हे मानवश्रेष्ठों,
क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -१
( theory of knowledge by classical idealism - 1 )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान विषयक तर्कबुद्धिवाद के विचारों पर संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की थी, इस बार हम क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर चर्चा शुरू करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -१
( theory of knowledge by classical idealism - 1 )
अज्ञेयवाद ( agnosticism ) और तर्कबुद्धिवाद ( rationalism ) में से कोई भी संज्ञान का एकीभूत, संपूर्ण चित्र प्रस्तुत न कर सका। दोनों में से प्रत्येक ने अनुभूति ( sensation ) या तर्कबुद्धि ( reason ) के महत्त्व को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए उन्हें एक दूसरे के मुक़ाबले में रखा और उस संबंध को अनदेखा किया, जो संज्ञान की प्रक्रिया में इन दोनों पहलुओं ( aspects ) के बीच मौजूद रहता है।
उदाहरण के लिए, भौतिकीवेत्ता
यंत्र की मापनी पर सूई के इन्द्रियगोचर दोलनों ( sensible oscillations )
को देखते हुए उन्हें विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र के परिवर्तनों ( changes )
से जोड़ता है और इस तरह तार्किक व्याख्या ( logical explanation ) और दृश्यानुभूति ( visual sensation ) को एकीभूत प्रक्रिया में संयुक्त
( unified ) बनाता है। किंतु जो संज्ञान की प्रक्रिया के अनुभूतिमूलक (
sense-oriented ) और तर्कमूलक ( logic-oriented ) पक्षों को एक दूसरे के
मुक़ाबले में रखता है, वह संज्ञान की प्रक्रिया ( process of cognition )
का अति सरलीकरण करता है और संज्ञानकारी कार्यकलाप की असली तथा जटिल प्रकृति को बिगाड़कर दिखाता है।
जर्मन क्लासिकी प्रत्ययवाद के प्रवर्तक एमानुएल काण्ट
ने अज्ञेयवाद और तर्कबुद्धिवाद के वैपरीत्य ( contrariety ) को ख़त्मकर
संज्ञान सिद्धांत को तत्कालीन प्रकृतिविज्ञान और गणित के निष्कर्षों के
अनुरूप बनाने की कोशिश की थी। जैसा कि ज्ञात है, प्राकृतिक विज्ञान
प्रेक्षणों और प्रयोगों का सहारा लेता है। किंतु इस तरीक़े से पाया गया
ज्ञान परिवेशी विश्व की घटनाओं के बाह्य, परिवर्तनशील और सांयोगिक पक्ष की
ही सूचना देता है।
काण्ट के शब्दों का इस्तेमाल करें, तो बाह्य, प्रतीयमान और दृश्य पक्ष अर्थात परिघटना के पीछे यथार्थ वस्तुएं या ‘वस्तु-निजरूप’
( ‘thing in itself’ ) छिपे होते हैं। ये वस्तु-निजरूप ही परिघटनाओं (
phenomena ) को जन्म देते हैं। किंतु परिघटना और वस्तु-निजरूप के बीच बहुत
बड़ी खाई है। परिघटना अनुभूतिगम्य है, जबकि वस्तु-निजरूप केवल मन (
मस्तिष्क ) द्वारा ही जाना जा सकता है। मन में अनुभवनिरपेक्ष प्रवर्ग होते
हैं, जिनकी संख्या १२ है, जैसे अनिवार्यता, कारण, आदि। विज्ञान के नियमों
की रचना में ये प्रवर्ग (
categories ) ही भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार काण्ट के अनुसार
इन्द्रियबोध हमें वस्तु-निजरूपों की जानकारी नहीं देता और इस प्रश्न को असमाधित ( unresolved ) ही छोड़ देता है कि हम उनके अस्तित्व के बारे में कहां से जानते हैं।
काण्ट
ने संज्ञान के अनुभवनिरपेक्ष या प्रागनुभव रूपों ( pre-experience forms )
में दिक् और काल ( space and time ) को भी सम्मिलित किया था, जिनकी सहायता
से ही अनुभूतियों पर आधारित अनुभवसिद्ध ज्ञान को क्रमबद्ध और व्यवस्थित
किया जाता है। किंतु काण्ट का दर्शन इसका कोई उत्तर नहीं दे पाता कि
प्रवर्गों तथा अन्य अनुभवनिरपेक्ष रूपों को, इन्द्रिय दत्त रूपों (
sensuous forms ) के अनुरूप
कैसे और क्यों बनाया जाता है। और साथ ही यह भी कि इन्द्रिय दत्त रूप,
सिद्धांततः असंज्ञेय ( non-cognizable ) वस्तु-निजरूपों के बारे में क्या
सूचना देते हैं।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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