शनिवार, 25 मई 2013

हम अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं

हे मानवश्रेष्ठों,

काफ़ी समय पहले एक युवा मित्र मानवश्रेष्ठ से संवाद स्थापित हुआ था जो अभी भी बदस्तूर बना हुआ है। उनके साथ कई सारे विषयों पर लंबे संवाद हुए। अब यहां कुछ समय तक, उन्हीं के साथ हुए संवादों के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे है।

आप भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।



हम अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं

सुखदेव को भूख हड़ताल के दौरान एक पत्र में भगतसिंह कहते हैं:...
क्या आपका आशय यह है कि यदि हम इस क्षेत्र में न उतरे होते, तो कोई क्रांतिकारी कार्य कदापि नहीं हुआ होता? यदि ऐसा है तो आप भूल कर रहे हैं। यद्यपि यह ठीक है कि हम भी वातावरण को बदलने में बड़ी सीमा तक सहायक सिद्ध हुए हैं, तथापि हम तो केवल अपने समय की आवश्यकता की उपज हैं।

मैं तो यह भी कहूंगा कि साम्यवाद का जन्मदाता मार्क्स, वास्तव में इस विचार को जन्म देनेवाला नहीं था। असल में यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने ही एक विशेष प्रकार के विचारों वाले व्यक्ति उत्पन्न किए थे। उनमें मार्क्स भी एक था। हाँ, अपने स्थान पर मार्क्स भी निस्सन्देह कुछ सीमा तक समय के चक्र को एक विशेष प्रकार की गति देने में आवश्यक सहायक सिद्ध हुआ है।

इस पर थोड़ा सा कहना है। हो सकता है कि यह आप पसन्द न करें और इसे मेरी कमी या दुर्बलता करार दें।

इस तर्क के आधार पर यह भी तो कहा जा सकता है कि भारत के लोगों को मशीनों की आवश्यकता उस तरह नहीं थी कि यहाँ आविष्कार हो पाते। जब समय-भौगोलिक-सामाजिक परिस्थितियाँ आदि बड़े और प्रमुख कारण हैं, तो ऐसा अगर कोई कहे कि भारत के लोगों को दूर जाकर खाने की आवश्यकता नहीं थी, सो यहाँ गाड़ी-जहाज आदि नहीं बने। यहाँ युद्धों में यह खयाल किसी को नहीं आता था कि बहुत विनाशकारी हथियार आदि बनते। आदि आदि।

यह बहस नहीं, एक बिन्दु मात्र है।

पहली बात तो यह कि आप अपनी बात रखते समय यह क्यों चिंता करते हैं कि आपकी बात को आपकी कमी या दुर्बलता समझा या कहा जा सकता है। इसका दूसरा मतलब यह निकलता है कि आप अपने को इतने ऊंचाई पर महसूस करते हैं कि ऐसा समझा या कहा जाना आपके अहम् को बहुत नागवार गुजरता है। इसलिए बात के साथ यह पुछल्ला आपको पूर्वसुरक्षा की अवस्था में ले आता है जिसमें आप बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं।

बात यह है कि यदि वाकई हमको कोई भी बात ऐसी कमतर लगती है कि जिसपर हमें कमजोर या दुर्बल समझा जा सकता है, यानि बात वास्तव में कमजोर ही लग रही है, तो व्यक्ति उसे रखना ही पसंद नहीं करेगा, उसे कहना स्थगित रखेगा जब तक कि वह अपने स्तर के हिसाब से उसपर पूर्णतया सुनिश्चित नहीं हो लेगा।

यानि फिर भी किसी बचाव की पूर्वपीठिका या औपाचारिक भूमिका के साथ बात रखी जाती है तो इसका मतलब यह हुआ कि वह अपनी बात से पूर्णतया मुतमइन है, सुनिश्चित है, उसे रखा जाना जरूरी समझता है, सिर्फ़ व्यक्तिगत लिहाज या सम्मान के कारण यह औपचारिक तरीक़ा अपनाना उसे श्रेष्ठ लगता है ताकि व्यक्तिगत नाराज़गी पैदा ना हो सकें।

यह बात इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने के लिए कही गई है। साथ ही इसलिए भी हम अभी शुरुआती सीखने की अवस्थाओं में हैं, चीज़ों को समझना सीख रहे हैं, इसलिए अपने अहम् को तदअनुसार ही निचले स्तर पर रखने की कोशिश करनी चाहिए। यदि हम वाकई में सीखना चाहते हैं तो यह पद्धति ठीक रहती है। हमको यह लगने लगता है कि किसी भी बात से हमें जो समझ आ रहा है वही अंतिम सत्य है। आपके अंदर कभी-कभी इस महान चेतना के दर्शन हो जाते हैं और आप अलौकिक ब्रह्मचेतना के आभामंड़ल से प्रदीप्तमान हो उठते हैं। :-)

अब दूसरी बात, भगत सिंह वाली बात पर। किसी सिद्धांत की मूल प्रस्थापनाएं और उसकी वस्तुगत ठोस प्रस्तुति अलग चीज़ होती है, और किसी व्यक्ति द्वारा उसे जैसा भी समझा गया है के आधार पर प्रस्तुत की गई तर्क और व्याख्याएं अलग चीज़ होती हैं। इसलिए यह हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी की वैयक्तिक प्रस्तुति में आत्मपरकता का अंश हो सकता है, उसकी उस सिद्धांत के बारे में समझ और व्याख्याओं में कोई बारीक त्रुटि भी हो सकती है। अतएव यदि कोई संदेह पैदा सा होता लग रहा है, या कोई कमी सी महसूस हो रही है तो उन सिद्धांत संबंधी मूल प्रस्तुतियों को देखा या संदर्भित करना चाहिए।

इस बात का यहां मतलब नहीं है क्योंकि वे एक सही प्रस्थापना को ही रख रहे हैं। यह तो एक सामान्य सूत्र है जिसे हमेशा अपने ध्यान में रखना चाहिए।

भगतसिंह ने अपने अध्ययन के फलस्वरूप विकसित हुई चेतना के आधार पर सुखदेव को एक वाज़िब बात ही कही थी। और आपने भी उस तर्क श्रृंखला के आधार पर चीज़ों को समझने की दिशा में लगभग सही निष्कर्ष निकाले हैं।

मानवजाति द्वारा विकसित सभी कुछ, उसके विचार, उसकी संस्कृति उसकी वस्तुगत परिस्थितियों और आवश्यकताओं की उपज होती है। दुनिया के किसी भी हिस्से के इतिहास को इसी के आधार पर ही भली-भांति व्याख्यायित किया जा सकता है। परिस्थितियों के आधार पर पैदा हुई आवश्यकताओं के मद्देनज़र ही व्यक्तियों और विचारों के विकास को समझा जा सकता है।

यदि आप भारत में पैदा हुई संस्कृति और विचारों को समझना चाहते है तो निश्चित ही आपको सही दिशा मिल गई है। ये यहां की विपुल प्राकृतिक थाति का ही परिणाम है कि यहां ज़िंदा रहने के लिए, जैविकता के लिए प्रकृति से अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा, इसलिए यहां जीवन के लिए कृत्रिम साधनों का विकास कम हुआ, फलस्वरूप तकनीक और विज्ञान के पैदा होने की संभावनाएं कम थी, और खाली समय में काल्पनिक-आध्यात्मिक चिंतन की अधिक। यहां की उदारवादिता का उत्स भी इसी आधार में ढूंढ़ा जा सकता है कि थोडी बहुत हलचल सी के बाद यहां तुरंत दूसरों को भी जगह दे दी जाती थी, आत्मसात कर लिया जाता था। आप सही सोच रहे हैं, आदि-आदि। आगे कुछ समस्या हो तो बताएं।



इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।

समय

3 टिप्पणियां:

L.Goswami ने कहा…

अलौकिक ब्रह्मचेतना के आभामंड़ल से प्रदीप्तमान ...

:-)

प्रवीण ने कहा…

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मानवजाति द्वारा विकसित सभी कुछ, उसके विचार, उसकी संस्कृति उसकी वस्तुगत परिस्थितियों और आवश्यकताओं की उपज होती है। दुनिया के किसी भी हिस्से के इतिहास को इसी के आधार पर ही भली-भांति व्याख्यायित किया जा सकता है। परिस्थितियों के आधार पर पैदा हुई आवश्यकताओं के मद्देनज़र ही व्यक्तियों और विचारों के विकास को समझा जा सकता है।

इसे समझना कुछ मुश्किल सा लग रहा है... क्या यह माना जाये कि हिटलर का सत्तासीन होना और नाजीवाद का उदय-विकास तत्कालीन जर्मनी की परिस्थतियों के आधार पर पैदा हुई आवश्यकताओं के चलते हुआ था...


...

Unknown ने कहा…

आदरणीय प्रवीण जी,

शायद आपको ‘आवश्यकता’ शब्द के कारण सामंजस्य बिठाने में समस्या हो रही है। आपने जो उदाहरण दिया है उसमें तो इसका प्रयोग सीधा ऐसा भासित कर रहा है कि नाज़ीवाद के उदय ने वहां के समाज की तात्कालिक आवश्यकताओं को परावर्तित किया और उनकी पूर्ति की।

जाहिर है ऐसा नहीं था, यह हम सब जानते हैं, जान सकते हैं। इसलिए, विशिष्ट मामलों के विश्लेषण में, ग़लत निष्कर्षों पर पहुंचा सकने वाली सामान्य पारिभाषिक शब्दावली से बच लेना चाहिए। :-) शायद यहां आप सिर्फ़ ‘तात्कालिक वस्तुगत परिस्थितियों’ के प्रयोग के साथ अधिक मुतमइन रहें।

हम जानते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार, संधियों की उसके लिए शर्मनाक शर्तों, पूंजीवादी आर्थिक संकट और मंदी, बड़ी पूंजीगत इजारेदारियों का विजित राष्ट्रों द्वारा नष्ट कर दिया जाना, आदि ऐसी परिस्थितियां थीं, जिनमें तात्कालिक विश्व के अन्य देशों की भांति ही वैकल्पिक समाजवादी आकांक्षाएं जोर मार रही थीं। इन्हीं हालात में एक राष्ट्र के रूप में शर्मिंदगी की भावना के प्रतिकार के लिए हिटलर की उग्र राष्ट्रवाद और नस्लीय श्रेष्ठता की पुरजोर वक़ालत, मध्यमवर्गीय मानसिकताओं और आवश्यकताओं तथा साथ ही सामंती और पूंजीपति वर्ग की आकांक्षाओं को, जो कि निश्चित तौर पर समाजवादी-साम्यवादी शक्तियों को प्रभुत्व में नहीं देखना चाहती थी, अधिक रास आईं जो कि अंततः यहूदी विरोध की भावनाओं में अभिव्यक्ति पा रही थीं और हिटलर के सब-कुछ ठीक कर देने के नारों में अपनी हितबद्धताओं की पूर्ति की संभावनाएं पा रही थी।

आप अधिक जानकारी के लिए किसी आधिकारिक वस्तुगत अध्ययन से गुजर सकते हैं, और इन्हीं प्रभावशाली वर्गों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं में नाजीवाद के उत्स और उदय के आधारों को पा सकते हैं, और यह भी कि यह संपूर्ण समाज की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं का परावर्तन नहीं था।

आवश्यकताएं, वास्तविक परिस्थितियों की उपज होती हैं। अगर मानसिक भी भासित हो रही हों तो उनका उत्स इन्हीं में खोजा जा सकता है। यह अलग बात है कि इन वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किस तरह के कदम उठाए जाते हैं। ये कदम भी वास्तविक ही होंगे और व्यक्ति या समूह की विश्लेषण क्षमताओं, मान्यताओं, आस्थाओं, दृष्टिकोणों, अनुकूलनों आदि पर निर्भर करेंगे, जो कि फिर से अंततः उस व्यक्ति या समूह की विशिष्ट परिस्थितियों पर आधारित होंगे। इन कदमों के परिणाम, इनके वास्तविक निगमन, संपूर्ण समाज के संदर्भों में इनकी परिणतियां बाद के लोगों को इनके प्रति अपनी राय तय करने में मदद करती हैं।

आशा है, आप जल्दबाजी में लिख दी गई इस चक्रिक सी तार्किकता से अपने लिए यथेष्ट इशारे निकाल सकेंगे।

शुक्रिया।

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