हे मानवश्रेष्ठों,
तर्कबुद्धिवाद और विश्व का संज्ञान
( rationalism and cognition of the world )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत अज्ञेयवाद की ज्ञानमीमांसा पर संक्षिप्त विवेचना का समापन किया था, इस बार हम संज्ञान विषयक तर्कबुद्धिवाद के विचारों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
तर्कबुद्धिवाद और विश्व का संज्ञान
( rationalism and cognition of the world )
संज्ञान के सिद्धांत के विकास को दार्शनिक तर्कबुद्धिवाद
( rationalism ) ने काफ़ी प्रभावित किया है। तर्कबुद्धिवादी (rationalist )
मानते हैं कि ज्ञान का सामान्य तथा आवश्यक स्वरूप तर्कबुद्धि से हासिल
किया जा सकता है, इसलिए यह मत अनुभववाद
( empiricism ) के प्रतिकूल है जो कि इसे सिर्फ़ अनुभव ( experience ) से
हासिल किये जाने योग्य मानता है। इसी तरह तर्कबुद्धिवाद जो कि विवेक,
चिंतन की शक्ति प्राथमिकता देता है, अतर्कबुद्धिवाद
( irrationalism ) के भी प्रतिकूल है जो कि संज्ञान में अंतःप्रज्ञा (
intuition ), अनुभूति, सहजबोध आदि को प्रधानता देता है। गणित संबंधी
तार्किक विशेषताओं का स्पष्टीकरण करने के प्रयास के रूप में तर्कबुद्धिवाद
की उत्पत्ति हुई। १७वीं शताब्दी में उसके प्रतिपादक देकार्त, स्पिनोज़ा, लेइब्नित्स, तथा १८वीं शताब्दी में कांट, फ़िख्टे, शेलिंग तथा हेगेल थे।
तर्कबुद्धिवाद के अनुसार सच्चे ज्ञान के तार्किक लक्षणों का निगमन केवल स्वयं मन
से किया जा सकता है, या तो मन में जन्म से विद्यमान संकल्पनाओं ( concepts
) से, अथवा केवल मन के रुझानों ( trends ) के रूप में विद्यमान संकल्पनाओं
से उनका निगमन किया जा सकता है। तर्कबुद्धिवादी मानते थे कि अनुभूतियों (
sensations ) और इन्द्रियबोधों ( senses ) की भूमिका गौण है और संज्ञान के
सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति, यानी जिन वस्तुओं का अध्ययन किया जा रहा है,
उनके नियमों, मुख्य गुणों और संबंधों की खोज केवल तर्कबुद्धि
( reason ) की सहायता से और तार्किक विवेचनाओं के आधार पर संभव है। किंतु
हर विवेचना ( deliberation ) के लिए कोई आरंभबिंदु तो होना ही चाहिए।
यह आरंभबिंदु
वे अभिगृहीत, स्वयंसिद्धियां या सिद्धांत ( axioms or theory ) हैं, जिनका
संबंध सारे विश्व या उसके अलग-अलग हिस्सों से होता है। किंतु स्वयं उनका मूल क्या है? तर्क के वे नियम और मापदंड़ ( criteria ) कहां से लिये जाते हैं, जो सिद्धांतों के आधार पर क़दम-क़दम करके वैज्ञानिक ज्ञान पाने की संभावना देते हैं? धार्मिक रुझान वाले तर्कबुद्धिवादियों की धारणा थी कि कोई दैवी शक्ति दार्शनिकों और विचारकों को उनका उद्घाटन करती है। इसके विपरीत अनीश्वरवादी
तर्कबुद्धिवादी सोचते थे कि विचारक इन सिद्धांतों, अभिगृहीतों और नियमों
का ज्ञान तर्कबुद्धि के निरन्तर प्रशिक्षण ( training ) के ज़रिये पा सकता
है, जिसके फलस्वरूप सीधे सहजबुद्धि की सहायता से उसे आवश्यक जानकारी मिल
जायेगी। यह आरंभिक जानकारी स्पष्ट, सुनिश्चित और निर्विवाद होनी चाहिये।
मानव की तर्कबुद्धि सर्वोच्च निर्णायक है और यदि वह उसके उसके द्वारा
सृजित ( created ) संप्रत्ययों तथा सिद्धांतों ( concepts and theories )
में विरोधाभास नहीं पाती, तो यह उनकी सत्यता का सर्वोत्तम प्रमाण है।
तर्कबुद्धिवादियों के इन विचारों पर
गणित और विशेषतः ज्यामिति संबंधी विचारों और विधियों की स्पष्ट छाप थी। यह
संयोग नहीं है कि तर्कबुद्धिवाद के एक प्रवर्तक फ्रांसीसी दार्शनिक
देकार्त ( १५९६-१६५० ) आधुनिक विश्लेषणात्मक ज्यामिति के पितामहों में भी
गिने जाते हैं।
ज्ञात है कि यूक्लिड की ज्यामिति सदियों तक विज्ञान
की रचना का आदर्श मानी जाती थी। अतीत के विचारकों की दृष्टि में उसकी एक
सबसे आकर्षक विशेषता यह थी कि वह कुछ इने-गुने स्वयंसिद्ध तथ्यों की
प्रस्थापना से शुरू होती है, जिनसे फिर क़दम-क़दम करके, तर्कसंगत ढंग से
अकाट्य प्रमाणों की सहायता से नये-नये प्रमेय ( theorem ) निकाले जाते
हैं। तर्कबुद्धिवादियों ने, जो प्राप्त ज्ञान की तार्किक निर्दोषिता को
सर्वाधिक महत्त्व देते थे, इस स्वयंसिद्धिमूलक विधि ( axiom oriented method ) को ही अपने आदर्श के रूप में स्वीकार किया।
किंतु
यदि स्वयंसिद्धियां दैवी देन नहीं है, तो वे कहां से आयीं? हमारी
सहजबुद्धि यथार्थ विश्व का साफ़-साफ़ ज्ञान कैसे दे पाती हैं और यदि
अनुभूतियां सूचना का विश्वसनीय स्रोत नहीं हैं, तो भौतिक वस्तुओं के विश्व
के साथ स्वयंसिद्धियों से प्राप्त परिणामों के संबंध को कैसे परखा जा सकता
है? तर्कबुद्धिवाद इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाया। १९वीं सदी में स्वयं विज्ञान ने उसपर प्रबल प्रहार
किया, जब तीन गणितिज्ञ एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचे
कि यूक्लीडीय ज्यामिति के ‘निर्विवाद’, ‘सुस्पष्ट’ माने जाने वाले पांचवें
अभिगृहीत ( समानान्तर रेखाओं के बारे में ) को विभिन्न अभिगृहीतों से बदला
जा सकता है। इस तरह विभिन्न अयूक्लीडीय ज्यामितियां पैदा हुई, जो एक दूसरे
से भिन्न होने के साथ-साथ तर्कसंगत भी थीं। जैसा कि विज्ञान के विकास ने
विशेषतः आपेक्षिकता सिद्धांत के अविष्कार और अंतरिक्षीय प्रयोगों समेत
बहुसंख्य प्रयोगों के बाद दिखाया है, यूक्लीडीय ज्यामिति की अपेक्षा वे
बाह्य विश्व की अधिक गहरी और अधिक विश्वसनीय जानकारी देती हैं।
इस प्रकार वैज्ञानिक ( और सबसे पहले गणितीय ) संज्ञान के बहुत से तथ्यों का स्पष्टीकरण पेश करने के बावजूद तर्कबुद्धिवाद,
एक ओर विज्ञान के नियमों तथा वास्तविकता की संज्ञेयता और दूसरी ओर भौतिक
विश्व की परिघटनाओं ( phenomena ) के बीच के सही संबंध को न पहचान सका।
तर्कबुद्धिवाद की संकीर्णता इस बात की अस्वीकृति में निहित है कि
सार्विकता तथा आवश्यकता, अनुभव से उत्पन्न हुई। वह ज्ञान के संक्रमण (
transition ) में व्यवहार और चिंतन की द्वंद्वात्मकता
( dialectic of practice and thinking ) को स्वीकार नहीं करता। इसी
संकीर्णता पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने क़ाबू पाया जो व्यवहार के साथ ज्ञान
की एकता में संज्ञान की प्रक्रिया पर विचार करता है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
2 टिप्पणियां:
बहुत खूब !
अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर !
मैं आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हूँ ताकि नियमित रूप से आपका ब्लॉग पढ़ सकू मेरे ब्लॉग पर आप सारद आमत्रित हैं आशा करता हूँ क़ि आपे सुझाव और मार्गदर्शन मुझे मिलता रहेगा
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
अच्छी बात कहीं आपने
रंग-ए-जिंदगानी
http://savanxxx.blogspot.in
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