हे मानवश्रेष्ठों,
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मृति के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर विचार किया था, इस बार हम स्मृति के शरीरक्रियात्मक और जीवरासायनिक सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
यहां पर मनोविज्ञान पर कुछ सामग्री लगातार एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को समझने की कड़ी के रूप में स्मृति के मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर विचार किया था, इस बार हम स्मृति के शरीरक्रियात्मक और जीवरासायनिक सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे।
यह ध्यान में रहे ही कि यहां सिर्फ़ उपलब्ध ज्ञान का समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।
स्मृति के शरीरक्रियात्मक सिद्धांत
( physiological principles of memory )
( physiological principles of memory )
स्मृति क्रियातंत्रों के शरीरक्रियात्मक सिद्धांत उच्चतर तंत्रिका-सक्रियता के नियमों से संबंधित सिद्धांत की मूल प्रस्थापनाओं से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। अनुकूलित ( conditioned ) कालिक संबंधों के निर्माण का सिद्धांत मनुष्य के वैयक्तिक अनुभव के निर्माण का, यानि ‘शरीरक्रियात्मक स्तर पर स्मरण’ की प्रक्रिया का सिद्धांत है। वास्तव में अनुकूलित प्रतिवर्त ( conditioned reflex ), नयी तथा पहले से विद्यमान अंतर्वस्तु के बीच संबंध स्थापित करने की क्रिया होने के कारण, स्मरण की क्रिया के शरीरक्रियात्मक आधार का ही काम करता है।
इस क्रिया के कार्य-कारण संबंध को समझने के लिए प्रबलन ( reinforcement ) की अवधारणा अत्यधिक महत्त्व रखती है। अपने शुद्ध रूप में प्रबलन, मनुष्य द्वारा अपने कार्य के प्रत्यक्ष लक्ष्य को पाना ही है। अन्य मामलों में यह एक उद्दीपक है, जो क्रिया को किसी निश्चित दिशा में अभिप्रेरित अथवा संशोधित करता है। प्रबलन क्रिया के उद्देश्य के साथ नवनिर्मित संबंध के संयोग ( combination ) का परिणाम होता है, ज्यों ही संबंध का लक्ष्य की प्राप्ति के साथ संयोग हो जाता है, वह सुस्थिर और दृढ़ बन जाता है। मनुष्य की क्रियाशीलता के नियमन में, प्रतिवर्त वलय के बंद होने में प्रबलन बुनियादी महत्त्व रखता है।
अपने जीवनावश्यक प्रकार्य की दृष्टि से स्मृति विगत की बजाय भविष्य की ओर लक्षित है। विगत की स्मृति की व्यर्थ होगी, यदि उसे भविष्य में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। सफल कार्यों के परिणामों का संचयन ( accumulation ), भावी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उनकी उपयोगिता का प्रसंभाव्यतामूलक पूर्वानुमान ( potential-oriented prediction ) है।
इन्हीं सिद्धांतों से ही घनिष्ठतः जुड़ा हुआ स्मृति का भौतिक सिद्धांत है। इसे यह नाम इसके प्रतिपादकों के इस दावे के कारण दिया गया है कि न्यूरानों के किसी निश्चित समूह से गुजरते हुए तंत्रिका-आवेग अपने पीछे साइनेप्सों ( न्यूरानों के संधिस्थलों ) के वैद्युत एवं यांत्रिक परिवर्तनों के रूप में एक भौतिक छाप छोड़ जाता है। ये परिवर्तन, आवेग का अपने पूर्वनिर्धारित पथ से गुज़रना आसान बना देते हैं।
वैज्ञानिकों का विश्वास है कि किसी भी वस्तु के परावर्तन के साथ, उदाहरण के लिए, चाक्षुष प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में आंख द्वारा उस वस्तु की रूपरेखा अंकित किये जाने के साथ, न्यूरानों के एक निश्चित समूह के बीच से तंत्रिका-आवेग गुज़रता है, जो जैसे कि प्रत्यक्ष का विषय बनी हुई वस्तु का मॉडल बनाते हुए न्यूरानों की संरचना में एक स्थिर देशिक तथा कालिक छाप छोड़ जाता है ( इसीलिए भौतिक सिद्धांत को कभी-कभी न्यूरान मॉडलों का सिद्धांत भी कहा जाता है)। इस सिद्धांत के समर्थकों के अनुसार न्यूरान मॉडलों का निर्माण तथा बाद में उनका सक्रियीकरण ही याद करने, रखने और पुनर्प्रस्तुत करने का क्रियातंत्र है।
स्मृति के जीवरासायनिक सिद्धांत
( biochemical principles of memory)
इस क्रिया के कार्य-कारण संबंध को समझने के लिए प्रबलन ( reinforcement ) की अवधारणा अत्यधिक महत्त्व रखती है। अपने शुद्ध रूप में प्रबलन, मनुष्य द्वारा अपने कार्य के प्रत्यक्ष लक्ष्य को पाना ही है। अन्य मामलों में यह एक उद्दीपक है, जो क्रिया को किसी निश्चित दिशा में अभिप्रेरित अथवा संशोधित करता है। प्रबलन क्रिया के उद्देश्य के साथ नवनिर्मित संबंध के संयोग ( combination ) का परिणाम होता है, ज्यों ही संबंध का लक्ष्य की प्राप्ति के साथ संयोग हो जाता है, वह सुस्थिर और दृढ़ बन जाता है। मनुष्य की क्रियाशीलता के नियमन में, प्रतिवर्त वलय के बंद होने में प्रबलन बुनियादी महत्त्व रखता है।
अपने जीवनावश्यक प्रकार्य की दृष्टि से स्मृति विगत की बजाय भविष्य की ओर लक्षित है। विगत की स्मृति की व्यर्थ होगी, यदि उसे भविष्य में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। सफल कार्यों के परिणामों का संचयन ( accumulation ), भावी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उनकी उपयोगिता का प्रसंभाव्यतामूलक पूर्वानुमान ( potential-oriented prediction ) है।
इन्हीं सिद्धांतों से ही घनिष्ठतः जुड़ा हुआ स्मृति का भौतिक सिद्धांत है। इसे यह नाम इसके प्रतिपादकों के इस दावे के कारण दिया गया है कि न्यूरानों के किसी निश्चित समूह से गुजरते हुए तंत्रिका-आवेग अपने पीछे साइनेप्सों ( न्यूरानों के संधिस्थलों ) के वैद्युत एवं यांत्रिक परिवर्तनों के रूप में एक भौतिक छाप छोड़ जाता है। ये परिवर्तन, आवेग का अपने पूर्वनिर्धारित पथ से गुज़रना आसान बना देते हैं।
वैज्ञानिकों का विश्वास है कि किसी भी वस्तु के परावर्तन के साथ, उदाहरण के लिए, चाक्षुष प्रत्यक्ष की प्रक्रिया में आंख द्वारा उस वस्तु की रूपरेखा अंकित किये जाने के साथ, न्यूरानों के एक निश्चित समूह के बीच से तंत्रिका-आवेग गुज़रता है, जो जैसे कि प्रत्यक्ष का विषय बनी हुई वस्तु का मॉडल बनाते हुए न्यूरानों की संरचना में एक स्थिर देशिक तथा कालिक छाप छोड़ जाता है ( इसीलिए भौतिक सिद्धांत को कभी-कभी न्यूरान मॉडलों का सिद्धांत भी कहा जाता है)। इस सिद्धांत के समर्थकों के अनुसार न्यूरान मॉडलों का निर्माण तथा बाद में उनका सक्रियीकरण ही याद करने, रखने और पुनर्प्रस्तुत करने का क्रियातंत्र है।
स्मृति के जीवरासायनिक सिद्धांत
( biochemical principles of memory)
स्मृति के क्रियातंत्रों के अध्ययन का तंत्रिकाक्रियात्मक स्तर वर्तमान काल में जीवरासायनिक ( biochemical ) स्तर के अधिकाधिक निकट आता जा रहा है और कई बार तो उससे एकाकार भी हो जाता है। इसकी पुष्टि इन दो क्षेत्रों के संधिस्थल पर किये गए अनुसंधानों से होती है। इन अनुसंधानों के आधार पर, मिसाल के लिए, यह प्राक्कल्पना प्रतिपादित की गई है कि स्मरण की प्रक्रिया दो चरणों में संपन्न होती है। पहले चरण में मस्तिष्क में क्षोभक की क्रिया के तुरंत बाद घटनेवाली एक अल्पकालिक विद्युत-रासायनिक अभिक्रिया न्यूरानों में प्रत्यावर्तनीय ( repatriable ) शरीरक्रियात्मक ( physiological ) परिवर्तन पैदा करती है। दूसरा चरण, जो पहले चरण के आधार पर पैदा होता है, स्वयं जीवरासायनिक अभिक्रिया ( biochemical reaction ) का चरण, जिसके फलस्वरूप नये प्रोटीन बनते हैं। पहला चरण कुछ सैकंड या मिनट जारी रहता है और अल्पकालिक ( short-term ) स्मरण का शरीरक्रियात्मक क्रियातंत्र माना जाता है। दूसरा चरण न्यूरानों में अप्रत्यावर्तनीय रासायनिक परिवर्तन लाता है और दीर्घकालिक ( long-term ) स्मृति का क्रियातंत्र माना जाता है।
यदि प्रयोगाधीन जीव को कुछ करना ( या न करना ) सिखाया जाए और फिर अल्पकालिक विद्युतरासायनिक अभिक्रिया को उसके जीवरासायनिक अभिक्रिया में बदलने से पहले कुछ क्षण के लिए रोक दिया जाए, तो उसे याद नहीं रहेगा कि उसे क्या सिखाया गया था।
यदि प्रयोगाधीन जीव को कुछ करना ( या न करना ) सिखाया जाए और फिर अल्पकालिक विद्युतरासायनिक अभिक्रिया को उसके जीवरासायनिक अभिक्रिया में बदलने से पहले कुछ क्षण के लिए रोक दिया जाए, तो उसे याद नहीं रहेगा कि उसे क्या सिखाया गया था।
एक प्रयोग में चूहे को फ़र्श से थोड़ा ही ऊंचे चबूतरे पर रख गया। चूहा कूदकर तुरंत नीचे आ जाता था। किंतु ऐसी एक कूद के दौरान बिजली के धक्के से पीड़ा अनुभव करके चूहा इस प्रयोग के २४ घंटे बाद भी चबूतरे पर रखे जाने पर ख़ुद नीचे नहीं कूदा और अपने वहां से हटाए जाने का इंतज़ार करता रहा। दूसरे चूहे के मामले में अल्पकालिक स्मृति को बिजली के धक्के के तुरंत बाद अवरुद्ध कर दिया गया। नतीजे के तौर पर अगले रोज़ उस चूहे ने यों बर्ताव किया कि जैसे कुछ हुआ ही न हो।
विदित है कि मनुष्य भी यदि थोड़े समय के लिए चेतना खो बैठता है, तो वह इससे तुरंत पहले की सभी घटनाओं को भूल जाता है। बहुत करके स्मृति से बाह्य प्रभाव की वे छापें विलुप्त होती हैं जिन्हें संबद्ध जीवरासायनिक परिवर्तनों के शुरू होने से पहले अल्पकालिक विद्युत-रासायनिक अभिक्रिया में व्यवधान के कारण अपने स्थायीकरण के लिए समय नहीं मिल पाया था।
स्मृति के रासायनिक सिद्धांतों के पक्षधरों का कहना है कि छापों का स्थायीकरण, धारण और पुनर्प्रस्तुति बाह्य क्षोभकों के प्रभाव के कारण न्यूरानों में आनेवाले रासायनिक परिवर्तन, न्यूरानों के प्रोटीनी अणुओं, विशेषतः तथाकथित न्यूक्लीकृत अम्ल के अणुओं के विभिन्न पुनर्समूहनों ( re-grouping ) के रूप में व्यक्त होते हैं। डीएनए ( डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को आनुवंशिक ( genetic ) स्मृति का वाहक माना जाता है और आरएनए ( राइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को व्यक्तिवृत्तीय, वैयक्तिक ( individual ) स्मृति का आधार। प्रयोगों ने दिखाया है कि न्यूरान के क्षोभन से उसमें आरएनए की मात्रा बढ़ जाती है और स्थायी जीवरासायनिक चिह्न छूट जाते हैं, जिससे न्यूरान परिचित क्षोभकों की बारंबार क्रिया के उत्तर में सस्पंदन करने में समर्थ हो जाते हैं।
नवीनतम अनुसंधानों, विशेषतः जीवरासायनिक अनुसंधानों के परिणामों से भविष्य में मानव स्मृति के नियंत्रण की संभावना के बारे में आशाएं बंधी हैं। किंतु उन्होंने बहुर सारे मिथ्या और कभी-कभी तो बेसिर-पैर विचारों को भी जन्म दिया है, जैसे यह कि तब तंत्रिका-तंत्र पर प्रत्यक्ष रासायनिक प्रभाव डालकर लोगों को सिखाना, विशेष स्मृतिपोषक गोलियों के ज़रिये ज्ञान अंतरित करना, आदि संभव हो जाएंगे।
इस संबंध में उल्लेखनीय है कि यद्यपि मनुष्य की स्मृति-प्रक्रियाओं में सभी स्तरों पर तंत्रिका-संरचनाओं की अत्यंत जटिल अन्योन्यक्रिया शामिल है, फिर भी उनका निर्धारण ‘ऊपर से’, यानि मनुष्य की सक्रियता द्वारा होता है और उनके कार्य का सिद्धांत ‘समष्टि से अंशों की ओर’ है। इस सिद्धांत के अनुसार बाह्य प्रभावों की छापों का साकारीकरण शरीर-अंग-कोशिका दिशा में होता है, न कि इसके विपरीत दिशा में। स्मृति के कोई भी भैषजिक ( pharmaceutical ) उत्प्रेरक इस बुनियादी तथ्य को नहीं बदल सकते। रासायनिक क्रियातंत्र आनुषंगिक ( commensurate ) तथा सक्रियता का व्युत्पाद ( derivative ) होते हैं, इसलिए मस्तिष्क में तैयारशुदा रासायनिक द्रव्य सीधे पहुंचाकर नहीं बनाये जा सकते।
स्मृति के रासायनिक सिद्धांतों के पक्षधरों का कहना है कि छापों का स्थायीकरण, धारण और पुनर्प्रस्तुति बाह्य क्षोभकों के प्रभाव के कारण न्यूरानों में आनेवाले रासायनिक परिवर्तन, न्यूरानों के प्रोटीनी अणुओं, विशेषतः तथाकथित न्यूक्लीकृत अम्ल के अणुओं के विभिन्न पुनर्समूहनों ( re-grouping ) के रूप में व्यक्त होते हैं। डीएनए ( डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को आनुवंशिक ( genetic ) स्मृति का वाहक माना जाता है और आरएनए ( राइबोन्यूक्लिक अम्ल ) को व्यक्तिवृत्तीय, वैयक्तिक ( individual ) स्मृति का आधार। प्रयोगों ने दिखाया है कि न्यूरान के क्षोभन से उसमें आरएनए की मात्रा बढ़ जाती है और स्थायी जीवरासायनिक चिह्न छूट जाते हैं, जिससे न्यूरान परिचित क्षोभकों की बारंबार क्रिया के उत्तर में सस्पंदन करने में समर्थ हो जाते हैं।
नवीनतम अनुसंधानों, विशेषतः जीवरासायनिक अनुसंधानों के परिणामों से भविष्य में मानव स्मृति के नियंत्रण की संभावना के बारे में आशाएं बंधी हैं। किंतु उन्होंने बहुर सारे मिथ्या और कभी-कभी तो बेसिर-पैर विचारों को भी जन्म दिया है, जैसे यह कि तब तंत्रिका-तंत्र पर प्रत्यक्ष रासायनिक प्रभाव डालकर लोगों को सिखाना, विशेष स्मृतिपोषक गोलियों के ज़रिये ज्ञान अंतरित करना, आदि संभव हो जाएंगे।
इस संबंध में उल्लेखनीय है कि यद्यपि मनुष्य की स्मृति-प्रक्रियाओं में सभी स्तरों पर तंत्रिका-संरचनाओं की अत्यंत जटिल अन्योन्यक्रिया शामिल है, फिर भी उनका निर्धारण ‘ऊपर से’, यानि मनुष्य की सक्रियता द्वारा होता है और उनके कार्य का सिद्धांत ‘समष्टि से अंशों की ओर’ है। इस सिद्धांत के अनुसार बाह्य प्रभावों की छापों का साकारीकरण शरीर-अंग-कोशिका दिशा में होता है, न कि इसके विपरीत दिशा में। स्मृति के कोई भी भैषजिक ( pharmaceutical ) उत्प्रेरक इस बुनियादी तथ्य को नहीं बदल सकते। रासायनिक क्रियातंत्र आनुषंगिक ( commensurate ) तथा सक्रियता का व्युत्पाद ( derivative ) होते हैं, इसलिए मस्तिष्क में तैयारशुदा रासायनिक द्रव्य सीधे पहुंचाकर नहीं बनाये जा सकते।
इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
जाहिर है, एक वस्तुपरक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए कई संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय
4 टिप्पणियां:
मुझे लगता है कि वैज्ञानिक शब्दावली और तथ्यों की गहराई में जाए बिना आप स्मृति की प्रणाली या मष्तिष्क की विविध प्रक्रियाओं के बारे में अधिक स्पष्टता से कुछ नहीं कह सकते.
वर्ष 1900 तक तो चिकित्सा विज्ञानं में यही माना जाता था कि मनोवैज्ञानिक प्रभाव ही हमारे व्यक्तित्व की रचना करते हैं और विसंगतियों की रचना भी इन्हीं से होती है. बाद में वैज्ञानिक प्रगति के साथ ही इस बात के भेद खुले कि adrenaline, dopamine, acetyl-choline, serotonin आदि रसायन तंत्रिका बंधों में सूचनाओं और भावनाओं का संचार करते हैं और उनके स्त्राव में आनेवाली कमी या अधिकता असामान्यताओं को जन्म देती है.
अल्जीमर्स के क्षेत्र में हो रही शोध के परिणाम विस्मयकारी हैं. स्मृति का लोप तो संभव नहीं है बल्कि झूठी स्मृतियों की रचना भी की जा सकती है.
मैं आपको एक रोचक पुस्तक (The Man Who Mistook His Wife For A Hat and other clinical tales by Oliver Sacks) भेजना चाहता हूँ. कोशिश करता हूँ कि आपका ईमेल खोजकर उसपर भेज दूं.
जैसा कि मेल के ज़रिए मानवश्रेष्ठ निशांत मिश्र ने अपनी बात को और बेहतरी से रखा:
मित्र समय,
आपकी मेल के लिए धन्यवाद. आपका कहना सही हो सकता है कि मेरी टिपण्णी से मेरा मंतव्य स्पष्ट नहीं हुआ. यदि उसे मैं दोबारा कहना चाहूं तो यह कहूँगा कि अब आधुनिक मनोविज्ञान भी रासायनिक परिवर्तनों को ही हमारे व्यक्तित्व और इसकी विषमताओं का आधार मानने लगा है हांलांकि इसपर भी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं. यह तो सिद्ध हो चुका है कि रासायनिक कार्य प्रणाली में परिवर्तन आनेपर हमारे मनोभाव, आवेग आदि परिवर्तित हो जाते हैं पर यह अभी पूर्णतः सिद्ध नहीं हुआ है कि मनोविज्ञानिक स्थिति में परिवर्तन भी रासायनिक गतिविधि को प्रभावित करते है. इसका उदाहरण मैं यह दे सकता हूँ कि रसायन एंडोर्फिन की अधिकता यूफोरिया की स्थिति उत्पन्न करती है पर यदि कोई व्यक्ति स्वतः यूफोरिक हो तो उसके एंडोर्फिन के स्तर में औरों की तुलना में कोई खास बढ़त नहीं देखी गयी है.
मूलतः यदि आप देखें तो यह पायेंगे कि (शायद) जिसे हम अपना समग्र व्यक्तित्व और स्मृति मानते आये हैं वह विद्युत् सर्किट्स और संकेतों का ताना-बाना है जिसमें होनेवाला थोड़ा सा भी उलझाव हमें बदलकर रख देता है. सुख-दुःख, जीवन के उतार-चढ़ाव इस ताना-बाना को किस तरह प्रभावित करते हैं यह शोध का विषय है.
विषय कुछ ऐसा है कि मैं अधिक स्पष्टता से नहीं लिख पा रहा हूँ. जानकारी का अभाव भी इसका कारण है:)
शुभेच्छा,
निशांत.
मित्र निशांत,
अब आपकी बात अधिक स्पष्ट और ज्ञेय हुई कि आप किन प्रास्थापनाओं के साये में अपनी वह टिप्पणी कर रहे थे।
बात निर्धारी तत्व की भूमिका की है, कि कौन निर्धारक है, और आधारभूत है। यह व्यष्टि की सक्रियता के मनोवैज्ञानिक स्तर द्वारा अदा की जाती है या जैसा कि आप जिन प्रास्थापनाओं से प्रभावित दिख रहे हैं, रासायनिक संरचना में परिवर्तनों के द्वारा।
जैसा कि स्मृति के रासायनिक सिद्धांतों के पक्षधरों का कहना है कि छापों का स्थायीकरण, धारण और पुनर्प्रस्तुति बाह्य क्षोभकों के प्रभाव के कारण न्यूरानों में आनेवाले रासायनिक परिवर्तनों की बदौलत संभव बनते हैं। निस्संदेह रूप से, पहले की सक्रियता का उत्पाद होने की वज़ह से न्यूरानों के संरचनात्मक तथा रासायनिक परिवर्तन बाद के अधिक पेचीदे कार्यों के निष्पादन के क्रियातंत्र में शामिल होकर इन कार्यों की एक आवश्यक पूर्वापेक्षा बन जाते हैं। परंतु स्मृति समेत सभी संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के आधार में उसका परिवेश और अन्योन्यक्रियात्मक सक्रियता ही है। इसी को उपरोक्त प्रविष्टि में दर्शाया गया है।
हम इसे आसानी से अपने जीवन में झांक कर महसूस कर सकते हैं कि हमारे आवेगों और मनोभावों के मूल में क्या है। इसके लिए किसी विशिष्टीकृत ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ़ जरूरत चीज़ों के वस्तुगत विश्लेषण की है। हमारी सक्रियता, परिवेश के साथ हमारी अन्योन्यक्रिया हमारे लिए विभिन्न क्षोभकों का कार्य करती है और उन्हीं के हमारे अनुभवों के अनुरूप हम किसी विशेष मानसिक अवस्थाओं की स्थिति में आते हैं। हम यहां आगे व्यक्ति के इन्हीं संवेगात्मक क्षेत्रों पर भी चर्चा करेंगे। काफ़ी कुछ आधार पहली की कई प्रविष्टियों में पेश किया जा चुका है।
यहां उद्देश्य विषय की इस स्तर की गहनतम प्रस्तुति का नहीं है, यहां सिर्फ़ जरूरी मूल प्रास्थापनाओं को प्रस्तुत करना और उनके आलोक में मनुष्य की मानसिक सक्रियता और संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं पर एक समेकित अवलोकन से गुजरना मात्र है। हां यह अवश्य है कि प्रचलित अंतर्विरोधी मतों के बरअक्स एक अधिक सटीक दिशा की ओर स्पष्ट संकेत भी अभीष्ट है। यह इसलिए जरूरी हो जाता है कि यथास्थिति से लाभ उठा रही शक्तियां फिलहाल अपनी निर्धारक अवस्थिति के कारण वास्तविकता के वस्तुगत ज्ञान को विकृत करने और भ्रमित करने वाले हितानुकूल दृष्टिकोणों को ज़्यादा पोषित और प्रचारित करती हैं। हमारे चारों ओर अधिकतर इसी तरह की सामग्री सामान्यताः उपलब्ध रहती है, और लोगों के आम दृष्टिकोणों को प्रभावित और नियमित करती रहती है।
यही इस प्रास्थापना के मूल में है कि आधुनिक मनोविज्ञान भी रासायनिक परिवर्तनों को ही हमारे व्यक्तित्व और इसकी विषमताओं का आधार मानने लगा है। यह प्रास्थापना, वास्तविकता के सापेक्ष सरासर गलत है, और कुछ तथ्यों की मनमानी व्याख्या का परिणाम है। इससे क्या स्थापित होता है? यही की मानव के सभी आवेगों, मनोभावों ( इसमें आजकल की सारी नकारात्मक प्रवृत्तियों, मानसिक असंतुलनों, व्यक्तिवादी रुझानों, समाज के लिए खतरनाक वृत्तियों, आदि को भी शामिल कर लिया जाए ) के मूल में सिर्फ़ कुछ रासायनिक परिवर्तन मात्र हैं। हमारे व्यक्तित्वों और विषमताओं का निर्धारण हमारी परिवेशगत स्थितियों और हमारी सक्रियताओं से नहीं, बल्कि कुछ रसायनों द्वारा होता है। यह भ्रम पैदा करने वाली बात किस का हित साध सकती है साफ़ इंगित है। इससे इस तरह के निष्कर्षों पर ही पहुंचा जा सकता है कि फिलहाल की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में सावचेत परिवर्तनकारी और इन्हें ठीक करने की गतिविधियों की जरूरत नहीं है, सब ठीक चल रहा है, इस गड़बड़झाले और सारी समस्याओं की जड़ में कुछ रसायन और उनके कारण पैदा हुई कुछ व्यक्तिगत प्रवृत्तियां हैं।
हमें इसी तरह के सुनिश्चित दृष्टिकोणों के साथ उपलब्ध चीज़ों को समझना चाहिए। आज की कई नवीनतम वस्तुगत उपलब्धियां जब भी हमारी पहुंच में होंगी उनसे भी इसी तरह जूझा जाएगा। हम भी इसी तरह की कोशिशों में रहते हैं।
शायद आप इसे समझना चाहें। नहीं, तो कोई बात है ही नहीं, सब बेहतर है और हमें उपलब्ध व्यक्तिगत आनंद में जुटा रहना चाहिए।
बात तथा दृष्टिकोण को और अधिक खोल कर रख पाने का अवसर उपलब्ध करवाने के लिए, आपका शुक्रिया।
समय
i am very glad to found this blog at time........
adarniya samayaji,
thanx for this post.......
pranam.
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