हे मानवश्रेष्ठों,
क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -२
( theory of knowledge by classical idealism - 2 )
काण्ट का दर्शन अंतर्विरोधों
( contradictions ) से भरपूर था। एक ओर, प्रकृतिविज्ञान के सामने झुकते
हुए वह यथार्थ ( real ) वस्तु-निजरूपों के अस्तित्व ( existence ) को
स्वीकार करते थे और उन्हें अनुभूतियों का स्रोत ( source ) मानते थे। मगर
दूसरी ओर, तर्कबुद्धिवाद के सिद्धांतों पर अडिग रहने की कोशिश में वह इस
बात से इनकार करते थे कि अनुभूतियां और इन्द्रियजन्य कल्पनाएं यथार्थ
विश्व का काफ़ी-कुछ सही प्रतिबिंब करती हैं, और इसलिए वह निर्णायक स्थान
संज्ञान के प्रागनुभव रूपों को ही देते थे। काण्ट की ज्ञानमीमांसा ( epistemology ) की इस विरोधपूर्णता का उल्लेख करते हुए जर्मन दार्शनिक फ़्रीडरिख़ जैकोबी
( १७४३-१८१९ ) ने लिखा कि ‘वस्तु-निजरूप’ के बिना काण्ट के दर्शन में
प्रवेश नहीं किया जा सकता, किंतु उसी ‘वस्तु-निजरूप’ के साथ इस दर्शन के
अंदर रहा भी नहीं जा सकता।
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा का समापन करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
क्लासिकी प्रत्ययवाद का संज्ञान सिद्धांत -२
( theory of knowledge by classical idealism - 2 )
महान जर्मन द्वंद्ववादी हेगेल
ने काण्ट के दर्शन के अंतर्विरोध को ख़त्म करने और उसे अधिक सुसंगत बनाने
की कोशिश में जर्मन क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान के सिद्धांत को
‘वस्तु-निजरूप’ से और उसके साथ ही प्रकृतिविज्ञान पर आधारित भौतिकवाद के
तत्वों से भी पूर्ण मुक्ति दे दी। हेगेल के अनुसार, आंतरिक विरोधों से
प्रेरित होकर, मानव संज्ञान निरंतर विकास करता रहता है। विश्व संज्ञेय है
किंतु हमारा चिंतन, सत्ता के रहस्यों में जितना ही गहरा पैठेगा, उतना ही
अधिक यह स्पष्ट होगा कि संज्ञान की प्रक्रिया की सहायता से परम चित्
परिवेशी विश्व में ख़ुद अपने नियमों को उद्घाटित करता है। दूसरे शब्दों
में, विश्व के संज्ञान का मतलब है उसके आध्यात्मिक, प्रात्ययिक अन्तर्य का
संज्ञान करना।
मानव संज्ञान की सक्रिय और द्वंद्वात्मक प्रकृति के
निरूपण में हेगेल के बहुत बड़े योगदान के बावजूद उनका संज्ञान सिद्धांत आदि
से लेकर अंत तक प्रत्ययवादी (
idealistic ) था और इसलिए प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञान को वह मान्य नहीं हुआ।
इसके अलावा, चूंकि हेगेल को अपने काल की भौतिकी और गणित की उपलब्धियों का
भरपूर ज्ञान नहीं था, इसलिए प्रकृति विकास के नियमों के बारे में उनके
निष्कर्ष प्रायः १९वीं सदी के वैज्ञानिकों की अवधारणाओं से मेल नहीं खाते
थे।
प्रत्ययवादी दार्शनिक ऐसा संज्ञान सिद्धांत
न बना सके, जो सैद्धांतिक और प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञानों की आवश्यकताओं और
निष्कर्षों के अनुरूप होता। ऐसा सिद्धांत तत्कालीन भौतिकवादी (
materialistic ) दार्शनिक भी न बना पाये, यद्यपि उनके बीच कई प्रतिभाशाली
विचारक थे। व्यापक प्रसार तथा विज्ञान और संस्कृति के विकास पर अपने बड़े
प्रभाव के बावजूद ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ ( dialectical materialism ) से
पूर्व का भौतिकवाद भी संज्ञान प्रक्रिया की समझ के मामले में कई दोषों से
मुक्त नहीं था।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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