हे मानवश्रेष्ठों,
संवाद की इन्ही श्रृंखलाओं में, कुछ समय पहले एक गंभीर अध्येता मित्र से ‘ईश्वर की अवधारणा’ और इसकी व्यापक स्वीकार्यता के संदर्भ में एक संवाद स्थापित हुआ था। अब यहां कुछ समय तक उसी संवाद के कुछ संपादित अंश प्रस्तुत करने की योजना है।
आप
भी इन अंशों से कुछ गंभीर इशारे पा सकते हैं, अपनी सोच, अपने दिमाग़ के
गहरे अनुकूलन में हलचल पैदा कर सकते हैं और अपनी समझ में कुछ जोड़-घटा सकते
हैं। संवाद को बढ़ाने की प्रेरणा पा सकते हैं और एक दूसरे के जरिए, सीखने
की प्रक्रिया से गुजर सकते हैं।
ईश्वर का जनक कौन है?
आपको हमेशा पढ़ता हूँ और जितना पढ़ता हूँ उतना ही अपने अज्ञान से रूबरू होता जाता हूँ... आप श्रद्धा जगाते हैं मुझमें और विश्वास भी, इंसान पर और इंसानियत पर भी...मेरी जिज्ञासा है...' ईश्वर का जनक कौन है ?'...यहाँ यह भी बता दूँ कि अभी तक का मेरा अध्ययन, अनुभव और निष्कर्ष मुझे हमेशा और हर बार एक ही उत्तर देते हैं वह यह कि ' ईश्वर मानव मस्तिष्क की पैदाईश है।'...आपका क्या कहना है ?...आप मुझ से हुऐ संवाद को कभी भी कहीं भी सार्वजनिक कर सकते हैं...
आपकी ही तरह हम भी अपने अज्ञान से रूबरू रहते हैं, और शायद यही बात हमें निरंतर अपने को अद्यतन, संशोधित और बेहतर करने को प्रेरित करती रहती हैं। हम एक ही प्रक्रिया के राही हैं इसलिए साथी हैं। हमारी साझी चिंताएं, प्रयास और सक्रियताएं हमारे बीच निस्संदेह आपसदारी और विश्वास बनाती हैं, गहराई से जोड़ती हैं। परंतु श्रृद्धा जैसी अवधारणाएं, इस प्रक्रिया को अवरोधित ही करती हैं, इनसे बचा ही जाए तो बेहतर।
हम भी आपके लिखे से अक्सर गुजरते रहे हैं, और आपकी कुशाग्रता से प्रभावित होते रहे हैं। आप संवाद हेतु प्रस्तुत हुए हैं, आपका शुक्रिया। निश्चित ही यह हमें एक-दूसरे से सीखने और समझने की राह प्रशस्त करेगा। आज पहले आपकी छोटी सी पर एक बेहद व्यापक जिज्ञासा पर कुछ स्पष्टीकरण आपसे चाहेंगे, कुछ सवाल भी। यह संवाद को आगे बढ़ाने और एक निश्चित दिशा देने में सहायक रहेंगे।
ईश्वर का जनक कौन है, यह पंक्ति यह घोषणा करती है आप इस मान्यता में हैं कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन आप इस ईश्वर नाम की अवधारणा की बेहद गंभीर उपस्थिति पाते हैं इसलिए प्रश्न उठाते हैं कि फिर इसका जनक कौन है? इसके जनक के मुआमले में भी आपने यह स्पष्ट किया है कि आपको अपने अध्ययन और अनुभवों ने इस निष्कर्ष तक पहुंचाया है कि यह ‘मानव मस्तिष्क’ की पैदाइश है।
फिर भी आप यहां यह जिज्ञासा रखते हैं और हम इस पर क्या कहना चाहते हैं, इसके लिए जिज्ञासू हैं तो इसके दो मतलब निकलते हैं। पहला तो यह कि आप ईश्वर से संबंधित अपनी मान्यताओं और निष्कर्षों पर पूरी तरह मुतमइन नहीं हैं, कुछ उलझाव हैं, कुछ सवाल हैं, कुछ ऐसी अस्पष्टताएं हैं जिनके कारण संदेह पूरी तरह ख़त्म नहीं होता, जिनके कारण ईश्वर की अवधारणा पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाती। स्पष्ट मान्यताएं बना लेने के बावज़ूद, इन मान्यताओं के लिए मजबूत आधार की गुंजाइश आप महसूस करते हैं, और जाहिरा तौर पर इन सबके बारे में आपसी-चर्चा करके आप इस अवधारणा पर अपने को अधिक मुतमइन करना चाहते हैं। दूसरा मतलब यह निकलता है कि आप अपने निष्कर्षों और मान्यताओं पर हमारी स्वीकृति पाना और अपनी मान्यताओं को सिर्फ़ पुष्ट करवाना चाहते हैं।
जाहिर है कि पहला ही मतलब, अधिक सही है तथा समीचीन है, और यही हमारे बीच संवाद का आधार है। इसलिए क्या यह उचित नहीं रहेगा कि आप अपनी इस व्यापक जिज्ञासा को कुछ खोले, इससे जुड़े हुए विशिष्ट पहलुओं और अपने सरोकारों को थोड़ा स्पष्ट करें। इससे हमारी बातचीत में आसानी हो जाएगी और हम संवाद को अधिक विषयगत और सीमित बनाए रख पाएंगे।
हम आपकी इस सामान्य जिज्ञासा का एक सामान्य उत्तर या हल प्रस्तुत कर सकते हैं। आप की ही तरह ईश्वर के अस्तित्व के नकार के साथ, वह कुछ इस तरह से होगा, "ईश्वर की अवधारणा, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है, जिस तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं की उपज है।"
जाहिर है उपरोक्त कथन, इस मान्यता से थोड़ा सा अलग हैं कि `ईश्वर मानव मस्तिष्क की पैदाइश है'। यह इस बात में अलग है कि वाक्यांश `ईश्वर मानव मस्तिष्क की पैदाइश है', जहां एक ओर ईश्वर के अस्तित्व के खिलाफ़ जाना चाह रहा है, वहीं यह उसकी ‘मस्तिष्क की पैदाइश’ के सामान्यीकृत स्पष्टीकरण के लिए उस भाववादी, प्रत्ययवादी ( idealistic ) विचारधारा या दर्शन को ही अपना आधार बना रहा है जिसकी की स्वाभाविक परिणति ईश्वर के अस्तित्व को ही प्रमाणित करती है, जो कि चेतना ( मानव मस्तिष्क जैसी ) को ही प्राथमिक और मूल मानती है। यानि जब हम ‘मानव मस्तिष्क’ यानि चेतना को अधिक तरजीह दे रहे होते हैं, उसे मूल या प्राथमिक मान रहे होते हैं, जिसके कि स्वतंत्र कार्यकलाप, समस्त वस्तुगतता पर हावी होते हैं, तो यही प्रत्ययवादी तर्क हमें परमचेतना के निष्कर्ष तक पहुंचाएगा ही, कि जिस तरह मानव परिवेश की वस्तुगतता मानव चेतना की पैदाइश है, उसी तरह इस ब्रह्मांड़ की वस्तुगतता के पीछे भी किसी चेतना, परम चेतना, ईश्वर जैसी किसी चेतना का हाथ अवश्य ही होगा।
वहीं हमारे द्वारा रखी गई बात के आधारों में हमने भौतिकवादी दर्शन की स्थापनाओं को रखने की कोशिश की है, जो कि चेतना को द्वितीयक तथा भूत (पदार्थ) को प्राथमिक और मूल साबित करता है। यह स्पष्टता के साथ कहा गया है कि मूल में, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की वे परिस्थितियां ही है जिनसे मनुष्य का मस्तिष्क और उसकी सभी अवधारणाएं जिनमें ईश्वर की अवधारणा भी शामिल है, विकसित हुई हैं। जाहिर है यह दर्शन के सवालों से भी माथापच्ची का मामला भी है, भौतिकवादी ( materialistic ) दर्शन के आधारों तक पहुंचने का भी।
जाहिर है हमने कई इशारे किए हैं, कई बाते लिख दी हैं जो कि हमारे भावी संवाद का आधार बनेंगी। आप इन सब बातों पर अपने को विस्तार से स्पष्ट कीजिए।
इस बार इतना ही।
आलोचनात्मक संवादों और नई जिज्ञासाओं का स्वागत है ही।
शुक्रिया।
समय
7 टिप्पणियां:
सार्थक आलेख
ब्लॉग बुलेटिन से यहाँ पहुंचना अच्छा लगा ...!!
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"ईश्वर की अवधारणा, मनुष्य के ऐतिहासिक विकास की परिस्थितियों की स्वाभाविक उपज है, जिस तरह की मनुष्य का मस्तिष्क भी इन्हीं की उपज है।"
एक सही समझ, आगे देखते हैं आप कैसे इसे विस्तार देते हैं...
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@"हमारी साझी चिंताएं, प्रयास और सक्रियताएं हमारे बीच निस्संदेह आपसदारी और विश्वास बनाती हैं, गहराई से जोड़ती हैं। परंतु श्रृद्धा जैसी अवधारणाएं, इस प्रक्रिया को अवरोधित ही करती हैं, इनसे बचा ही जाए तो बेहतर।"
मजाक सा ही तो लगता है आपका ये कहना...!बिना श्रद्धा के काम चल जाएगा ऐसा होना मुश्किल है!कहीं न कही,किसी न किसी में श्रद्धा करनी ही पड़ती है जैसे आपने की हुयी है अपने इस विचार में! बाकी और भी पता नहीं कितनी जगह है जहा हमें श्रद्धा करनी ही पड़ती है!
और ये शब्दजाल किसे कहते है..???
कुँवर जी,
सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत बधाई आपको .
आदरणीय कुंवर जी,
शब्दजाल से आपको शायद तकलीफ़ हुई, मुआफ़ी की दरकार है। आपको मज़ाक लगता है तो आपके लिए वाकई यह एक मज़ाक ही होगा। हम अपने अनुकूलन के हिसाब से ही अपनी मान्यताओं की कसौटियों से हर बात को परखा करते हैं। किसी को श्रद्धा ही मज़ाक सी लगती प्रतीत हो सकती है। किसी को यह भी लग सकता है कि इस अवधारणा का, शायद हम अपनी कमजोरियों के लिए ढ़ाल की तरह इस्तेमाल करते हैं, कि श्रद्धा हमारे लिए एक ढ़ोंग की तरह होती है जिसके जरिए हम अपनी अश्रद्धाओं को सार्वजनीन होने से बचाना चाहते हैं।
आपको यदि श्रद्धा के बगैर काम चलाना मुश्किल लगता है तो आपका नहीं ही चलता होगा। हम अपनी श्रद्धाओं के लिए स्वतंत्र है ही, जहां चाहे रखें। वैसे ही यदि कोई इस या ऐसी ही और भी किसी अवधारणा से मुक्त रहना चाहे, तो जैसा चाहे रहे, हमें इतना सहिष्णु तो होना ही चाहिए।
आपने यहां आने और इस प्रविष्टि से गुजरने का कष्ट उठाया, और अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी से लाभान्वित किया, हम इसके लिए आपके शुक्रगुजार हैं। ईश्वर की अवधारणा पर शुरू हुई यह चर्चा अभी यहां कई सप्ताह तक चलने वाली है, आपकी आमद का इंतज़ार रहेगा।
शुक्रिया।
आदरणीय समय जी,
मुझे इतना सम्मान देने के लिए आभार!आपका शब्दकोष और ज्ञान बहुत ही विशाल है,आपकी कुशाग्रता किसी को भी प्रभावित कर सकती है!
परन्तु जैसे शरीर वायु के कारण जीवित होता है सो उसका जनक नहीं हो सकता उसी तरह मस्तिष्क जिस चेतना के बल पर विचार कर पाता है... कुछ भी धारणा धरने के लिए स्वतंत्र हो पाता है वह उसी चेतना का जनक कैसे हो सकता है!
और आपने इस विचार में श्रद्धा ही तो बनाई है कि इश्वर मस्तिष्क की upaj है!कहा चल रहा है आपका भी काम बिना श्रद्धा के?
aur स्वयं मान रहे अपने दार्शनिक लेख को शब्दजाल.... अब शब्दजाल में चर्चा.... हम अल्प्मातियों के लिए कहा सम्भव है....
कुँवर जी,
ईश्वर को जानना चाहते है तो परम पूज्य पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी को पढें। ईश्वर समस्त गुणों के समुच्चय का नाम है। इस परिभाषा से मेरी तो सारी जिज्ञासाएं शांत हो गयीं और ये सच है कि मनुष्य ही ईश्वर नाम के सिद्धांत का जनक है। इस सिद्धांत को मानने से सब का फायदा ही है, फिर चाहें आप उसे राम के रूप में भजें या रहीम के रूप में ,ईसामसीह के रूप में या किसी और रूप में ये आपके ऊपर है। उन्होंने तो आत्मदेवता के बारे में भी समझाया है ,चाहें तो उसे भी भज सकते हैं। ईश्वर आपका कल्याण करें।
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अगर दिमाग़ में कुछ हलचल हुई हो और बताना चाहें, या संवाद करना चाहें, या फिर अपना ज्ञान बाँटना चाहे, या यूं ही लानते भेजना चाहें। मन में ना रखें। यहां अभिव्यक्त करें।