शनिवार, 17 अगस्त 2013

पृथ्वी से परे - ईश्वरीय संकल्पनाओं की संभावनाएं

हे मानवश्रेष्ठों,

संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



पृथ्वी से परे - ईश्वरीय संकल्पनाओं की संभावनाएं


पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति होना एक विलक्षण, अति दुर्लभ संयोग सा था... पर अथाह बृह्माँड में हो सकता है कि यह विलक्षण, दुर्लभ संयोग कुछ या अनेक जगहों पर हुआ या हो रहा हो... मानवीय दर्शन शास्त्र के अनुसार इस सभी जगहों की चेतना भी अपने अपने विकास की ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुसार ही रूप लेगी... यह भी हो सकता है कि इनमें से कुछ, कई या सभी में ईश्वर की संकल्पना ही न उभरे... ऐसा ही होगा भी, संभावना यही है... पर, केवल तर्क के लिये ही मान लें, यदि भविष्य में मानव जाति बृह्माँड के अन्य हिस्सों में पनप रही कुछ जातियों के संपर्क में आये व उनमें भी किसी परम चेतना की संकल्पना मिलती है, तो यह मामला थोड़ा पेचीदा हो सकता है...

आपने एकदम सही कहा है, जीवन की उत्पत्ति के लिए आवश्यक संयोग, अभी तक उपलब्ध विपुल जानकारी में, इतने सारे है कि अभी तक ब्रह्मांड़ में जहां तक हमारी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष पहुंच संभव हो पाई है, जीवन की उत्पत्ति की संभावनाएं बहुत कम ही हैं। यह लगभग सुनिश्चित सा ही लगता है इतने सारे संयोगों का एक साथ होना असंभव सा है। इस नीले ग्रह पर हुआ है तो, और साथ ही ब्रह्मांड़ की असीमता को देखते हुए, इसे तार्किक रूप से, सिरे से ही नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन फिर भी, इस मामले में हमारी कल्पनाशीलता की भी कुछ सीमाएं तो होनी ही चाहिएं।

हमारा ब्रह्मांड, पदार्थ की उपस्थिति और उसका विस्तार ही है और जाहिरा तौर पर वह इसी के कुछ मूलभूत नियमों से सक्रिय है। तो इसके विकास स्वरूप अस्तित्व में आए जटिल प्रोटीन अणुओं ( जो कि जीवन का मूल हैं ) के निर्माण और उसके विकसित होने की प्रक्रिया और नियम भी सभी जगह एक जैसे ही होंगे। जीवन के विकास की हर जगह, कुछ पारिस्थितिक विशिष्टताएं तो होंगी, पर उसके आधारभूत गुणधर्म, संरचना और नियमसंगतियां एक समान ही होंगी। भूतद्रव्य और उसके बहुत ही जटिल विकास से उत्पन्न जैव-कोशिकाओं की प्रतिक्रियात्मकता के भी जटिल विकास के रूप में ही, विभिन्न इन्द्रियों और चेतना का सफ़र तय हुआ है। जीवन के साथ, चेतना ( जिसे हम मनुष्य का विशिष्ट लक्षण ) की उत्पत्ति के लिए तो और भी कई विशिष्ट संयोगों की उपस्थिति जुड़ी हुई है।

इसलिए हमें तो यह लगता है कि चेतना के विकास और उससे संबद्ध क्रियाविधियों की नियमसंगतियां भी लगभग एक जैसी ही रहने की संभावनाएं हैं। तार्किक रूप से हम कल्पना भी करना चाहें, कि कहीं और भी इसी तरह के चेतना संपन्न प्राणी हो सकते हैं, तो जाहिरा तौर पर चेतना की उपस्थिति भय के आधारों पर ही ख़ड़ी मिलेगी। जीवनीय द्रव अपने को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है, जाहिर है कि वह उसको नष्ट कर सकने वाली परिस्थितियों से दूर रहने को गतिशील करता है। यानि उसका रासायनिक और भौतिक संघटन, स्वयं को विघटित कर सकने वाले कारकों के प्रति प्रतिक्रिया करता है। ये कारक उसके लिए खतरे के रूप में उपस्थित होते हैं। और यदि साथ में चेतना होगी, तो ये खतरे उसके लिए चेतन भय का रूप लेंगे, और इसी भय और अज्ञान से वही प्रक्रिया चल निकलेगी जो अंततः इसी तरह की किसी अलौकिक अवधारणाओं का, कोई विशिष्ट पारिस्थितिक रूप लेने को अभिशप्त होगी।

यह उनके विकास और परिस्थितियों की अवस्थाओं पर निर्भर करेगा कि ईश्वर की अवधारणा उनमें किस रूप में होगी। पर यदि चेतना विकसित होगी तो जाहिरा तौर पर वह ऐसी ही क्रम-प्रक्रिया से गुजरने को अभिशप्त होगी। हां उसका रूप थोड़ा या अधिक भिन्न हो सकता है, बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह से हमारी पृथ्वी पर भी अलग-अलग चेतना-विकास की धाराओं के कारण, इसमें भिन्नताएं पाई जाती हैं। अब चूंकि हम यह कल्पना करना चाह ही रहे हैं, तो फिर उनमें भी उनकी परिस्थितियों के अनुसार ही इस तरह की अवधारणाएं मिलना सुनिश्चित सी ही लगती है। बजाए ऐसा कहने के, कि इसकी संभावनाए ही नहीं है।

अतएव, मामला स्पष्ट नहीं हुआ। अब जैसा कि आपने कहा है, हम मान रहे हैं कि उनमें भी परम चेतना की संकल्पना मिलती है, तो इसमें मामला थोड़ा पेचीदा कैसे हुआ...? हमें तो लगता है, मामला तब पेचीदा होगा, जब उनमें इस तरह की अवधारणाएं नहीं मिलें। :-)

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क्या ध्यान लगाने व चित्त को एकाग्र करने के लिये बताये गये आध्यात्मिक तरीके जिनमें सामान्यत: स्वचालित श्वसन क्रिया को नियंत्रित करने पर जोर दिया जाता है के दौरान, या कीर्तन-सत्संग-समागम-गुरू दर्शन के दौरान कुछ लोगों को हुऐ अलौकिक अनुभवों को Hypo या Hyper Ventilation के कारण हुऐ अथवा उनके दिमाग की कंडिशनिंग के कारण हुऐ आनुभाविक भ्रम कहा जा सकता है... :)

सही है :-)। इस तरह के आनुभाविक भ्रमों के आधार में दिमाग के अनुकूलन साथ ही, दिमाग़ की क्रियाशील कमजोरी भी है। दिमाग़ के काम करने की अपनी सीमाएं हैं। अनुभवों की सीमाओं, अज्ञान, और कई सारे नये अनुभवों के दिमाग़ में पूर्व-संदर्भ नहीं होने के कारण, व्यक्ति इन्हें मिलते-जुलते से काल्पनिक, अवास्तविक, अनुकूलित संदर्भों के साथ जोड़ लेता है। इन्हीं क्रियात्मक सीमाओं के कारण, दिमाग़ को आसानी से भ्रम हो सकता है, भ्रमित किया जा सकता है।

पर दिमाग को भ्रमित कर पाने की इस क्षमता का अभी तक नकारात्मक प्रयोग ही दिखा है, सकारात्मक प्रयोग के उदाहरण नहीं दिखते ज्यादा... :(

भ्रम अपने आप में ही एक नकारात्मक अवधारणा है, तो जाहिरा तौर पर इसके नकारात्मक प्रयोग ही अस्तित्व में होंगे और दिखेंगे। :-) अभी के यथार्थ में, कुछ मानसिक समस्याओं के समाधानों में कुछ लोग इसका सकारात्मक सा प्रयोग कर लिया करते हैं। जैसे कि अधिक गंभीर से दिखते भ्रमों के ईलाज के लिए उसके समक्ष उसके मूल सरोकारों से अलग कम गंभीर और नये भ्रमों की रचना का ताना-बाना उसके सामने बुन देते हैं। मानसिक अपरिपक्व व्यक्ति नये भ्रमों में उलझ जाता है और पुराने भ्रमों से तात्कालिक राहत सी पा लेता है। :-)



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

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