हे मानवश्रेष्ठों,
वैज्ञानिक संज्ञान की पद्धतियों की प्रणाली
( the system of methods of scientific cognition )
इस बार इतना ही।
समय अविराम
यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत वैज्ञानिक संज्ञान के रूपों प्रयोग और प्रेक्षण की महत्ता को समझने की कोशिश की थी, इस बार हम वैज्ञानिक संज्ञान की पद्धतियों पर चर्चा शुरू करेगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
वैज्ञानिक संज्ञान की पद्धतियों की प्रणाली
( the system of methods of scientific cognition )
आधुनिक
विज्ञान तेज़ी से विकसित हो रहा है। यह मूल कणों से लेकर सितारों तक, जीवित
अंगियों से लेकर रोबोटों तक, एक व्यक्ति के मन से लेकर सारे समाज के
पैमाने पर सामाजिक रूपांतरणों ( transformations ) तक प्रकृति व समाज की
अत्यंत विविधतापूर्ण वस्तुओं का अध्ययन करता है। यह नये विज्ञानों की रचना
तथा निर्माण की ओर ले जाता है, जिसे वैज्ञानिक ज्ञान के विभेदीकरण
( differentiation ) की प्रक्रिया कहते हैं। विज्ञान के विभेदीकरण के
फलस्वरूप संज्ञान की अनेक विविधतापूर्ण, विशेषीकृत वैज्ञानिक अध्ययन
विधियों/पद्धतियों का विकास हो रहा है।
साथ ही एक विपरीत प्रक्रिया, यानी विज्ञान के एकीकरण
( integration ) की प्रक्रिया भी चल रही है, जो इस तथ्य में व्यक्त होती
है कि कुछ विज्ञानों द्वारा विकसित नियमों तथा नियमितताओं का अन्य
विज्ञानों में उपयोग होने लगता है। भौतिकी तथा रसायन में बनी संकल्पनाएं (
concepts ) जीवित अंगियों के अध्ययन में इस्तेमाल की जा रही हैं। आर्थिक
नियमों को समाज के इतिहास का अध्ययन करने के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है
और रोबोटों का निर्माण करने में मनोविज्ञान की उपलब्धियों का उपयोग होता
है, आदि। किंतु विज्ञान के इस एकीकरण की सबसे महत्त्वपूर्ण अभिव्यक्ति संज्ञान की आम वैज्ञानिक विधियों
का विकास व गहनीकरण है, जिन्हें हर प्रकार के अनुसंधान कार्य में लागू तथा
प्रयुक्त किया जाता है। उनका अध्ययन करना संज्ञान के सिद्धांत का एक
महत्त्वपूर्ण कार्य है।
विश्व का क्रांतिकारी रूपांतरण उसके वैज्ञानिक संज्ञान के आधार पर किया जाता है।
इसके लिए आवश्यक है कि वस्तुओं, प्रक्रियाओं या घटनाओं की विशिष्टताओं,
उनके आंतरिक संयोजनों ( connections ) और संबंधों पर समुचित ध्यान दिया
जाये। इसलिए ही संज्ञान की पद्धतियां सिद्धांत से, विचाराधीन वस्तु,
प्रक्रिया या घटना की क्रिया और विकास के नियमों के से निकटता से जुड़ी
हैं। सिद्धांत ( theory ) और पद्धति ( method ) सापेक्षतः ऐसे स्वाधीन रूप
हैं, जिनसे मनुष्य परिवेशीय वस्तुगत यथार्थता ( objective reality ) पर
नियंत्रण कायम करता है। जहां सिद्धांत
वैज्ञानिक ज्ञान के संगठन का एक रूप है, जो यथार्थता के एक निश्चित
क्षेत्र के नियमों, मौलिक संयोजनों और संबंधों की पूर्ण रूपरेखा पेश करता
है, वहीं पद्धति यथार्थता पर सैद्धांतिक और व्यावहारिक नियंत्रण हासिल करने के तरीक़ो और संक्रियाओं का साकल्य ( totality ) है, जो लोगों को उनके संज्ञानात्मक और लक्ष्योन्मुख ( goal-oriented ) रूपांतरणकारी क्रियाकलाप में निर्देशित करता है।
अतः
सिद्धांत स्पष्टीकरण का काम करता है, यह दर्शाता है कि कौनसे आवश्यक
अनुगुण ( properties ) और संयोजन वस्तु में अंतर्भूत ( immanent ) हैं और
उसकी क्रिया और विकास किन नियमों से संचालित होते हैं। जहां तक पद्धति का
प्रश्न है, वह एक नियामक ( regulative ) कार्य करती है, यह दर्शाती है कि
विषयी ( subject ) को उस विषय ( object ) के प्रति किस प्रकार का रवैया
अपनाना चाहिये, जिसे वह समझना या रूपांतरित करना चाहता है तथा अपने लक्ष्य
को पाने के लिए उसे कौनसी संज्ञानात्मक या व्यावहारिक क्रियाएं करनी
चाहिये। विचाराधीन विषय का वर्णन करने में सिद्धांत यह दर्शाता है कि इस समय यह विषय क्या है, पर पद्धति यह सुझाती है कि उस विषय पर क्या कार्रवाई की जाये।
परंतु सिद्धांत और पद्धति काफ़ी स्वाधीन होते तथा भिन्न-भिन्न काम करते हुए भी हमेशा अंतर्संबंधित और परस्पर आश्रित
होते हैं। किसी सिद्धांत के बल पर निरूपित ( elaborated ) किसी भी पद्धति
के लिए संज्ञानात्मक या व्यावहारिक लक्ष्यों की प्राप्ति में कारगर होने
के वास्ते यह जरूरी है कि उसके उसूल ( principles ) उस वस्तु के अनुगुणों
और संबंधों को परावर्तित करे, जो संज्ञान या व्यावहारिक कार्यों की लक्ष्य
है। सिद्धांत इन अनुगुणों और संबंधों को प्रकट तथा स्पष्ट करता है। इसके
साथ ही सिद्धांत में उस वस्तु के अनुगुणों व संबंधों के स्पष्टीकरण की
गहनता ( depth ) और प्रामाणिकता तथा व्यवहार में उसके रूपांतरण की गहराई
और कारगरता ( effectiveness ), संज्ञान तथा व्यावहारिक क्रिया की समुचित (
appropriate ) पद्धतियों के उपयोग पर निर्भर होती है।
इस बार इतना ही।
जाहिर
है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई
द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।समय अविराम
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