्चित लक्ष्यों के अनुरूप ( correspond ) न हों। जब लोग सामाजिक विकास के वास्तविक, सच्चे नियमों के प्रति सचेत ( conscious ) हों, तो उनके क्रियाकलाप समुचित अर्थों में सचेत होते हैं। सचेत सामाजिक क्रियाकलाप की अवस्था में ही उसके परिणाम लक्ष्यों के अधिकाधिक अनुरूप होते हैं और वे उन्हें प्राप्त कर पाते हैं, क्योंकि इस मामले में स्वयं लक्ष्यों को वस्तुगत ऐतिहासिक नियमितताओं पर समुचित ध्यान देकर प्रस्तुत व निरूपित किया जाता है।

एक प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में इतिहास की संकल्पना ( concept ) मानव क्रियाकलाप के भौतिक पक्ष की निर्धारक भूमिका की मान्यता ( recognition ) पर आधारित है। साथ ही, यह इस तथ्य को भी ध्यान में रखती है कि इस क्रियाकलाप का आत्मिक/प्रत्ययिक पक्ष महत्वपूर्ण सक्रिय भूमिका निभाता है। यह भौतिक पक्ष पर सुस्पष्ट प्रभाव डाल सकता है, हालांकि यह प्रभाव स्वयं लोगों की जीवन क्रिया की भौतिक दशाओं से निर्धारित एवं सीमित होता है। प्राकृतिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के इन दो पक्षों की अंतर्क्रिया ( interaction ) तथा पारस्परिक प्रभाव को अच्छी तरह से समझने के लिए निम्नांकित महत्वपूर्ण प्रस्थापनाओं ( propositions ) को ध्यान में रखने की जरूरत है।

"...‘इतिहास’ ऐसा कोई विशिष्ट व्यक्तित्व नहीं है, जो स्वयं अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मनुष्य को एक साधन की शक्ल में इस्तेमाल करता हो ; इतिहास, अपने लक्ष्यों का अनुसरण करते हुए मनुष्य के क्रियाकलाप के सिवा और कुछ नहीं है।"

"...मानवजाति अपने लिए हमेशा केवल ऐसे ही कार्यभार ( tasks ) निर्धारित करती है, जिन्हें वह संपन्न कर सकती है। कारण यह है कि मामले को ग़ौर देखने पर हम पायेंगे कि स्वयं कार्यभार केवल तभी उपस्थित होता है, जब उसे संपन्न करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियां पहले से तैयार होती हैं, या कम से कम तैयार हो रही होती हैं।"

उपरोक्त प्रस्थापनाओं से यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि सामाजिक चेतना तथा सामाजिक विकास के लक्ष्यों और कार्यभारों के निरूपण ( formulation ) की कितनी बड़ी भूमिका है। और साथ ही यह भी कि इन कार्यभारों का स्वभाव तथा अंतर्वस्तु ( content ), भौतिक दशाओं से तथा मानव क्रियाकलाप के साधनों से निर्धारित होती है। इसलिए यह स्पष्ट है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद का विरोध करनेवाले वस्तुस्थिति को विरूपित ( distort ) करते हैं, मानव क्रियाकलाप के प्रत्ययिक, मानसिक पक्ष के महत्व का समुचित आकलन नहीं कर पाते हैं, वे या तो उसे अतिरिक्त महिमामंडित ( glorify ) करते हैं या उसके महत्व का अवआकलन ( underestimate ) करते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी नहीं समझ पाते हैं कि इतिहास की वास्तविक अंतर्वस्तु के रूप में लोगों के सोद्देश्य क्रियाकलाप को समुचित मान्यता देने से, इस वास्तविकता के साथ कोई अंतर्विरोध या खंडन नहीं होता कि इस क्रियाकलाप का निर्धारक पक्ष ( determinant side ) भौतिक दशाएं तथा उनके क्रियान्वयन के साधन ( means of realisation ) हैं।

हम यहां पहले भूतद्रव्य ( matter ) तथा चेतना के संबंध पर विचार करते समय प्रमाणित कर चुके हैं कि भूतद्रव्य वह वस्तुगत यथार्थता ( objective reality ) है, जो मस्तिष्क के उत्पादों से परे ( outside ) तथा उनसे स्वतंत्र रूप से अस्तित्वमान ( independently exist ) है। इसके विपरीत चेतना ( consciousness ) मस्तिष्क के क्रियाकलाप का परिणाम है और इस अर्थ में आत्मगत ( subjective ) है। इस वर्णन के साथ सादृश्य ( analogy ) के अनुसार ही हम आगे मानव क्रियाकलाप के वस्तुगत यानी भौतिक, और प्रत्ययिक यानी मानसिक पक्षों के बारे में तथा सामाजिक विकास के वस्तुगत और आत्मगत कारकों ( factors ) के बारे में भी चर्चा करेंगे। उनकी अंतर्क्रिया की बेहतर समझ हासिल करने के लिए हमें मानव क्रियाकलाप के विविध रूपों की सविस्तार जांच करनी होगी तथा उनके आधार में निहित वस्तुगत नियमों को प्रकाश में लाना होगा।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

1 टिप्पणियां:

Rati ने कहा…

पता नहीं, यह ब्लाग कैसे छूट गया, बार बार पड़ने लायक है, चाहे कुछ बातों से सहमत हों, और कुछ से नहीं,,,, लेकिन पढ़े लायक है, इस विचारहीन वक्त में बेहद सुन्दर प्रयास है

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