हे मानवश्रेष्ठों,
तत्वमींमासीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा
( epistemology of metaphysical materialism )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत क्लासिकी प्रत्ययवाद के संज्ञान सिद्धांत पर संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की थी, इस बार हम तत्वमींमासीय भौतिकवाद की संज्ञान विषयक अवधारणा पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
तत्वमींमासीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा
( epistemology of metaphysical materialism )
१७वीं सदी से लेकर १९वीं सदी के आरंभ तक प्रकृतिविज्ञान ( natural science ), परिघटनाओं के अध्ययन की विधियों ( methods ) के प्रश्न पर यंत्रवाद
( mechanism ) का ही अनुसरण करता रहा। यंत्रवाद, यांत्रिकी ( mechanics )
के नियमों के निरपेक्षीकरण के परिणामस्वरूप विश्व का एक यांत्रिकवादी
चित्र प्रस्तुत करता था, जिसके अनुसार, समस्त ब्रह्मांड ( परमाणुओं से
लेकर ग्रहों तक ) ऐसे अपरिवर्तनीय तत्वों से युक्त एक बंद यांत्रिक
प्रणाली है, जिनकी गति क्लासिकीय यांत्रिकी से निर्धारित होती है। परंतु कालान्तर में प्राकृतिक विज्ञानों की उपलब्धियों ने यंत्रवाद की संकीर्णता
को स्पष्ट कर दिया। तत्कालीन तत्वमीमांसीय या अधिभूतवादी भौतिकवाद के
संज्ञान सिद्धांत की मूलभूत विशेषताएं काफ़ी कद तक इसी यांत्रिकवादी
दृष्टिकोण की उपज थीं।
इस सिद्धांत
के मूल में यह धारणा निहित थी कि मनुष्य परिवेशी विश्व का काफ़ी-कुछ सही
संज्ञान प्राप्त कर सकता है। संज्ञान का आधार, या यह कहें कि भौतिक
वास्तविकता के साथ मनुष्य के संपर्क का साधन अनुभूतियां
( sensations ) हैं। तत्कालीन भौतिकवादी दार्शनिकों के अनुसार, ये
अनुभूतियां बाह्य विश्व की छवियां ( images ), प्रतिकृतियां ( replicas )
या दर्पण में दिखायी देनेवाली छायाओं ( shadows ) की तरह हैं। संज्ञान की
प्रक्रिया में अनुभूतियों की भूमिका से संबंधित यह दृष्टिकोण न केवल
सामान्य व्यक्ति में पायी जानेवाली सामान्य बुद्धि, बल्कि तत्कालीन
प्रकृतिविज्ञान के भी अनुरूप
था। आत्मपरक प्रत्ययवादी ( subjective idealistic ) और अज्ञेयवादी (
agnostic ) अनुभूतियों की भूमिका की ऐसी व्याख्या का ही घोर विरोध करते थे।
तत्वमीमांसीय भौतिकवाद की ज्ञानमीमांसा ( epistemology ) का कमज़ोर पहलू यह था कि वह निष्क्रिय प्रेक्षण
( passive observation ), यानी प्रेक्षणाधीन वस्तुओं में होनेवाले
परिवर्तनों से असंबंधित प्रेक्षण पर आवश्यकता से अधिक ज़ोर देती थी। इस तरह
प्रेक्षण को इतना महत्त्व दिया जाना इस प्रकृतिवैज्ञानिक सिद्धांत को परम
सत्य मानने का परिणाम था कि वैज्ञानिक का कार्य प्रकृति का प्रेक्षण करना
है, न कि उसे बदलना। यह नियम
प्रायोगिक प्रकृतिविज्ञान के अपेक्षया आरंभिक चरण, तथ्य सामग्री के संचय
और वर्गीकरण के अनुरूप था। हालांकि १७वीं-१९वीं सदियों में प्रयोगात्मक संज्ञान
( experimental cognition ) की संज्ञेय परिघटनाओं पर प्रभाव डालने से
संबंधित विधियों का भी शनैः शनैः विकास और परिष्करण ( refinement ) हुआ,
किंतु तत्वमीमांसीय भौतिकवाद उनके महत्त्व को पूरी तरह ह्रदयंगम नहीं कर
पाये।
चिन्तनपरकता और संज्ञान की सक्रिय भूमिका के अपूर्ण मूल्यांकन
का एक कारण यह भी था कि तत्वमीमांसीय भौतिकवादी, चिन्तन की नियमसंगतियों
के विश्लेषण के महत्त्व को पूरी तरह आंक नहीं सके थे। यही पूर्ववर्ती
भौतिकवाद की मुख्य कमज़ोरी थी, कि तत्वमीमांसीय भौतिकवादी विश्व के संज्ञान
को एक ऐसी प्रक्रिया मानते थे, जो निष्क्रिय प्रेक्षण पर आधारित है न कि
प्रकृति और समाज के सक्रिय रूपांतरण
( active transformation ) पर। वे इस तथ्य को पहचान नहीं पाये कि सही
वैज्ञानिक ज्ञान विश्व के सक्रिय रूपांतरण के दौरान ही पाया जा सकता है।
यह स्वीकार करने के बावजूद, कि हमारे संप्रत्यय ( concepts ) और अनुभूतियां भौतिक वस्तुओं और प्रक्रियाओं के बिंब ही है, तत्वमीमांसीय भौतिकवाद न तो चिंतन के विकास के नियमों की व्याख्या कर पाया और न संज्ञान के परिवर्तन के आधारों का अध्ययन ही कर सका, क्योंकि वह संज्ञान के मुख्य तरीक़ो और रूपों को स्थायी ( permanent ) और अपरिवर्तित मानता था। इसी बात ने उसे दोषपूर्ण
और उन बहुत से प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ बनाया, जो समाज और
विज्ञान के विकास द्वारा उठाये गये थे। यह आवश्यक था कि लोगों के
संज्ञानकारी कार्यकलाप के अध्ययन के सिलसिले में पैदा हुए प्रश्नों के
प्रति सिद्धांततः नया रवैया ( attitude ) अपनाया जाये। इस समस्या का समाधान द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ( dialectical materialism ) के संज्ञान सिद्धांत ने प्रस्तुत किया।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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