शनिवार, 24 अगस्त 2013

अध्यात्मवादी घटाघोप और भावी संभावनाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



अध्यात्मवादी घटाघोप और भावी संभावनाएं

यह घटाघोप बहुत बड़ा और ताकतवर हो चुका है आज... पर आज तो अतिरिक्त उत्पादन, अतिरिक्त उपभोग, अतिरिक्त पूंजी, अतिरिक्त पूंजी संग्रहण आदि आदि के रूप में ऐसी परिस्थितियाँ मौजूद हैं जिसमें एक बड़ा तबका जो कुछ आज उसके पास है उसे बचाये रखने और उसे ज्यादा बढ़ाने के लिये 'दुनिया चलाने वाले' को येन-केन-प्रकारेण खुश करने/रखने का यत्न कर रहा है... और उसकी इस चाह ने उन लोगों की भी बाढ़ ला दी है जो इस घटाघोप को और बड़ा, चमकदार व रहस्यमयी बना/दिखा कर ही अपना ऐशोआराम व सामाजिक स्थिति पाते हैं... तो क्या यह माना जाये कि आज के इस दौर में यह घटाघोप और गहराता जायेगा ?... इस घटाघोप से उबरने या कम से कम इसको अधिसंख्य द्वारा समझ पाने लायक परिस्थतियाँ कैसे बनेंगी, बन भी पायेंगी या नहीं, और यह सब सायास होगा या अनायास ही...

निराशाजनक परिस्थितियां तो है ही, पर इतने अवसाद की बात भी नहीं है। माना अभी इनसे फायदा उठाने वाले वर्ग प्रभुत्व में है, पर उत्पादन प्रक्रियाओं की आवश्यकता, शिक्षा और लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया, समस्याओं का अहसास और उनके प्रति सचेत होने और प्रतिरोध तथा समाधान तलाशने की आवश्यकता, आधुनिकीकरण की परिस्थितियां आदि भी अपना काम कर ही रही हैं। शनैः शनैः ही सही पर घटाघोप को समझने, इससे मुक्ति की छटपटहाट रखने वालों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है। जहां ऐसे लोग पहले इक्का-दुक्का मिला करते थे, अब गाहे-बगाहे मिल जाया करते हैं। एक आधार, एक ज़मीन तो तैयार हो ही रही है, जैसे ही परिस्थितियां अनुकूल होंगी, स्थितियां गुणात्मक रूप से परिवर्तित होंगी, आशा रखी जा सकती है। सायास प्रयासों के साथ, जब पारिस्थितिक अनुभवों का दायरा संबद्ध होता है, तभी बदलाव की प्रक्रिया संपन्न होती है।

परिवर्तन अब धीरे-धीरे लाजिमी होता जा रहा है। सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं का विकास, उत्पादन प्रणालियों के विकास के साथ-साथ चलता है। उत्पादन प्रणालियों और उत्पादक शक्तियों का आपसी द्वंद और संघर्ष तब अपने चरम पर पहुंचता है, जब उत्पादन प्रणालियां, उत्पादन शक्तियों के विकास में बाधा बन जाती हैं और उनके लिए उपयुक्त और समर्थ नहीं रहती। ऐसे में ढांचा गिर जाता है, गिरा दिया जाता है और नई जरूरतों के हिसाब से नया ढांचा आकार लेने लगता है।

यह थोडी भारी सी बात हो सकती है। दूसरे तरीक़े से भी समझने की कोशिश करते हैं। जब हम उत्पादन के ढांचे में सभी कुछ अतिरिक्त पा रहे हैं, इतना अतिरिक्त कि संभाले नहीं संभलता है, और अतिरिक्त इकट्ठा करने का ज़रिया बनता जाता है। यानि इस व्यवस्था में जमकर अतिरिक्त है, इतना कि अभी से भी कई गुना आबादी को भी समुचित जीवनयापन के साधन आसानी से जुटाए जा सकते हैं। फिर भी वर्तमान मनुष्य जाति का बहुल हिस्सा जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ रखा जा रहा है, जो हिस्सा सारे उत्पादन और पूंजी का जनक है, वह उसके लाभ प्राप्त करने से वंचित है। छोटा हिस्सा उस पर कब्जा जमाए है, अपने लिए सुख-सुविधाओं के नये-नये आयाम ढूंढ रहा है, अघाए हुए है और दूसरी ओर बड़े हिस्से के लिए दो जून की रोटी भी जुगाड़ पाना मुश्किल हुआ जा रहा है।

यह प्रभुत्व प्राप्त तबका जाहिरा तौर पर अपने हितबद्ध यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है, और इसके लिए इस घटाघोप को बनाए रखना उसकी जरूरत है। वह नई-नई सैद्धांतिकियां गढ़ेगा, व्यवहारिकियां गढ़ेगा, भ्रम बनाए रखेगा, उलझाए रखेगा, कानूनों के ज़रिए विरोध को गैर-कानूनी बनाएगा, सत्ता के ज़रिए उनका दमन करेगा, कि येन-केन प्रकारेण यथास्थिति बनाए रखी जा सके और उसके ऐशो-आराम की सामाजिक और राजनैतिक स्थितियां जस-की-तस बनी रहे। दूसरी ओर जिनके लिए इस व्यवस्था में जीने की परिस्थितियां बदतर होती जा रही हैं, वे अपने प्रतिरोधों को संघर्षों का रूप देंगे, विरोधों को संगठित करने की कोशिश करते रहेंगे। यह द्वंद, यह अंतर्विरोध, यह संघर्ष इनके समाधान तक निरंतर चलता रहेगा। ये परिस्थिति-जनित सचेत और सायास प्रयासों की श्रृंखलाएं है।

यह हुई एक बात, दूसरी तरफ़ से नज़र डालें कि सायास सचेत रूप से किए जाने के बावज़ूद परिस्थितियां किस तरह अपनी राह चला करती हैं। अभी वर्तमान में, उत्पादन प्रणालियां पूंजी-मुनाफ़ा आधारित हैं। उत्पादन समाज की जरूरतॊं के हिसाब से नियोजित रूप में नहीं होता, बल्कि पूंजी का प्रवाह मुनाफ़े की दिशा में होता है। यानि जहां सबसे अधिक मुनाफ़े की गुंजाइश दिखती है, या खाए-अघाए लोगों की क्रय-शक्ति को देखते हुए, उनके लिए ऐशो-आराम के नये तरीके विकसित करके अधिकतम मुनाफ़े को, पूंजी को अपनी तरफ़ समेट लेने की संभावनाएं जहां दिखती है, पूंजी का प्रवाह उसी दिशा में होने लगता है। कुछ ही सालों में उस मुनाफ़े वाले क्षेत्र में, अतिशय पूंजी निवेश हो जाता है, अतिरिक्त उत्पादन का ढेर लग जाता है। उत्पादन का ढ़ेर और मांग-खपत की कमी, क़ीमतों को तोड़ देती है, मंदी का तूफ़ान घेर लेता है। पूंजी के प्रवाह का भट्टा बैठ जाता है, छोटे और मध्यम दर्जे के पूंजीपति, दीवालिया हो जाते है, साथ ही इनके व्यापार पर निर्भर बिचौलियों, दुकानदारों, मजदूरों का भी भट्टा बैठ जाता है। उत्पादन-बाजार-उपभोक्ता का ढांचा बिखर जाता है, बेरोजगारी बढती है, क्रय-शक्ति और कम होती है, मांग कम होती है और मंदी और भी व्यापक रूप लेती हुई और भी क्षेत्रों में फैल जाती है। साथ ही, एक तरफ़ अनावश्यक वस्तुओं का अतिरिक्त उत्पादन और दूसरी तरफ़ आवश्यक चीज़ों में, मुनाफ़े की कम संभावना के चलते घटते निवेश के कारण उत्पादन में कमी, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता में कमी लाती है, महंगाई बढ़ाती है। अभावों और अकालों का वायस बनती है।

इसलिए मुनाफ़ा आधारित पूंजीवादी अनियोजित उत्पादन प्रणाली अपनी इस नियति से निपटने में अक्षम रहती है, कुछ दसेक वर्षों के निश्चित से अंतराल में निरंतर मंदी के चक्रों से गुजरती रहती है और उत्पादक शक्तियों के भारी विनाश का कारण बनती रहती है।

तो जब ऐसी परिस्थितियां है, ये यथार्थ है, तो जाहिर है इससे उबरने की आवश्यकता भी पैदा होती है। और इसीलिए इनसे उबरने के सायास प्रयास भी होंगे। सायास प्रयासों की सफलता भी इन्हीं परिस्थितियों पर निर्भर होगी। जब तक ये व्यवस्था येन-केन प्रकारेण इनसे निपटने का सामर्थ्य रखती है, मंदियों के दौरों से उबर पाने के लिए, पूंजी-प्रवाह के वैकल्पिक वैश्विक रास्ते, नये बाजार और लूट के अवसर निकाल पाने में सक्षम रहती है, प्रतिरोध के सायास प्रयास असफल होते रहने को अभिशप्त होते रहेंगे। पर ये संघर्ष चलते रहेंगे, प्रतिरोधी और क्रांतिकारी चेतना का इन्हीं संघर्षों के ज़रिए विकास होता रहेगा, प्रतिरोध भी और अधिक संगठित और वैश्वीकृत होता रहेगा। और इस घटाघोप के ऐसे ही किसी समय भरभराकर ढहने की परिस्थितियों में, कभी कुछ स्थानीय तौर पर और अंततः व्यापक रूप से व्यवस्था परिवर्तन की परिस्थितियां बनेंगी और उत्पादन प्रणालियों का, समाज की जरूरतों पर आधारित एक नियोजित ढांचा खड़ा करना आवश्यक हो जाएगा जो कि उत्पादक शक्तियों और उत्पादक साधनों-प्रणालियों के इस द्वंद, अंतर्विरोधों के सामाधान के रूप में अस्तित्व में आएगा। और तभी यह संभव हो सकेगा, कि उत्पादक शक्तियों यानि अधिसंख्य लोगों के सर्वांगीण विकास की संभावनाएं मूर्त रूप लेंगी और वे अपने को कई भ्रमों से मुक्त कर पाने, समझ को बढ़ाने और पुराने घटाघोपों से मुक्त कर पाने की अवस्थाओं में, वास्तविक पारिस्थितिक रूप से होंगे।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

1 टिप्पणियां:

shyam gupta ने कहा…

कुछ भी निश्चयात्मक व स्पष्ट नहीं है आलेख में ...यथास्थिति एवं सब अपने आप होगा के भाव पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता ही नहीं है.......

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