रविवार, 25 जनवरी 2015

संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना - २

हे मानवश्रेष्ठों,

यहां पर द्वंद्ववाद पर कुछ सामग्री एक श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत की जा रही है। पिछली बार हमने संज्ञान के द्वंद्वात्मक सिद्धांत के अंतर्गत संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना पर चर्चा शुरू की थी, इस बार हम उसी चर्चा को आगे बढ़ाएंगे ।

यह ध्यान में रहे ही कि यहां इस श्रृंखला में, उपलब्ध ज्ञान का सिर्फ़ समेकन मात्र किया जा रहा है, जिसमें समय अपनी पच्चीकारी के निमित्त मात्र उपस्थित है।



संज्ञान की प्रक्रिया की संरचना - २
( structure of cognitive process -2 )

हम जानते हैं कि आकाशीय पिण्डों, विशेषतः हमारी पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा की प्रकृति और गति के नियमों का प्रश्न लोगों को बहुत पहले से ही उद्वेलित ( agitated ) करता रहा है। जब से टेलीस्कोप का अविष्कार हुआ और खगोलवैज्ञानिक जटिल यंत्रों का इस्तेमाल करने लगे, चन्द्रमा के बारे में हमारी जानकारी असामान्य रूप से बढ़ गयी। फिर भी चन्द्रमा की उत्पत्ति, उसके अदृश्य भाग के धरातल, उसके क्रेटर, आदि के बारे में संतोषजनक उत्तर उपलब्ध नहीं थे। वैज्ञानिकों ने तरह-तरह के अनुमान लगाये, जो इन या उन तथ्यों को न्यूनाधिक युक्तियुक्त ढंग से समझाते थे। मगर हर महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर ऐसी प्राक्कल्पनाओं ( hypothesis ) की संख्या इतनी अधिक थी कि बहुत समय तक यह तय नहीं किया जा सका कि उनमें से सही कौन सी है। किंतु आज कृत्रिम उपग्रहों, स्वचालित अंतरिक्ष प्रयोगशालाओं, अंतरिक्षयात्रियों के अनुसंधान, आदि के ज़रिये उपरोक्त प्रश्नों में से बहुतों का सही-सही उत्तर पा लिया गया है।

इन सबके बारे में सोचते हुए हम दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर ध्यान दिये बिना नहीं रह सकते : पहले, किसी भी वस्तु या परिघटना का ज्ञान प्राप्त करने में मनुष्य द्वारा अपनी ज्ञानेन्द्रियों या यंत्रों की मदद से किये जानेवाले प्रेक्षण ( observation ) की बहुत बड़ी भूमिका है और, दूसरे, अध्ययन की जानेवाली वस्तुओं और प्रक्रियाओं के गुणों, विशेषताओं तथा नियमों के बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण जानकारी अध्ययनाधीन ( under investigation ) परिघटनाओं के साथ सक्रिय अन्योन्यक्रिया ( active mutual interaction ) के आधार पर ही पायी जा सकती है।

बाह्य विश्व की परिघटनाओं के कार्य में सक्रिय हस्तक्षेप के बिना और विचाराधीन प्रक्रियाओं के साथ अन्योन्यक्रिया के बिना प्रेक्षण, निष्क्रिय चिंतन ( passive contemplation ) ही होता है। वह हमें इन परिघटनाओं तथा प्रक्रियाओं के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी अवश्य देता है, मगर उनके बीच मौजूद अधिक गहरे संबंधों, वस्तुओं और प्रक्रियाओं के मूलभूत गुणों तथा संपर्कों की जानकारी पाने के लिए निष्क्रिय चिंतन तक ही सीमित रहना ठीक नहीं है।

वृक्ष का प्रेक्षण करके हम उसके पत्तों का रंग तथा आकार, स्वयं वृक्ष का आकार, उसकी छाल की ऊपरी विशेषताएं, जिस मिट्टी में उस जाति के वृक्ष उगते हैं, उसे और दूसरी बहुत सी बातें जान सकते हैं। किंतु काट में दिखायी देनेवाले वलयों ( rings ) के अनुसार वृक्ष की आयु निर्धारित करने के लिए उसके तने को काटना जरूरी है। वानस्पतिक कोशिकाओं की संरचना की विशेषताओं या उनमें घटनेवाली जीवरासायनिक प्रक्रियाओं की विशिष्टता का पता लगाने के लिए हमें सूक्ष्मदर्शी इस्तेमाल करना होगा, बहुत से रासायनिक परीक्षण करने होंगे। वृक्ष की लकड़ी की कठोरता, लचीलेपन की सीमा और रासायनिक संरचना को जानने के लिए हमें उसपर और भी जटिल प्रभाव डालने होंगे। यह सब जानने के लिए आवश्यक है कि वृक्ष के तने, जड़ों, शाखाओं और पत्तों को भिन्न-भिन्न जगहों पर दर्जनों बार मोड़ा, तोड़ा और रसायनों से उपचारित ( treated ) किया जाये। अध्ययन की जानेवाली वस्तु के साथ ऐसी सक्रिय अन्योन्यक्रिया को वस्तुओं तथा औज़ारों से संबंधित कार्यकलाप कहते हैं। इस क्रिया के दौरान हम उसका ज्ञान प्राप्त करते हैं, जो निष्क्रिय चिंतन की सहायता से नहीं जाना जा सकता है।

इस प्रकार हम अगले महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। संज्ञान की प्रक्रिया में निम्न तत्व शामिल हैं : पहले संज्ञान की वस्तुएं ; दूसरे, वस्तु के साथ वस्तुओं तथा औज़ारों से संबंधित कार्यकलाप ; तीसरे, ज्ञान, जो इस कार्यकलाप के परिणामस्वरूप वस्तुओं में पाये जानेवाले गुणों और विशेषताओं के प्रतिबिंब के रूप में प्रकट होता है।



इस बार इतना ही।
जाहिर है, एक वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गुजरना हमारे लिए संभावनाओं के कई द्वार खोल सकता है, हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में हमारी मदद कर सकता है।
शुक्रिया।
समय अविराम

1 टिप्पणियां:

Rajendra kumar ने कहा…

बहुत ही सार्थक प्रस्तुति, गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाये।

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