रविवार, 1 जुलाई 2018

कलात्मक चेतना और कला - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत कलात्मक चेतना और कला पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को और आगे बढ़ाएंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



कलात्मक चेतना और कला - २
( Artistic Consciousness and Art - 2 )

तार्किक संकल्पनाओं (logical concepts) व पेचीदा सिद्धांतों के रूप में विश्व को परावर्तित (reflect) करनेवाले विज्ञान से भिन्न, कला उन कलात्मक बिंबों का मूर्त भौतिक रूप है, जो हमारे संवेद अंगों (sense organs) को प्रभावित करते हैं और निश्चित भावात्मक अनुक्रिया (emotional reaction) को उकसाते हैं। वैज्ञानिक ज्ञान की प्रणाली में दृश्य-संवेदात्मक बिंबों (visual-sensory images) का कुछ हद तक गौण स्थान है; उन्हें अध्ययनाधीन वस्तुओं के दृश्य मॉडलों, रेखाचित्रों, रूपरेखाओं तथा उनके वर्णन, आदि के लिए इस्तेमाल किया जाता है। किंतु ज्ञान के मुख्य साधन, वे वैज्ञानिक संकल्पनाएं व निर्णय (judgments) है, जिनके ज़रिये विज्ञान के नियमों को अमूर्त रूप (abstract form) में निरूपित (formulate) किया जाता है। अलग-अलग घटनाओं को, ज्ञान के आरंभिक बिंदु के रूप में, तथा विज्ञान द्वारा खोजे व निरूपित किये हुए नियमों को संपूरित (supplement) करने की सामग्री के रूप में लिया जाता है। 

कलात्मक ज्ञान ( संज्ञान ) में, उपरोक्त के विपरीत, दृश्य-संवेदात्मक बिंबों का केंद्रीय स्थान होता है और वे किसी भी पृथक घटना की गहनतम, सर्वाधिक स्थाई विशेषताओं को, संवेद प्रत्यक्षण (perception) के लिए सीधे सुलभ (direct accessible) रूप में परावर्तित करना संभव बना देते हैं। यहां संकल्पनाओं और निर्णयों को, कलात्मक बिंबों का वर्णन तथा विश्लेषण करने के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। फलतः, वैज्ञानिक तथा कलात्मक ज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं है और वे एक-दूसरे को प्रतिस्थापित नहीं कर सकते हैं। वे हमारे परिवेशीय जगत के, और मनुष्य की आंतरिक दुनिया, अनुभवों, मनोदशाओं (moods), रुख़ों (attitudes) तथा व्यक्तिगत विशेषताओं के बारे में ऐसे एक पूर्णतर चित्र तथा ज्ञान की ऐसी प्रणाली की रचना करते हुए एक दूसरे को संपूरित करते हैं, जिसमें एक युग व समाज के सर्वाधिक सारभूत लक्षण (essential traits) व्यक्त होते हैं। ऐसा है कला और विज्ञान का सामान्य अंतर्संबंध (general interconnection)।

एक विशेष युग की कलात्मक चेतना, मनुष्य की आंतरिक, मानसिक दुनिया को कलाकृतियों की ऐसी प्रणाली से प्रभावित करती है, जिसमें कि यह दुनिया मूर्त होती है। यह उसके ज़रिये यथार्थता (reality) की उन विशेषताओं को उद्घाटित करती है, जो सामाजिक चेतना के अन्य रूपों की पकड़ में नहीं आते। मनुष्य का आत्मिक शिक्षण उसी से होता है और उसी तरीक़े से प्रकृति व समाज के प्रति उसके निश्चित रुख़ बनते हैं। किसी भी युग तथा किन्ही भी जनगण की कला, कलात्मक चेतना में प्रभावी आदर्शों, मानकों तथा विचारों के अनुरूप जीवन व व्यक्तित्व की उन विशेषताओं तथा मनुष्य व प्रकृति की अंतर्क्रियाओं (interactions) को अद्वितीय कला बिंबों में प्रकट करती है, जो चेतना के अन्य रूपों तथा क्रियाकलाप की क़िस्मों के द्वारा परावर्तित व संचारित (communicated) नहीं होते। इसी कारण से लोक कला, अतीत के महान कलाकर्मियों की कृतियां तथा हमारे समसामयिकों का कृतित्व, संपूर्ण विश्व संस्कृति को हमारे लिए सुलभ बनाने में तथा इतिहास के दौरान मनुष्य जाति द्वारा संचित (accumulated) हर मूल्यवान चीज़ को आत्मसात (assimilate) करने में हमारी मदद करते हैं। 

अन्य युगों तथा राष्ट्रों के साहित्य से स्वयं को परिचित कराने, संगीत सुनने और कलावीथियों (art galleries) में जाने से हमें केवल अपने जनगण द्वारा संचित अनुभव का ही बोध नहीं होता, बल्कि उनके जीवन तथा आंतरिक जगत का परिचय भी प्राप्त होता है और हम स्वयं आत्मिक दृष्टि से अधिक समृद्ध तथा उदात्त (noble) बन जाते हैं और अपने दृष्टिकोण तथा विश्व की अपनी समझ को विस्तृत बनाते हैं। कला हमें मनुष्य जाति के अनुभव से परिचित कराके सांस्कृतिक मूल्यों के ‘संचयन’ को बढ़ावा देती है, हमारी भावनाओं को उदात्त बनाती है और जनगण की गहनतर पारस्परिक समझ को प्रोत्साहित करती है। इस तरह, कला, कलात्मक चेतना, सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत जीवन पर विराट भावनात्मक प्रभाव डालती हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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