हे मानवश्रेष्ठों,
सत्य क्या है - १ ( सत्य की संकल्पना )
what is truth - 1 ( concept of the truth )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत तर्कमूलक संज्ञान या अमूर्त चिंतन पर चर्चा का समापन किया था, इस बार हम सत्य की द्वंद्ववादी शिक्षा को समझने की कोशिश शुरू करेंगे ।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
सत्य क्या है - १ ( सत्य की संकल्पना )
what is truth - 1 ( concept of the truth )
संज्ञान की प्रक्रिया
में हम विलगित संकल्पनाओं ( isolated concepts ) का नहीं, बल्कि
अंतर्संबंधित ( interconnected ) संकल्पनाओं का उपयोग करते हैं। कथनों (
statements ) तथा अनुमानों ( inferences ) के ज़रिये यह अंतर्संबंध कायम
किया जाता है। उनके द्वारा हम अपने इर्दगिर्द दुनिया में अनुगुणों (
properties ), संबंधों या अंतर्क्रियाओं के बारे में किसी चीज़ की अभिपुष्टि ( assert ) या अस्वीकरण ( deny ) करते हैं।
अलग-अलग
संकल्पनाएं ‘घर’, ‘संस्थिति’, ‘पहाड़ी’ इस बात की बहुत कम जानकारी देते हैं
कि हमारा घर कहां हैं। इसके विपरीत, यह पद कि ‘घर पहाड़ी पर है’ हमें
आवश्यक सूचना देता है। एक अनुमान या निष्कर्ष
( conclusion ), कथनों की एक श्रृंखला है जो ऐसे निर्मित होती है कि उनमें
से एक कथन, तर्कणा के नियमों के अनुसार, दूसरे कथन का अनुगामी ( follower
) होता है। मसलन, आवश्यक पता ज्ञात होने पर हम निम्नांकित अनुमान की रचना
कर सकते हैं : ‘यदि हमारी जरूरत का घर पहाड़ी पर है, तो हमें पहाड़ी पर चढ़ना
पड़ेगा।’
लेकिन जिन कथनों तथा अनुमानों से कोई एक व्यक्ति बाह्य जगत
के बारे में अत्यंत महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान सूचना को निरुपित (
formulate ) करता है, वे भी इस जगत को सही ढंग से भी परावर्तित ( reflect
) कर सकते हैं और ग़लत ढंग से भी। बाह्य जगत को सही ढंग से तथा ग़लत ढंग से
परावर्तित करनेवाले कथनों के बीच भेद करने के लिए हम विशेष संकल्पनाओं का
उपयोग करते हैं - ‘सत्य’ ( truth ) और ‘असत्य’ ( falsehood )। संज्ञान का लक्ष्य, सत्य की उपलब्धि है और उसके आधार पर मानवजाति के सम्मुख मौज़ूद नयी समस्याओं को हल करना है।
‘सत्य’
क्या है? यह बहुत जटिल प्रश्न है और संज्ञान के सिद्धांत का एक केन्द्रीय
प्रश्न है। प्रत्ययवादी/भाववादी ( idealistic ) तथा भौतिकवादी (
materialistic ) दर्शन इसका भिन्न-भिन्न ढंग से उत्तर देते हैं।
सत्य
की संकल्पना अनेकार्थक है और बहुधा विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त की जाती
है। अपने दार्शिनिक अर्थ में यह शब्द, ज्ञान की अंतर्वस्तु तथा बाह्य जगत
के बीच एक निश्चित संबंध ( connection ) को व्यक्त करता है। ‘सत्य’ शब्द
चिंतन में वास्तविकता ( reality ) के शुद्ध, प्रामाणिक ( authentic )
परावर्तन को द्योतित करता है। सत्यता स्वयं वस्तुओं का अपना अनुगुण नहीं है, बल्कि मनुष्य के मन में उनका प्रामाणिक परावर्तन है। मार्क्स के विचार में सत्य का ज्ञान वस्तुओं, घटनाओं तथा प्रक्रियाओं को उस रूप में समझना है, जिस रूप में वे वास्तव में विद्यमान हैं।
प्राचीन दार्शनिक सत्य को सही ज्ञान के साथ जोड़ते थे, जो यथार्थता ( reality ) के अनुरूप ( corresponding ) होता था। इसका विलोम था भ्रम या मिथ्या ज्ञान,
जो यथार्थता को विरूपित ( deform ) करता है। अरस्तु ऐसे ज्ञान को सत्य
मानते थे, जिसमें बाह्य जगत से संबंधित निर्णय सही हैं। बाद में अनेक
दार्शनिक इस बात पर सहमत हुए कि सत्य, यथार्थता के साथ चिंतन की अनुरूपता, और जो हम जानते हैं उसके साथ ज्ञान की अनुरूपता है।
किंतु यह निरुपण प्रत्ययवादी और भौतिकवादी दोनों ही करते हैं, जबकि दर्शन
के बुनियादी प्रश्न का भिन्न-भिन्न उत्तर देते हुए वे चिंतन तथा यथार्थता
की अनुरूपता को भिन्न-भिन्न ढंग से समझते और व्याख्यायित करते हैं।
मसलन, वस्तुगत प्रत्ययवादी ( objective idealist ) अफ़लातून
सत्य को शाश्वत ( eternal ), अपरिवर्तनीय प्रत्ययों ( ideas ) के साथ
हमारे ज्ञान की अनुरूपता समझते थे। उनके दृष्टिकोण से भौतिक विश्व का
ज्ञान सत्य नहीं हो सकता है, क्योंकि भौतिक विश्व अस्थिर और परिवर्तनशील
है, और सत्य किसी शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील चीज़ से ही संबंधित हो सकता है।
वहीं, एक और वस्तुगत प्रत्ययवादी हेगेल
सत्य को परम आत्मा ( absolute spirit ) के, निरपेक्ष प्रत्यय ( absolute
idea ) के साथ हमारे ज्ञान की अनुरूपता मानते थे। उनकी राय में, मानव
ज्ञान का लक्ष्य निरपेक्ष प्रत्यय के साथ पूर्ण संगतता ( coincidence ) है
और सत्य इसी संगतता में निहित है।
मार्क्स
से पहले के अधिकांश भौतिकवादी यह समझते थे कि सत्य, वस्तुगत भौतिक जगत के
साथ हमारे ज्ञान की अनुरूपता है। लेकिन मुख्य कठिनाई ठीक इसी की वजह से
पैदा हुई, यानी इस बात से कि इस अनुरूपता को कैसे परखा जाये,
कैसे प्रमाणित ( establish ) किया जाये ? यदि इसका साधन, माप या कसौटी,
संवेदन ( sensation ) हैं, तो कठिनाइयां और भी ज़्यादा होतीं क्योंकि
संवेदन स्वयं भ्रामक ( deceptive ) हो सकता है। यदि सत्य की कसौटी स्वयं
मनुष्य की तर्कबुद्धि ( reason ) में निहित है, तो वह देर-सवेर प्रत्ययवाद
पर पहुंचा देती है ( देखें - ज्ञान के स्रोतों के बारे में एक वार्ता )।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
1 टिप्पणियां:
सत्य भी पूर्णता का अभिलाषी होता है : ---
पहले भी मनुष्य ही थे यह सत्य है कैसे देव तुल्य थे यह पूर्णत:सत्य है..,
अब भी मनुष्य ही हैं यह भी सत्य है कैसे पशु तुल्य हैं यह पूर्णत: सत्य है.....
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