हे मानवश्रेष्ठों,
अपेक्षाओं में द्वंद और अंतर्विरोध
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।
आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
अपेक्षाओं में द्वंद और अंतर्विरोध
"पहले और अभी में, आपकी अपने आप से की जा रही अपेक्षाओं और ज्ञान तथा समझ की बढ़ोतरी का अंतर है। इसीलिए व्यवहार में सचेतनता बढ़ जाती है और आप कुछ ज़्यादा ही सतर्क हो उठते से लगते हैं, जिसके कि कारण इस तरह के लक्षण कभी-कभी हावी होते हैं।" यह बात कुछ स्पष्ट नहीं हुई।
हम अपनी आयु के हिसाब से परिवेश, समाज के साथ निरंतर अंतर्क्रिया ( interaction ) करते रहते हैं। हम एक व्यक्ति के नाते समाज और परिवार के विभिन्न व्यक्तियों के साथ अलग-अलग स्तरों के अंतर्संबध
बनाते हैं। हम अपने लिए लोगों से कुछ अपेक्षाएं करते हैं, और साथ ही यह भी
समझने लगते हैं कि इसी तरह अन्य लोग भी हमसे कुछ अपेक्षाएं करते होंगे।
इन्हीं की पूर्ति के आधारों पर हम अपने मन में लोगों की छवि ( image )
बनाते हैं और उन्हें तौलते हैं। इसी तरह हम अपने आपको भी अपनी छवि और उसकी
पूर्तियों के हिसाब से तौलते रहते हैं।
हम लोगों के मन में अपनी
बनती जा रही छवि के अनुरूप ही, अपने प्रति लोगों की अपेक्षाओं की पूर्ति
के हिसाब से अपने आप से कुछ निश्चित अपेक्षाएं पालते हैं कि हमें यह करना
चाहिए, यह नहीं करना चाहिए, इसे तो हमें बेहतरी से करना ही चाहिए। हमारी बेहतर छवि को हम तोड़ना नहीं चाहते।
जैसे-जैसे
हमारी आयु बढ़ती है, समझ और हमारा ज्ञान बढ़ता जाता है, हमारे परिवेश के
लोगों के साथ हमारे अंतर्संबंधों में भी परिवर्तन आते जाते हैं, उनकी
अपेक्षाएं भी बढ़ती है। और इसीलिए हम भी अपने आप से अधिक अपेक्षाएं पालने
लगते हैं। अपनी छवि और अपनी उपयोगिता, श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए, हम इन अपेक्षाओं और उनकी पूर्ति के प्रति सचेत ( conscious ) होते जाते हैं। अपनी सक्रियता तथा अपने व्यवहार और उसके प्रभावों के प्रति सतर्क हो जाते हैं, उन पर अतिरिक्त ध्यान देने लगते हैं। यह अतिरिक्त सतर्कता, हमारी सक्रियता में थोडी अतिरिक्त असहजता पैदा करती है। जिससे कि वैसे लक्षण उत्पन्न होने की संभावनाएं बन जाती हैं।
यह
बढ़ा हुआ ज्ञान और समझ का स्तर, हमारी कई मान्यताओं को भी बदल सकता है और
यह भी हो सकता है कि लोगों की हमसे अपेक्षाओं और हमारे द्वारा ख़ुद से की
जारही अपेक्षाओं में भी द्वंद और अंतर्विरोध पैदा हो सकते हैं। जाहिर है
यह अंतर्विरोध भी, यह द्वंद भी हमारे व्यवहार को सतर्क और असहज बनाता है। जिससे भी कि वैसे लक्षण उत्पन्न होने की संभावनाएं बन जाती हैं।
शायद बात कुछ साफ़ हो पाई हो, हमारा उन पंक्तियों को लिखने का मंतव्य यही था।
"यह भी हो सकता है कि लोगों की हमसे अपेक्षाओं और हमारे द्वारा ख़ुद से
की जारही अपेक्षाओं में भी द्वंद और अंतर्विरोध पैदा हो सकते हैं। जाहिर
है यह अंतर्विरोध भी, यह द्वंद भी हमारे व्यवहार को सतर्क और असहज बनाता
है।" इस पर कुछ अधिक कहना होगा।
लगता तो है कि कुछ
अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इसकी समझ आपने अपने आत्म-विश्लेषण
में दिखाई है और कहा भी है कि "ये सब क्यों कहा, आप समझ रहे होंगे। इतनी
लम्बी बात बस अपेक्षाओं के अन्तर्विरोध की है।"
यानि आप अपने
परिवेश के लोगों द्वारा आपसे की जा रही अपेक्षाओं और आप जो अपने आप से
अपेक्षाएं करते हैं, उनके बीच अंतर्विरोधों को समझ पा रहे हैं। ये ही आपके
और आपके परिवार के बीच तनाव का कारण बने हुए हैं। आप अपनी अपेक्षाओं के
प्रति दृढ़ रहना चाहते हैं, और परिवार अपनी अपेक्षाओं के प्रति। दोनों दृढ़
हैं, और सचेत तथा सतर्क भी, स्पष्ट है कि ऐसी परिस्थितियों में मामला
सुलझने की राह निकलनी मुश्किल हो जाती है।
अभी आपने दर्शन नहीं पढ़ा है, शनैः शनैः पढ़ेंगे और समझेंगे ही, यह अत्यावश्यक है। द्वंदवाद सिखाता है कि हर चीज़ सदैव अपने आपसी द्वंद, अंतर्विरोधों में होती है।
लेकिन सिर्फ़ द्वंद, अंतर्विरोध ही होता है, उनमें से किसी एक की ही जीत
होने की संभावना हो तो निश्चित है कि वह चीज़ स्थिर नहीं रह सकती, अपना
ढ़ांचा नहीं बनाए नहीं रख सकती, नष्ट होने को अभिशप्त हो जाती है। तो यदि
चीज़ को अपनी उत्तरजीविता सुनिश्चित रखनी हो तो इन अंतर्विरोधों और द्वंदों में एक एकता, एक साम्य स्थापित करना होगा। साथ ही यह भी कि, इन द्वंदों का, अंतर्विरोधों का होना भी जरूरी है ताकि इनके हल करने की प्रक्रिया ही विकास की संभावना को रचती है।
यानि कि अंतर्विरोधों को हल करना और उनकी एकता स्थापित करना एक सही पद्धति
होनी चाहिए। हल करने पर ध्यान दिया जाना चाहिए, इसका मतलब इनपर अड़े रहना,
पलायन करना, जबरन नकारना, इनका हल नहीं हो सकता। आपकी, और समाज तथा देश की
अभी की परिस्थितियों के मद्देनज़र यही अभीष्ट है कि आपको अपनी अपेक्षाओं के अंतर्विरोधों के भी सर्वमान्य हलों की दिशा में सक्रिय होना चाहिए।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
1 टिप्पणियां:
"आपको अपनी अपेक्षाओं के अंतर्विरोधों के भी सर्वमान्य हलों की दिशा में सक्रिय होना चाहिए।"
मूल मंत्र तो यही है... आपकी पोस्ट्स food for thought टाइप होती हैं...
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