हे मानवश्रेष्ठों,
ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - ४
( पिछली बार से जारी..........)
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के
गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते
हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने
की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
ईश्वर की अवधारणा और इसके विकास का स्वरूप - ४
( पिछली बार से जारी..........)
अब
थोड़ा सा, प्राचीन अवस्थितियों का पुनर्कल्पन करने की सरलीकृत सी कोशिश
करें, शायद यह रोचक और समीचीन रहे :-)। जैसा कि आप भली-भांति जानते हैं,
और आपने कहा भी है, जीवन के लिए प्रकृति के साथ के सघर्षों, उसकी हारों,
विवशताओं, अभिशप्तताओं ने प्रकृति में किसी अलंघ्यनीय चमत्कारी शक्तियों
के वास की कल्पना, साथ ही उसकी बढ़ रही, प्रकृति की नियंत्रक क्षमताओं से
उत्पन्न चेतना से, इनके भी नियंत्रण के लिए किये गये मानव के कर्मकांड़ी
प्रयासों से, जादू-टोने-टोटकों की क्रियाविधियां विकसित हुईं। जीवन की
किसी पशु-शिकार पर विशेष निर्भरता ने टोटेमवादी अवधारणाओं को उत्पन्न
किया। जातीय निरंतरता की चेतना ने पूर्वजों और उनके प्रति कृतज्ञता,
पूजा-आदि की परंपराओं को विकसित किया, टोटेम और पूर्वजों की अवधारणाओं को
अंतर्गुथित किया। मृतकों के साथ जीवित व्यक्तियों के साम्य और विरोधी
तुलना ने, मानव में उपस्थित किसी चेतना या आत्मा के विचार तक पहुंचाया। और
इन सबका बेहद जटिल अंतर्गुंथन अपने विकास-क्रम में अंततः परमचेतना,
परमात्मा, ईश्वर की अवधारणाओं और धर्मों के वर्तमान सांस्थानिक रूप तक
विकसित हुआ।
जादू-टोने-टोटकों और कई अन्य आद्य धार्मिक क्रियाओं को
किए जाने की आवश्यकता ने, जब श्रम-प्रक्रियाएं विशिष्ट रूप ले रही थी,
श्रम-विभाजन संपन्न हो रहा था, समूहों में इनके भी विशेषज्ञ व्यक्तियों,
ओझाओं के उभार का रास्ता प्रशस्त किया। चमत्कारी शक्तियों को नियंत्रित
करने की क्रियाविधियों ने उन्हें भी अंततः बेहद चमत्कारी, विशेष
व्यक्तियों में तब्दील कर दिया। अतिरिक्त उत्पादन ने ऐसी परिस्थितियां
पैदा की इन विशिष्ट व्यक्तियों का श्रम-उत्पादन प्रक्रियाओं में बिना
शामिल हुए ही, जीवनयापन के लिए साधन उन लोगों के श्रम-उत्पादों के आधारों
पर जुटने लगे। जाहिरा-तौर पर अब ऐसे आधार मौजूद थे, कि वह अपनी इस स्थिति
को बनाए रखने, उसे समृद्ध करने की उधेड़-बुन कर सके, उसके पास अतिरिक्त समय
था कि वह कई नये काल्पनिक आभामंड़लों का विस्तार कर सके। लोगों की जिज्ञासू
प्रवृत्तियों, सवालों के उत्तर के लिए वह जैसे अधिकृत सा होता गया, वैसे
ही इनकी संतोषप्रद व्याख्याओं, जवाबों के लिए वह अपनी कल्पनाशक्ति दौड़ाने
को मजबूर हुआ। शनै-शनै ऐसा घटाघोप विकसित हुआ जिसका कि परिणाम हमारे सामने
है।
शिकार, आपसी कबायली संघर्षों तथा युद्धों ने इसी तरह लड़ाका
समूहों को विकसित किया जो कि अंततः श्रम-उत्पादन प्रक्रियाओं में लगे
सामान्य व्यष्टियों से विलगित होते गये, जिनका कि भी विशिष्टीकृत कार्य
यही होता गया। ये भी शनैः शनैः बिना उत्पादन प्रक्रिया में शामिल हुए ही,
अतिरिक्त उत्पादन पर निर्भर होते गये। समाज को अपनी इन्हीं विशिष्ट
आवश्यकताओं के लिए, ओझाओं और इन लड़ाका सैनिकों के विशिष्ट समूहों को अपने
पर ही अवलंबित करना पड़ा। अपनी इसी सापेक्षतः मजबूत और निर्णायक स्थिति के
कारण, धीरे-धीरे ये समूह समाज में प्रभुत्व प्राप्त करते गये। प्रभुत्व
प्राप्ति के लिए इनके बीच भी संघर्ष होना लाजिमी था, हुए भी, पर अंततः
दोनों की पृथक विशिष्टताओं और समाज को इनकी आवश्यकताओं ने इन्हें
नाभिनालबद्ध कर दिया। ये आपसी सहयोग की राह पर आए और सत्ता के सुखों के एक
निश्चित बंटवारे की जोड़-तोड में आपस में घुल-मिल गये।
पुजारियों-ब्राह्मणों और क्षत्रियों की जुगलबंदी के नये रूप विकसित हुए।
अतिरिक्त उत्पादन से पैदा हुई, अतिरिक्त संपत्ति इनके पास केंद्रित होती
गई और यह अधिक से अधिक ताकतवर होते गये। उत्पादन-प्रक्रियाओं, प्रणालियों,
तकनीकों के विकास के साथ उत्पादन बढ़ता गया, संपत्ति बढ़ती गई, निजी संपत्ति
के ढेर लगने लगे, व्यापार बढ़ा, एक अधिक व्यापक व्यवस्था की आवश्यकता बढ़ी
और अंततः बड़े-बड़े राज्य अस्तित्व में आए। इस राज्य के विकास के साथ, इसके
आधारों को बनाए रखने के लिए, राज्य को बनाए रखने के लिए, धर्म के
सांस्थानिक रूप विकसित हुए। राज्य और धर्म नाभिनालबद्ध हो गये।
अभी इतना ही, बाकी कि कहानी फिर कभी।
अभी इतना ही, बाकी कि कहानी फिर कभी।
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इस अंतर्विरोध को भी देखिए, जो कि आपके कहे से उत्पन्न हो रहा है। इसको समझने की प्रक्रिया शायद आपके संशयों, कहे गये से ध्वनित हो सकने वाले गूढ़ार्थों को निश्चित करने और समझने में आपकी मदद करे।
आपकी यह बात कि, ‘क्या यह समूहों के नेतृत्व का अपनी नाकामियों के लिये ठीकरा फोड़ने व अपने नेतृत्व को एक लेजिटिमेसी देने के लिये गढ़ा मिथक नहीं था...’ ईश्वर की अवधारणा के संदर्भ में यह इशारे कर रही है कि कुछ विशिष्ट मस्तिष्कों ने इसे सचेतन रूप से गढ़ा, इसे विशिष्ट रूप दिया और फिर इसे योजनाबद्ध रूप से व्यापक बनाया।
वहीं आपका यह कहना कि, ‘हर दौर का मानव यह बात कर कहीं न कहीं अपनी बेबसी में संतोष सा ही कर रहा होता है, खास कर उन चीजों के लिये जिन को वह कंट्रोल नहीं कर पा रहा होता या जिन पर उस का जोर नहीं चलता... चाहे यह प्राकृतिक आपदायें हों या असाध्य बीमारी... वह अपनी हार को परम आत्मा के परम नियंत्रणाधीन एक वृहद योजना का हिस्सा सा मान स्वयं को सांत्वना सी देता है...’ ईश्वर की अवधारणा के संदर्भ में यह इशारे कर रहा है कि मानव के हालात और प्रकृति के सापेक्ष उसकी कमजोर स्थिति के कारण सभी मानव-मस्तिष्कों के लिए यह एक सामान्य परिघटना थी और इसी एक जैसे अनुभवों, विवशताओं तथा आवश्यकताओं ने इसे व्यापक आधार प्रदान किए।
वहीं आपका यह कहना कि, ‘हर दौर का मानव यह बात कर कहीं न कहीं अपनी बेबसी में संतोष सा ही कर रहा होता है, खास कर उन चीजों के लिये जिन को वह कंट्रोल नहीं कर पा रहा होता या जिन पर उस का जोर नहीं चलता... चाहे यह प्राकृतिक आपदायें हों या असाध्य बीमारी... वह अपनी हार को परम आत्मा के परम नियंत्रणाधीन एक वृहद योजना का हिस्सा सा मान स्वयं को सांत्वना सी देता है...’ ईश्वर की अवधारणा के संदर्भ में यह इशारे कर रहा है कि मानव के हालात और प्रकृति के सापेक्ष उसकी कमजोर स्थिति के कारण सभी मानव-मस्तिष्कों के लिए यह एक सामान्य परिघटना थी और इसी एक जैसे अनुभवों, विवशताओं तथा आवश्यकताओं ने इसे व्यापक आधार प्रदान किए।
हालांकि,
सामान्य रूप से आपका कहना काफ़ी हद तक सही है, पर शायद इसे इस तरह से कहना
अधिक सही रहे, कि क्रमिक-विकास की प्रक्रिया में, सामान्यतः समान और
व्यापक, ऐतिहासिकतः परिस्थितियों में उत्पन्न इन धर्म और ईश्वर संबंधी
अवधारणाओं के क्रम विकास में, ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हुई कि कुछ
व्यक्ति या समूह विशेष इसके कारण शनैः शनैः सामाजिक सोपानक्रम में ऊपर की
स्थिति प्राप्त करते गए, और फिर इन्हीं व्यक्ति-समूह विशेषों ने अपनी इस
स्थिति को बनाए रखने और निरंतर समाज में प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए
सचेतन, षाडयंत्रिक रूप से भी, ठीकरा फोड़ने, लेजिटिमेसी देने, मिथक गढ़ने,
काल्पनिक-कथाएं, पुराणों की रचनाएं करने, अलौकिक और रहस्यमयी प्राकृतिक
शक्तियों संबंधी सामान्य अवधारणाओं को ईश्वर संबंधी विशिष्ट रूप देने,
ईश्वर और धर्म को सांस्थानिक रूप देने में अपनी एक विशिष्ट भूमिका निभाई।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
6 टिप्पणियां:
आपने कहा------"क्रमिक-विकास की प्रक्रिया में, सामान्यतः समान और व्यापक, ऐतिहासिकतः परिस्थितियों में उत्पन्न इन धर्म और ईश्वर संबंधी अवधारणाओं के क्रम विकास में, ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हुई कि कुछ व्यक्ति या समूह विशेष इसके कारण शनैः शनैः सामाजिक सोपानक्रम में ऊपर की स्थिति प्राप्त करते गए"
--- जैसा कि सुनिश्चित है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना स्वयं का एक विशेष कर्म-भाव होता है... दो भाई या दो सामान स्थिति वाले व्यक्ति या दो सामान सुविधाएं व स्कूल-कालिज में पढ़े व समान गुरु से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ... सामान नहीं होपाते कोइ टॉप करता है कोइ फेल होता है .....कोइ व्यक्ति या विशेष समूह उच्च स्थिति प्राप्त करता है कोइ उससे नीचे ...एसा क्यों होता है? क्या यह उसके मष्तिष्क की विशेष विशिष्टता नहीं है ..यदि हाँ तो वह विशिष्टता क्यों किसी किसी में दृष्टव्य होती है ..यदि यह विकास क्रम है तो सामान परिस्थिति में सभी का समान होना चाहिए , परन्तु नहीं होता ..क्यों? भौतिक नियम तो सुनिश्चित होते हैं उसी कालखंड में बदल नहीं सकते न विक्सित हो सकते तो क्या यहाँ भी ईश्वर की अवधारणा कार्य करती है ?( यानी ईश्वर की इच्छा है...ईश्वर है )अथवा यूं कहें कि उस उच्चता प्राप्त व्यक्ति की चेतनता उच्च है ...पर क्यों ..कहाँ से आई यह चेतनता ? क्या ईश्वर से....
आदरणीय श्याम गुप्ता जी,
आजकल आपका विशेष ही प्रेम स्फुटित हो रहा है। आपकी आमद और प्रेम का विशेष शुक्रिया। कृपा बनी रहे, ज्ञान-गंगा यूं ही उतरती रहे।
आपके लिए कई चीज़ें स्वतः ही सुनिश्चित हैं। आप प्रश्न और उत्तरों की एक श्रृंखला स्वयं बनाते चलते हैं, और अपने इच्छित निष्कर्षों का निगमन करते रहते हैं। अच्छा है :-)
आपकी टिप्पणी पढ़कर लगा कि आपको क्रम-विकास की अवधारणा उचित नहीं जान पड़ती, आपको चेतना का उत्स किसी ईश्वर में जान पड़ता है, विश्व के नियमों में आपको ईश्वर के दर्शन होते हैं, और विशेष स्थिति प्राप्त लोगों में आपको चेतनता के उच्चतम रूप दिखते हैं तथा कुछ लोगों या समूहों की विशिष्ट स्थितियों में आपको ईश्वरीय विधान नज़र आता है। यह भी कि यह सब सुनिश्चित सा लगता है।
फिर इतने सारे सवाल आपके मस्तिष्क में क्यों उठ रहे हैं। क्या ईश्वरीय विधान पर कोई शक-शुब्हा पैदा हुआ है या आपको प्राप्त इस विशिष्ट ईश्वरीय ज्ञान को हम जैसे नादानों पर नाज़िल करने की विशिष्ट प्रेरणा प्राप्त हुई है।
जाहिर है हमारे पास आपके सवालों के, आपके अनुकूल उत्तर नहीं है। आप शास्त्रों में ढूंढ सकते हैं, किसी शंकराचार्य की सेवाएं ले सकते हैं। हम तो विश्व के क्रमिक विकास, पदार्थ से चेतना के विकास, आदि जैसी तुच्छ वैज्ञानिक अवधारणाओं में उलझे हुए हैं, उन्हीं के सापेक्ष समझने और समझाने की कोशिश करेंगे, जो कि शायद आपको ज्ञेयता और संतुष्टि प्रदान करने में सक्षम नहीं रहेंगे।
फिर भी आपको लगता है कि किसी विशेष मामले में संवाद किया जाना चाहिए तो कृपया अपनी जिज्ञासाओं के साथ मेल mainsamayhoon@gmail.com पर प्रस्तुत हों। निश्चित ही कुछ सार्थक संवाद संभव हो सकेगा।
आशा है, अन्यथा नहीं लेंगे और अपनी कृपा बनाए रखेंगे।
शुक्रिया।
समय जी --आप दूसरे के कथ्य से अपने स्वयं के निर्णय निष्कर्ष निकालने व उन पर तथ्यों के निष्कर्ष देते हैं ...जो निश्चय ही सर्वथा सत्य नहीं हो सकते ....
--- विकास क्रम की अवधारणा मेरे विचार से निश्चय ही सत्य है (अतः आपका सोचना व उद्घाटित करना गलत है)परन्तु उस विकास-क्रम को चेतना कौन देता है | यदि भौतिक तत्व के क्रमिक विकास से ही चेतना का विकास हुआ तो वह भौतिक तत्व कहाँ से आया व क्यों विक्सित हुआ.......
---जैसा मैंने अभीतक आपका आलेख पढ़ा है उसके अनुसार...निश्चय ही आपकी सारी सोच व अवधारणा एवं तर्क ..ईश्वर की संस्थानात्मक प्रतिष्ठा व धर्म दर्शन के बिगड़े हुए चमत्कारिक रूप जो अविकसित संस्कृति व समाज में स्थित थे व हैं .... उन पर आधारित है न कि वास्तविक दर्शन, धर्म व ईश्वर की मूल अवधारणा पर ...जो वैदिक दर्शन व साहित्य में वर्णित है ..जहां शुद्ध मानवतावादी वर्णन है एवं चमत्कार व संस्थानक रूप से कोइ सम्बन्ध नहीं ....
--- वेदान्त दर्शन के ज्ञान से सब स्पष्ट होजाता है ..और इतनी लम्बी बहस की प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं रहती....
जहां तक मन प्रश्न उठने का सवाल है वे तो ईश्वर व धर्म-दर्शन सम्बंधित विविध तर्कों ,कथ्यों व आलोचनाओं, वक्तव्यों को पढ़ सुन कर उठाने ही चाहिए साहित्य का यही तो उद्देश्य है... यदि कोइ कहता है कि ईश्वर नहीं है तो पढ़ने वाला या तो उसे मानले अन्यथा प्रश्न करे कि आपने यह क्यों कहा सिद्ध करिए औए संवाद बनता जाना चाहिए ...जब तक कि या तो आप स्वयं अपने तथ्य को सिद्ध करदें या अन्य की बात स्वीकार करलें ..
---प्रश्न उठना सिर्फ शक-सुबहा नहीं होता अपितु अन्य की बात की तर्कसंगतता जानने हेतु व उसे अनुचित करार देने भी होता है ---
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@ --- विकास क्रम की अवधारणा मेरे विचार से निश्चय ही सत्य है (अतः आपका सोचना व उद्घाटित करना गलत है)परन्तु उस विकास-क्रम को चेतना कौन देता है | यदि भौतिक तत्व के क्रमिक विकास से ही चेतना का विकास हुआ तो वह भौतिक तत्व कहाँ से आया व क्यों विक्सित हुआ.......
आदरणीय डॉ० श्याम गुप्त जी,
क्या आप बता सकते हैं कि भौतिक तत्व कहाँ से आया व क्यों विकसित हुआ ?... यदि आप किसी परम चेतना या यों कहें कि ईश्वर को इस सबके मूल में देख रहे हैं तो फिर सवाल उठेगा कि यह परम चेतना या ईश्वर कहाँ से आया व क्यों विकसित हुआ ?... मतलब यह कि कहीं न कहीं हम एक ऐसे मूल पर पहुंच जाते हैं जिसके बारे में हम नहीं जानते कि वह कहाँ से आया किसने उसे बनाया व क्यों वह विकसित हुआ...
...
आदरणीय श्याम गुप्ता जी,
आपके ज्ञान और उसके स्रोत की जानकारी से लाभांवित होने का अवसर उपलब्ध हुआ, शुक्रिया।
जाहिर है कि यहां हमारी कोशिश उन संशयी और जिज्ञासू मानवश्रेष्ठों से वास्ता रखने की है, जिनके कि मस्तिष्क में वेदान्त दर्शन के ज्ञान से सब स्पष्ट नहीं हो पाता है और जिनके लिए विश्व की वास्तविकता के ज्ञान तक पहुंचने की प्रक्रिया में लम्बी बहस की प्रक्रिया की आवश्यकता बनी रहती है।
जिस तरह मानवजाति एक ऐतिहासिक क्रम-विकास से गुजरी है, गुजर रही है, उसी तरह ही, मानजाति के ज्ञान की अवस्थाएं और स्तर भी शनैः शनैः विकसित और समृद्ध हुए हैं। इसलिए कालखंड़ के हिसाब से ज्ञान के स्रोतों का तुलनात्मक अध्ययन भी हमें करते रहना चाहिए, और एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की राह में आगे बढ़ना चाहिए।
शुक्रिया।
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।