रविवार, 26 अगस्त 2018

मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - १

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर ऐतिहासिक भौतिकवाद पर कुछ सामग्री एक शृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने यहां ‘सामाजिक चेतना के कार्य और रूप’ के अंतर्गत आत्मगत कारक की भूमिका में बढ़ती पर चर्चा की थी, इस बार हम मनुष्य और समाज’ के अंतर्गत मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद का पहला हिस्सा प्रस्तुत करेंगे।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस शृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।


मनुष्य और समाज
मनुष्य के सार और जीवन के अर्थ पर एक संवाद - १
(A dialogue on the Essence of Man and the Sense of Life -1)

यह काल्पनिक संवाद यहां की अब तक की सामग्री को भली भांति पढ़ चुके एक पाठक (पा०) तथा एक दार्शनिक (दा०) के बीच हो रहा है, जो द्वंद्ववाद और ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण को अपनाता है।

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पा० - यहां प्रारंभ में आपने कहा था कि दर्शन का और सर्वोपरि द्वंद्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद (dialectical and historical materialism) का ज्ञान मनुष्य के सार (essence) को, आधुनिक जगत में उसके स्थान को तथा उसके जीवन व उद्देश्य को समझने के लिए, अतः आधुनिक युग की सर्वाधिक विकट समस्या को समझने के लिए आवश्यक है।

दा० - बिल्कुल ठीक। और हमने इन समस्याओं पर वस्तुतः लगातार विचार-विमर्श किया। यहां हमने दर्शन के बुनियादी सवाल पर, चेतना (consciousness) तथा भूतद्रव्य (matter) के संबंध के सवाल पर ध्यान दिया। यह मूलतः समस्त विश्व के साथ मनुष्य के संबंध का सवाल है। हमने सामाजिक सत्व (social being) तथा सामाजिक चेतना के, लोगो के भौतिक उत्पादन तथा आत्मिक क्रियाकलाप के संबंध की जांच करते हुए अपने विचार-विमर्श को जारी रखा। हमने यहां प्रकृति के साथ मानव समाज के संबंध पर विचार किया। द्वंद्ववादके नियमों का अध्ययन करने तथा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के ज्ञान के सिद्धांत से परिचित होने के बाद हम अन्य अनसुलझे सवालों को समझने के लिए तैयार हुए।

पा० - तो आइये, उनसे निबटने और उन्हें हल करने की कोशिश करें। मसलन, मनुष्य का सार क्या है? उसके जीवन का अर्थ क्या है? मनुष्य किसके लिए जी रहा है? इन प्रश्नों का उत्तर पाना अत्यंत कठिन है।

दा० - आपकी राय में, उनका उत्तर देना किस वजह से कठिन है?

पा० - हम जानते हैं कि दुनिया में कई अरब लोग, अनेक अनेक देशों में रहते हैं - विभिन्न जातियों (nationalities), नस्लों (race) के लोग, पुरुष और नारियां, बूढ़े और जवान, विभिन्न वर्गों (classes) और सामाजिक समूहों के लोग। उनकी शिक्षा-दीक्षा भिन्न है, चरित्र और लक्ष्य भिन्न हैं और वे जीवन को तथा उसमें अपने स्थान को भिन्न-भिन्न ढंगो से समझते हैं। इस स्थिति में क्या हम मनुष्य के, एक एकल सार (single essence) की सामान्य बात कह सकते हैं? समाज की बात तो दूर, जब हम केवल दो भिन्न आदमियों ही को लें, तो भी हम उनके, कम से कम कोटि (degree) के सामान्य लक्ष्यों के बारे में या जीवन के अर्थ के बारे में क्या बातें कर सकते हैं?

दा० - आपके प्रश्न में एक ग़लती की संभावना निहित है। आपकी राय में ये विभिन्नताएं इतनी बड़ी हैं कि आप सामाजिक समूहों और वर्गों के समान लक्ष्यों या किसी प्रकार के सामान्य जीवन के अर्थ की बात स्वीकार नहीं करते। आप यह सुझाते हैं कि मनुष्य का कोई समान सार नहीं है या ऐसा कुछ नहीं है, जो लोगों को एकता में बांध सके। यह बात ऐसी ही अतिवादी (extreme) है, जैसे यह सोचना कि सब लोग एकसमान हैं, कि वे नन्हे, अवैयक्तिक (impersonal), सामाजिक पेंच हैं। किंतु सामान्य, विशेष और व्यष्टिक (general, particular and individual) की एक द्वंद्वात्मक एकता होती है। हमारा दर्शन लोगों के लिए उनके सारे लक्ष्यों या उनके प्रत्येक पृथक कर्म, आदि के लिए नुस्खे़ (prescriptions) तैयार करने का लक्ष्य नहीं रखता है। मनुष्य और समाज एक द्वंद्वात्मक एकत्व (dialectical unity) है, अतः इन प्रश्नों का उत्तर इस शर्त पर ही दिया जा सकता है कि हम लोगों के अंतर तथा समानता को, व्यक्तिगत और सामाजिक हितों के अंतर्संयोजन (interconnections) को, सामाजिक और व्यक्तिगत क्रियाकलाप की अंतर्निर्भरता को मान्यता दें। हम केवल ऐसे ही एक उपागम (approach) से यह समझ सकते हैं कि मनुष्य का सार क्या है और कि उसके जीवन का अर्थ क्या है।

पा० - तो बताइए यह सार क्या है?

दा० - दर्शन के इतिहास ने इसके कई भिन्न-भिन्न उत्तर दिये हैं। मसलन, प्राचीन यूनानी दार्शनिकों का विचार था कि मनुष्य का सार यह है कि वह स्वयं में एक सूक्ष्म ब्रह्मांड (microcosm) है, यानी एक नन्हा, जीवित गतिमान जगत है, जो अपनी परिवेशीय दुनिया को, बॄहत ब्रह्मांड (macrocosm) को सूक्ष्मीकृत रूप में दोहराता है। लेकिन तब से अब तक विज्ञान के विकास ने यह दर्शाया है कि मनुष्य की जीवन क्रिया सामाजिक विकास के नियमों से संचालित है, जबकि बाह्य जगत प्रकृति के नियमों के अनुसार विकसित होता है। जीवन ने मनुष्य के सार की प्राचीन यूनानी समझ का खंडन कर दिया। मध्ययुगीन ईसाई दर्शन ने उसका सार दैवी उत्पत्ति (divine origin) में, उनके अनुसार इस तथ्य में देखा कि उसमें आत्मा (soul) का निवास है। किंतु आत्मा का सृजन हमेशा के लिए ईश्वर ने किया है, जबकि लोग नितांत भिन्न हैं। लोग वैर पालते हैं, लड़ते हैं और अत्यंत अधार्मिक कार्य करते हैं, दैव विरोधी कर्म करते हैं। इससे बड़ी बात यह है कि मनुष्य की जीवन पद्धति, रुचियां, दृष्टिकोण तथा स्वयं जीवन की समझ युग-दर-युग बदलती रहती हैं। मनुष्य के सार की ईसाई संकल्पना भी काल कसौटी में खरी नहीं उतरी। अपने विचारों की विभिन्नता के बावजूद पूंजीवादी दार्शनिक मनुष्य के सार को तथा उसके मुख्य लक्ष्य को, प्रकृति पर और अन्य लोगों पर प्रभुत्व (domination) में देखते हैं।

पा० - (बात काटते हुए) तो फिर जीवन का अर्थ और मानवता की सर्वोच्च अभिव्यक्ति (supreme manifestation) क्या है?

दा० - लोगों की सबसे बड़ी संख्या मेहनतकशों (working people) की है और प्रतिरोधी वर्ग समाजों (antagonistic class societies) में उनका शोषण होता है। वे कोई मुनाफ़ा (profit) नहीं कमाते और इस प्रभुत्व से कोई हितलाभ (benefits) हासिल नहीं करते हैं। इसके अलावा यह प्रभुत्व, मनुष्यों को नीचा बनाता है, उनकी हैसियत गिराता है और प्रकृति को नष्ट तथा अस्तव्यस्त करता है। इसलिए प्रभुत्व और किसी भी क़ीमत पर मुनाफ़ा कमाना अधिकांश लोगों के लिए जीवन का सार या अर्थ नहीं हो सकता है। वे केवल चंद शोषकों (exploiters) के सार तथा लक्ष्यों को निर्धारित करते हैं।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।

समय अविराम

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